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जैथलिया जी ने अपने सुकर्मों के बल पर पश्चिम से पूरब तक अनेक सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक संगठन खड़े किए और कार्यकर्ताओं को उनकी जिम्मेदारी देकर स्वयं पीछे रहे
महावीर बजाज
कर्मयोगी श्री जुगल किशोर जैथलिया का छोटीखाटू (राजस्थान) से कोलकाता तक का सफर बहुत ही दिलचस्प है। उनका जन्म राजस्थान के नागौर जिले की डीडवाना तहसील के छोटीखाटू गांव में मध्यमवर्गीय वैश्य कुल में 2 अक्तूबर, 1937 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री कन्हैयालाल एवं माता का नाम पुष्पा देवी था। प्रारंभिक शिक्षा ननिहाल में एवं सातवीं कक्षा तक छोटीखाटू की राजकीय पाठशाला में हुई। तत्पश्चात दसवीं तक की शिक्षा डीडवाना में हुई। अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र होने के कारण 15 वर्ष की आयु में दसवीं करने से पहले ही उनका विवाह बोरावड़ के गट्टाणी परिवार की मैना देवी से दिसंबर, 1952 में संपन्न हुआ। आगे की शिक्षा हेतु 1953 में वे कोलकाता आ गए। यहीं उनके पिता बांगड़ घराने में नौकरी करते थे। उन दिनों राजस्थान से आए अधिकांश छात्र अध्ययन एवं नौकरी साथ-साथ करते थे। जैथलिया जी ने भी इसी प्रकार दो वर्ष तक बी. कॉम एवं कानून की पढ़ाई की। तत्पश्चात् तीसरे वर्ष में वकालत करने की इच्छा लेकर एक वकील एस़ एल. गनेड़ीवाला के सहायक के रूप में कार्य किया। इस दौरान उन्होंने एम. कॉम. की उपाधि हासिल की। दो-तीन वर्ष के प्रशिक्षण के उपरांत उन्होंने आयकर सलाहकार का कार्य प्रारंभ कर दिया एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की। अपने जीवन के 65 वर्ष पूर्ण करते ही फलते-फूलते आयकर सलाहकार के व्यवसाय को अपने योग्य उत्तराधिकारियों को सौंपकर स्वयं को पूर्णत: उससे निर्लिप्त कर लिया। उसके बाद तो जीवन के अंतिम क्षण तक जुगल जी लोक-कल्याण कार्यों में पूरी निष्ठा के साथ जुड़े रहे एवं ‘ज्यों ज्यों उम्र बढ़ी है, मैंने चलना तेज किया है’ को चरितार्थ करते हुए 1 जून, 2016 को कोलकाता में अंतिम सांस ली। जुगल जी अनेक सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संगठनों के प्रेरक रहे।
श्री छोटीखाटू हिंदी पुस्तकालय
1958 में दिल्ली नगर निगम की पहली बैठक में तत्कालीन गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत के अभिनंदन पत्र में महात्मा गांधी के लिए ‘राष्टÑपिता’ शब्द के प्रयोग को लेकर समाचार पत्रों में चल रहे तर्क-वितर्क से जुगल जी का तरुण मन अशांत हो गया। उन दिनों जुगल जी कलकत्ता में लॉ कॉलेज में पढ़ रहे थे। वे छुट्टियों में गांव गए एवं नागौर जिला संघचालक श्री मिलापचंद माथुर से इसका जिक्र किया। उन्होंने जैथलिया जी को ‘पाञ्चजन्य’ की प्रति पढ़ने के लिए दी। पढ़ने के बाद उन्हें बड़ा संतोष मिला। उन दिनों गांवों में समाचार पत्र यदा-कदा ही आते थे अत: समाचारों की पूर्ण जानकारी नहीं मिल पाती थी। जैथलिया जी को लगा कि इस ग्रामीण अंचल की जनता में जागरूकता हेतु पुस्तकालय की आवश्यकता है। उन्होंने अपने परममित्र श्री बालाप्रसाद जोशी एवं अन्य बंधुओं यथा भोजराज बेताला, मांगीलाल बजाज, सोहनलाल मंत्री, लालचंद सेठिया एवं रामविलास सारड़ा आदि से परामर्श कर 19 मई, 1958 को ‘श्री छोटीखाटू हिंदी पुस्तकालय’ के नाम से एक पुस्तकालय की स्थापना की। यहीं से शुरू होती है उनके लोक-कल्याण एवं पुरुषार्थ की कहानी।
अपने सीमित साधनों में छोटीखाटू जैसे छोटे गांव की पूरे राजस्थान में कैसे विशिष्ट पहचान बने और पुस्तकालय के माध्यम से ज्ञान का दीप समग्र अंचल को ज्योतित करे, इस हेतु वे कटिबद्ध हुए। उन्होंने सोचा कि छोटीखाटू को बड़े लोगों का स्नेह एवं चरण धूलि मिल जाए तो गांव को पहचान मिल जाएगी। कालांतर में उन्होंने कोलकाता में रहते हुए छोटीखाटू के वरिष्ठ समाजसेवियों के विरोध के बावजूद पुस्तकालय का विशाल भवन बनवाया। इसका उद्घाटन 15 मई, 1967 को उपन्यास-सम्राट वैद्य गुरुदत्त ने किया। बाद में इसके विभिन्न कार्यक्रमों एवं वार्षिक सम्मान समारोहों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, जैनेन्द्र कुमार, भवानीप्रसाद मिश्र, कन्हैयालाल सेठिया, आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, नरेंद्र कोहली, सुंदर सिंह भंडारी, कैलाशपति मिश्र, केदारनाथ साहनी, त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, तपन सिकदर, ललित किशोर चतुर्वेदी, श्री मोहनराव भागवत, श्री भैयाजी जोशी जैसी विभूतियां शामिल हुर्इं।
