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शक के दायरे में नीयत

by
Sep 25, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Sep 2017 10:56:22

मीडिया का काम सिर्फ विरोध ही नहीं, बल्कि घटनाओं की सही तस्वीर और तथ्यों को सामने रखना भी है

जैसी कि उम्मीद थी, रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में भी मीडिया के बड़े तबके ने भारत विरोधी रवैया अपनाया। इस बार भी एनडीटीवी ही इस जमात की अगुआई कर रहा है। तमाम चैनलों व अखबारों में छिपे वामपंथी देशहित के इस मामले में अपनी विचारधारा की घुट्टी घोलने में जुटे हैं। जो कल तक भारतीय परंपराओं का मजाक उड़ाते रहे, वे हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की याद दिला रहे हैं। जो बताते रहे कि भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है, वे अचानक इसे रोहिंग्या मुसलमानों के लिए सुरक्षित जगह बताने लगे। एनडीटीवी पर बताया गया कि भारत तो शरणार्थियों से ही बना देश है। इंडियन एक्सप्रेस लगभग रोज ऐसी तस्वीरें छाप रहा है, जिससे लोगों में रोहिंग्याओं के लिए संवेदना पैदा हो सके। लोग पूछ रहे हैं कि क्या कश्मीर और पाकिस्तान से भगाए गए हिंदुओं की बदहाली को लेकर एनडीटीवी व इंडियन एक्सप्रेस जैसे संस्थान कभी संवेदनशील रहे हैं? अगर नहीं, तो इस मामले में उनकी नीयत शक के दायरे में है।
मीडिया का काम सिर्फ विरोध करना ही नहीं, बल्कि घटनाओं की सही तस्वीर और तथ्यों को सामने रखना भी है। अगर वह ऐसा नहीं कर रहा, तो मतलब यही है कि वह अफवाह फैला रहा है। सरकार के विरोध के नाम पर झूठी और मनगढ़ंत खबरें छापने और दिखाने की तो मानो छूट-सी मिली हुई है। राजस्थान के गो तस्कर पहलू खान के मामले में गलत तरीके से नामजद किए गए छह लोगों को पूरी जांच के बाद छोड़ा गया तो कई अखबारों ने ऐसे खबर छापी मानो सारे आरोपियों को छोड़ दिया गया हो। इकॉनोमिक टाइम्स ने छापा कि दिल्ली मेट्रो बनाने वाले ई. श्रीधरन ने बुलेट ट्रेन का विरोध किया है, जबकि यह गलत खबर थी। उनका आशय बुलेट ट्रेन से नहीं, बल्कि मुंबई-अमदाबाद मार्ग से था। ऐसी खबरें कौन लोग गढ़ते हैं तथा उसके पीछे मंशा क्या होती है, समझना मुश्किल नहीं है।
उत्तर प्रदेश में किसानों का एक लाख रुपये तक का कर्ज माफ किया जा रहा है। लाभ लेने वाले किसानों की संख्या करोड़ों में है। चैनलों और अखबारों की नजर से देखें तो पूरे प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। सवाल यह है कि क्या मीडिया यह नहीं समझता कि जहां इतना बड़ा अभियान चल रहा हो, वहां कुछ दर्जन मामलों में भूल-चूक हो सकती है? जिन किसानों के कर्ज के 10-20 रुपये ही बचे थे, उन्हें उतने की ही माफी का प्रमाणपत्र भेजा गया। इसे लेकर भ्रम फैलाने की पूरी कोशिश की गई। ऐसी किसी भी खबर में मीडिया की जिम्मेदारी होती है कि वह संबंधित अधिकारी या नेता से उसका भी पक्ष पूछे, लेकिन इसे बड़ी सफाई से नजरअंदाज कर दिया गया।
इधर एक और बात सामने आ रही है कि कुछ खास पत्रकारों को रोज नकारात्मक विषयों पर बाकायदा सूचनाएं और दूसरी सामग्री भेजी जा रही है। हमारी जानकारी के मुताबिक, यह एक बड़े विपक्षी दल की तरफ से प्रायोजित हो रहा है। इस सूचना व सामग्री के आधार पर कुछ अग्रणी चैनलों पर कार्यक्रम तैयार कराए और प्रसारित भी किए जा रहे हैं। ध्यान से देखें तो कुछ चैनलों पर रोज झूठी और भ्रामक खबरों को योजनाबद्घ तरीके से प्रसारित किया जा रहा है। किसी मामले में जब कोई पत्रकार पकड़ा जाता है तो बहुत जरूरी होने पर खेद जता देते हैं। पर एक बार गलत खबर चल गई तो वह सोशल मीडिया के जरिए फैलती रहती है और बड़ी संख्या में लोगों द्वारा सच मान ली जाती है। क्या बिना किसी लालच के झूठी खबरों का यह कारोबार इतनी आसानी से चल सकता है?
फिलहाल कांग्रेस नेता और उसके समर्पित पत्रकारों की बौखलाहट इतनी बढ़ चुकी है कि वे गाली-गलौज पर उतारू हैं। मनीष तिवारी, मृणाल पांडे और देह व्यापार के आरोपी एक कांग्रेसी नेता के पत्रकार भाई ने सोशल मीडिया पर अभद्रता व गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया। इनमें भाजपा समर्थकों से लेकर प्रधानमंत्री के परिवार तक को अपमानित करने की मंशा थी। कुछ दिन पहले एक आम व्यक्ति की अभद्र भाषा के लिए प्रधानमंत्री को दोषी ठहरा रहे पत्रकार इस बार चुप बैठ गए। कुछ ने तो इस अभद्रता को सही ठहराना भी शुरू कर दिया। लोग इस पाखंड को अच्छी तरह देख व समझ रहे हैं।
उधर, रिपब्लिक चैनल ने हाल ही में माकपा से निष्कासित सांसद रिताब्रत बनर्जी का साक्षात्कार लेकर वामपंथी खेमे के विरोधाभासों को उजागर कर दिया। यह साक्षात्कार वामपंथ की अंदरूनी राजनीति पर ही नहीं, बल्कि पूरी विचारधारा पर सवाल खड़े करता है। रिताब्रत बनर्जी ने केरल के कन्नूर में स्वयंसेवकों की बर्बर तरीके से हत्या के सच को उजागर किया। उन्होंने बताया कि कैसे राज्य में जगह-जगह मार्शल आर्ट अकादमी के नाम पर वामपंथी आतंकवाद के प्रशिक्षण केन्द्र खोले गए हैं। लगभग पूरा वामपंथ इस्लामी कट्टरपंथियों के कब्जे में जा चुका है। यह एक बड़ा खुलासा था जिस पर मीडिया के जरिए एक बड़ी बहस की गुंजाइश थी, लेकिन पत्रकार के नाम पर बैठे कामरेडों ने पूरी मुस्तैदी के साथ मामले को दबा दिया। इसकी बजाए अब रिपब्लिक चैनल और उसके संपादक पर ही चौतरफा हमले तेज हो गए हैं।    ल्ल

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