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पिथौरागढ़ के दुर्गम इलाके में 2700 मीटर की ऊंचाई पर बसे नामिक गांव पहुंचने के लिए 27 किमी पैदल चलना पड़ता है। कोई भी शिक्षक गांव में नहीं रहना चाहता है, भगवान सिंह अकेले ही बच्चों को पढ़ा रहे हैं
प्रस्तुति: जीवन दानू
एक दिन विद्यालय में मास्टर जी मुहावरा बता रहे थे ‘र्इंट का जवाब पत्थर से देना।’ बच्चों ने कहा, मास्टर जी पत्थर तो देखा है, लेकिन र्इंट क्या होती है? इसके बाद मास्टर जी पैदल ही 27 किलोमीटर गए और फिर र्इंट का एक टुकड़ा लेकर दूसरे दिन लौटे। यानी बच्चे र्इंट देख पाएं, इसके लिए उन्होंने 54 किलोमीटर की यात्रा पैदल ही की।
यह प्रसंग है नामिक गांव का, जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के आखिरी छोर पर हिमालय की तलहटी में है। उन शिक्षक का नाम है भगवान सिंह जेम्याल। दुर्गम क्षेत्र में होने के कारण कोई भी शिक्षक यहां के स्कूल में पढ़ाने नहीं आना चाहता। भगवान सिंह इसी गांव के हैं और 20 साल से अकेले ही इस गांव में बच्चों को पढ़ा रहे हैं। वैसे तो वे जूनियर हाई स्कूल में सहायक अध्यापक के तौर पर तैनात हैं, लेकिन दायित्व राजकीय हाई स्कूल के प्रधानाचार्य का निभा रहे हैं। प्राथमिक स्कूल में सहायक शिक्षक से पारी शुरू करने वाले भगवान सिंह को अपने गांव से बहुत लगाव है। 2011 में नामिक जूनियर हाई स्कूल को हाई स्कूल का दर्जा मिला।
भगवान सिंह के शिक्षक बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। उन्हें शिक्षक बनाने में गांव के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। समुद्र तल से 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नामिक गांव में जाने के लिए आज भी 27 किलोमीटर पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इसी कारण कोई भी शिक्षक इस गांव में आना ही नहीं चाहता था। लिहाजा गांव के बुजुर्गों ने गांव के ही किसी बच्चे को पढ़ा-लिखा कर शिक्षक बनाने का फैसला लिया। उस समय गांव के प्राथमिक स्कूल में जो शिक्षक तैनात थे, उनकी भी इसमें भूमिका रही। गांव में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के बाद भगवान सिंह का दाखिला मुनस्यारी राजकीय इंटर कॉलेज में दिलाया गया। इंटर पास करने के बाद उन्होंने पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज से उच्च शिक्षा ग्रहण की। बीटीसी की परीक्षा पास करने के बाद वर्ष 1997 में भगवान सिंह को उनकी इच्छा के अनुसार पहली तैनाती नामिक के प्राथमिक स्कूल में मिली। प्राथमिक स्कूल के बाद जूनियर हाई स्कूल और अब छह साल से हाई स्कूल की जिम्मेदारी भी उन्हीं के कंधों पर है। स्कूल में 49 विद्यार्थी पढ़ते हैं।
घर में बनता है मध्याह्न भोजन
20 साल से अति दुर्गम इलाके में शिक्षण कार्य कर रहे भगवान सिंह जेम्याल पर एक तरह से जबरदस्ती हाई स्कूल की जिम्मेदारी थोपी गई थी पर आज वे इस काम को मिशन की तरह कर रहे हैं। स्कूल में बच्चों को मिलने वाले मध्याह्न भोजन की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है। भगवान सिंह की रसोई में ही विद्यार्थियों के लिए मध्याह्न भोजन तैयार होता है। इतना ही नहीं, हाई स्कूल के विद्यार्थी भी दोपहर का भोजन स्कूल में ही करते हैं। इसके अलावा अक्सर भगवान सिंह बालिकाओं की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी उठाते हैं और उन्हें पढ़ाने में आर्थिक सहयोग भी करते हैं।
आलम यह है कि आजादी के 70 साल बाद भी इस गांव में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। न तो इस गांव तक पहुंचने के लिए सड़क है, न यातायात के दूसरे साधन। यहां तक कि स्वास्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। शिक्षा विभाग गांव में शिक्षकों की तैनाती तो दूर, क्लर्क और चपरासी तक तैनात नहीं कर पाया है। भगवान सिंह अकेले ही सारी जिम्मेदारियां उठा रहे हैं। 2016 में कुछ महीने के लिए चार अतिथि शिक्षकों की तैनाती हुई थी। लेकिन वे भी टिक नहीं पाए। लिहाजा भगवान सिंह अकेले ही कक्षा छह से लेकर 10 तक के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। वे अब तक हाई स्कूल के पांच बैच निकाल चुके हैं। सेवापरायण भगवान सिंह कहते हैं कि अकेले पांच कक्षाओं के विद्यार्थियों को पढ़ाने में उन्हें दिक्कत तो होती है, लेकिन कर भी क्या सकते हैं। उनके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। उन्हें गांव के नौनिहालों के भविष्य की चिंता है। बस यही चिंता उन्हें परिस्थितियों से जूझने की शक्ति देता है।
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