वैचारिक दृष्टि से उन्होंने 1990 में पं. दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान तथा 2009 में महाकवि कन्हैयालाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान प्रारंभ किया तथा समय-समय पर स्मारिकाएं प्रकाशित कर पुस्तकालय को आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाया। इन कार्यक्रमों में उपस्थित महानुभावों से छोटीखाटू के उन्न्यन हेतु समुचित आग्रह भी किया। लोक कल्याण कार्यों यथा टेलीफोन-एस़ टी़ डी. की सुविधा, जोधपुर-दिल्ली मेल का ठहराव, पेयजल की व्यवस्था तथा 30 शैया वाले सामुदायिक चिकित्सा केंद्र की प्रोन्नति इत्यादि में अविस्मरणीय योगदान के फलस्वरूप वे छोटीखाटू में विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने सार्वजनिक संस्थाओं में आर्थिक शुचिता पर भी न केवल जोर दिया, बल्कि पुस्तकालय को गांव की एक ऐसी संस्था के रूप में खड़ा करने का उदाहरण प्रस्तुत किया जिसके खाते की जांच लेखा परीक्षक के द्वारा प्रतिवर्ष की जाती है। उनके इन कार्यों से ही प्रेरणा प्राप्त कर आसपास के क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं ने अनेक संस्थाओं एवं संगठनों के कार्यों में रुचि लेकर अपने-अपने गांव के विकास में योगदान दिया।
श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय
कोलकाता में आयकर सलाहकार के रूप में कार्य करते हुए भी जुगल जी साहित्य एवं समाजसेवा के विभिन्न कार्यों में सदैव सक्रिय रहे। 1972 से 1976 तक कलकता की प्रतिष्ठित संस्था ‘सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय’ के वे मंत्री रहे। बड़े संकल्प को सामने रखकर स्वतंत्र रूप से कार्य करने हेतु उन्होंने श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय के संस्थापक श्री राधाकृष्ण नेवटिया से विचार-विमर्श किया। नेवटिया जी ने उन्हें 1973 में कुमारसभा पुस्तकालय के मंत्री का दायित्व सौंपा। दयनीय आर्थिक अवस्था से उबारकर उन्होंने इसका कायाकल्प किया एवं पुन: इसे साहित्यिक संस्थाओं की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया। 1975 के आपातकाल के समय जब सर्वत्र भय का वातावरण था, तब उन्होंने कुमारसभा के मंच से हल्दीघाटी चतु:शती समारोह के उपलक्ष्य में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के संयोजकत्व में एक विराट वीर रस कवि सम्मेलन आयोजित किया। इस समारोह में कवियों द्वारा आपातकाल के विरोध में पढ़ी गई रचनाओं के कारण उन्हें कई महीनों तक भूमिगत रहना पड़ा। उनके संयोजन में 1994 में कुमारसभा की कौस्तुभ जयंती पर आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के संचालन में पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी का एकल काव्यपाठ हुआ जो अविस्मरणीय ऐतिहासिक प्रसंग है। जुगल जी कुमारसभा की सभी गतिविधियों के मार्गदर्शक रहे। जुगल जी की परिकल्पना से कुमारसभा ने दो राष्टÑीय स्तर के सम्मान विवेकानंद सेवा सम्मान (1986 में) तथा डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान (1990 में) प्रारंभ किए, जो प्रतिवर्ष प्रदान किए जाते हैं।
संघ से संपर्क
