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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर अनेकानेक ग्रंथों एवं पुस्तकों की रचना हुई है, लेकिन प्रस्तुत पुस्तक 'डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी- एक शिक्षाविद्' उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के एक ऐसे पहलू को विवेचित करती है जिसकी चर्चा वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कम होती है।
डॉ. मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष, संविधान सभा के सदस्य, नेहरू मंत्रिपरिषद में वाणिज्य मंत्री और कश्मीर पर अपनी वैचारिक दृढ़ता, स्पष्टता और अन्तत: कश्मीर के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन जिस परिवेश, पृष्ठभूमि, विरासत और कृतित्व ने उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया, उन्हें महानतम श्रेणी में स्थापित किया, वह प्रारंभिक जीवन में शिक्षा के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय, अविस्मरणीय कार्य है जो वर्तमान में भी अनुकरणीय है। पुस्तक में आगमनात्मक, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्धति का उपयोग किया गया है। यह उपसंहार के अलावा आठ अध्यायों में है। पुस्तक में प्रस्तावना, वेश, परंपरा व विरासत, प्रारंभिक जीवन, विद्यार्थी से विचारक तक, युवा कुलपति, उनके शैक्षणिक विचारों की प्रासंगिकता आदि के साथ महत्वपूर्ण परिशिष्ट को भी शामिल किया गया है। पुस्तक के आरंभ में ही डॉ. मुखर्जी का समर्पण 'लीव्स फ्रॉम अ डायरी, 1946' उद्धृत है। उनके शब्द उनकी वैचारिक एवं आध्यात्मिक विशिष्टता का दर्शन कराते हैं।
पुस्तक प्रथम चार अध्यायों में व्यक्ति एवं व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला तैयार करने का महती कार्य आपके पिता डॉ. आशुतोष मुखर्जी, कुलपति कलकत्ता विश्वविद्यालय एवं कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा किए गए विमर्श एवं उद्धरण को साथ लेकर चलती है। डॉ. मुखर्जी ने अपनी एक पुस्तिका में लिखा था 'मैं महान बनना चाहता हूं। मैं धन नहीं चाहता'। निश्चित ही यह उनका राष्ट्रभाव था। पृष्ठ 35 पर अनूदित संदर्भ 'उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटें, देशवासियों के हितार्थ कार्य करें।' 'जीवन का तात्पर्य मौजमस्ती नहीं, यह दूसरों की सेवा के लिए मिला है।' 'विद्यार्थी अगर पढ़ाई छोड़ देंगे तो देश के विकास में कैसे हाथ बंटाएंगे', आदि इसके परिचायक हैं। उनका मानना था कि 'वैचारिक युद्ध पुस्तकों के बिना नहीं लड़ा जा सकता है।' पुस्तकों से उन्हें अगााध प्रेम था। वे ग्रीक विचारक सिसरो के विचार 'पुस्तक विहीन कमरा आत्मा विहीन शरीर की भांति है' से सहमत नजर आते हैं। उन्होंने 1952 में 85,000 पुस्तकों का अनमोल भंडार राष्ट्र को समर्पित कर दिया था।
शिक्षा की प्रासंगिकता के परिपे्रक्ष्य में उनका मानना था कि यह मनुष्य के विकास के साथ राष्ट्र निर्माण के लिए अति आवश्यक है। वे उन सभी शैक्षणिक एवं अन्य सिद्धांतों का खंडन करते हैं जो वस्तुत: राष्ट्र के पुनर्जागरण की अवधारणा से पृथक राष्ट्र निर्माण की विवेचना पर जोर देते हैं। डॉ. मुखर्जी धर्मपरायण थे, पर रूढि़वादिता से बहुत दूर थे। उन्होंने आधुनिक शिक्षा, विशेषकर समाजोपयोगी और व्यवसायोपयोगी शिक्षा पर बल दिया। उनका मानना था कि 'भारत विश्व का पहला राष्ट्र है जो मूलभूत स्वरूप में समर्पण, समानता व सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को सर्वोच्चता प्रदान करता रहा है। बंकिमचंद्र की भांति वे 'बाबू प्रथा' और अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव एवं वर्चस्व से विचलित थे।
विश्वविद्यालयों की वित्तीय स्थिति पर उन्होंने कहा था कि विश्वविद्यालय राष्ट्रीय धरोहर हैं जिस पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। विश्वविद्यालयों को हर परिस्थिति में पर्याप्त फंड मिलें ताकि विश्वविद्यालय जीवित रह सकें। मंत्रिमंडल की बैठक में उन्होंने कहा था, ''मुस्लिम सदस्यों का कर्तव्य है कि वे अपने समुदाय में ऐसा जनमत बनाएं ताकि युवा शैक्षिक सुविधाओं का पूरा लाभ उठा सकें। यूनिवर्सिटी सभी के लिए समान अवसर प्रदान करती है चाहे कोई किसी भी जाति, धर्म, मत अथवा समुदाय का विद्यार्थी हो। दोनों समुदायों में गलतफहमी का कोई कारण नहीं होना चाहिए।'' उन्होंने परीक्षा प्रणाली, समय सारणी व ट्यूटोरियल का एक स्वरूप प्रस्तुत किया था जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है। छठा अध्याय शिक्षा के संप्रदायीकरण के संदर्भ में है, जबकि सातवां अध्याय समग्रता को स्थापित करता है।
पुस्तक कहीं कुछ छोटी-मोटी त्रुटियों को छोड़कर अपनी संरचना और रचना पद्धति के साथ न्याय करती है। लेखक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने पुस्तक में सहजता, तारतम्यता, अनुकूलता और विषय के यथार्थ को
अपनाए रखा। -प्रो. श्रीप्रकाश सिंह
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