परिवार की धार्मिक वृत्ति एवं आजादी के पूर्व के वर्षों में राष्टÑीय भावों के तीव्र प्रवाह के कारण जुगल जी बचपन में यानी 1946 में ही अपने गांव में राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के कार्य से जुड़ गए। यह संबंध कोलकाता में 1958 में श्री भंवरलाल मल्लावत जैसे समर्पित कार्यकर्ता के आकर्षण के कारण क्रमश: दृढ़ होता गया। कोलकाता महानगर के बौद्धिक प्रमुख तथा पश्चिम बंगाल प्रांत के सह-बौद्धिक प्रमुख के विभिन्न दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह करते हुए उन्होंने अनेक युवकों को संघ कार्य से जोड़ा। वे कुशल संगठक और ओजस्वी वक्ता भी थे।
भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय
श्री जैथलिया ने कॉलेज में पढ़ते हुए राष्टÑवादी विचारधारा के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के भी विभिन्न पदों पर कार्य किया। भारतीय जनसंघ के कार्य से भी वे जुड़े रहे।
जुगल जी का जन-संपर्क विस्तृत था तथा लोगों को अपने विचारों से आकर्षित कर लेने की अद्भुत क्षमता थी। 1982 में उनके बड़े पुत्र गोपाल का निधन हो गया। इसके दो महीने बाद ही वरिष्ठ नेताओं के दबाव के कारण उन्हें भाजपा के टिकट पर जोड़ाबागान विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ना पड़ा। बाद में वे बंगाल भाजपा के कोषाध्यक्ष बने। वरिष्ठ उपाध्यक्ष हाने के नाते भी उन्होंने वर्षों तक कार्य किया।
राजस्थान परिषद
1979 के आरंभ में उन्होंने हिंदी एवं राजस्थानी के वरिष्ठ कवि कन्हैयालाल सेठिया से परामर्श करके कोलकाता के प्रवासी राजस्थानियों को एक सूत्र में बांधने, राजस्थानी संस्कृति के संरक्षण तथा राजस्थान के विकास हेतु राजस्थान सरकार से संपर्क बनाए रखने के लिए राजस्थान परिषद का गठन करवाया। उनके विशिष्ट प्रयत्नों से ही कोलकाता में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की स्मृति में एक पार्क एवं एक सड़क का नामकरण हुआ तथा एक आवक्ष मूर्ति और एक चेतक पर सवार 20 फुट ऊंची भव्य कांस्य प्रतिमा सेन्ट्रल एवेन्यू (सेंट्रल मेट्रो के सामने) में स्थापित हुई। राजस्थान परिषद के तत्वावधान में महाकवि कन्हैयालाल सेठिया के संपूर्ण साहित्य को उन्होंने चार खंडों में संपादित कर प्रकाशन का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया जिसमें मुझे भी सहयोगी रहने का सौभाग्य मिला। जैथलिया जी ने कन्हैयालाल सेठिया की 14 राजस्थानी पुस्तकों का ‘राजस्थानी समग्र’ प्रकाशित करवाया, जो राजस्थानी में संभवत: पहला समग्र है।
अन्य गतिविधियां
श्री जैथलिया भारत सरकार की महत्वपूर्ण संस्था ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक एवं न्यासी भी रहे। उनके प्रयत्न से ही नेशनल बुक ट्रस्ट ने राजस्थानी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित करना प्रारंभ किया। वे नेशनल इंश्योरेंस के निदेशक, ‘स्वस्तिका प्रकाशन ट्रस्ट’ के ट्रस्टी, सरदार पटेल मेमोरियल कमेटी के संस्थापक सदस्य भी रहे। मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, कलकत्ता पिंजरापोल सोसाइटी एवं अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन में भी उन्होंने सक्रिय योगदान दिया।
संपादन एवं सम्मान
कुमारसभा, राजस्थान परिषद एवं छोटीखाटू हिंदी पुस्तकालय की संग्रहणीय स्मारिकाओं के संपादन के अलावा उन्होंने ‘विष्णुकांत शास्त्री : चुनी हुई रचनाएं’, ‘महाकवि गुलाब खंडेलवाल : चुनी हुई रचनाएं’ के दो-दो खण्ड संपादित किए। वे अन्य कई ग्रंथों के भी संपादक रहे यथा कालजयी सोहनलाल दूगड़ स्मृति ग्रंथ (1979), तुलसीदास : चिन्तन-अनुचिन्तन (1980), बड़ाबाजार के कार्यकर्ता : स्मरण एवं अभिनंदन (1982), पत्रों के प्रकाशन में कन्हैयालाल सेठिया (1989), फिर से बनी अयोध्या योध्या (1992), अमर आग है (1994) एवं विष्णुकांत शास्त्री अमृत महोत्सव अभिनंदन ग्रंथ (2004) आदि। वे शारदा ज्ञानपीठ सम्मान, भगवती चरण वर्मा स्मृति सम्मान, भामाशाह सेवा सम्मान, राजश्री स्मृति साहित्य सम्मान, कुरजां सम्मान, विष्णुकांत शास्त्री स्मृति विशिष्ट हिंदी सेवा सम्मान एवं कर्मयोगी सम्मान से सम्मानित हुए थे।
(लेखक श्री बड़ाबजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता के मंत्री हैं)
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