|
यूं तो प्रश्न तीन हैं किन्तु संभव है, पहले दो प्रश्नों का निहितार्थ समझने पर आप तीसरे प्रश्न का उत्तर स्वयं तलाश लें।
पहला प्रश्न— शिक्षा करियर के लिए है या ज्ञान के लिए?
बात केवल रेयान स्कूल की या फिर छोटी या बड़ी कक्षा की नहीं है। बात उस उलझन को सुलझाने की है जहां से यह फंदा शुरू होता है। बात यह है कि क्या हमने वास्तव में अपने बच्चों को केवल शिक्षा के लिए उस ‘बड़े स्कूल’ में भेजा था! इस लोमहर्षक हत्याकांड का जिक्र न भी करें तो सबसे पहले पूछने वाली बात यह है कि बच्चों को प्राथमिक ज्ञान के लिए अपनी और उनकी इतनी दौड़ लगवाना ठीक है क्या?
हम अपने बच्चों से क्या चाहते हैं? हम किसी स्कूल से किस चमत्कार की आशा करते हैं? तब स्कूल की दमकती इमारत देखने वाली आंखों में आज आंसू हैं। यह हृदय विदारक है परंतु यह सच है कि पहले प्रश्न के महत्व को न समझते हुए लोग जिस राह पर बढेÞ, उस खतरनाक राह पर रेयान स्कूल जैसे गड्ढे मिलने ही थे। स्कूल का नाम मात्र प्रतीक है। क्योंकि ऐसे गड्ढे हर जगह, हर शहर, हर मुहल्ले-टोले में हैं।
दिल्ली के गांधीनगर में एक निजी स्कूल में एक बच्ची के यौन शोषण की घटना रेयान कांड के एकदम बाद हुई और इसी के साथ हैदराबाद के स्कूल की भी एक शर्मनाक खबर सामने आई जहां अध्यापिका ने छात्रा को छात्रों के शौचालय में खड़ा होने की सजा सुना डाली।
खून खौलता है ऐसी खबरों पर।
जिसकी अंगुली में खरोंच से घरभर की आंखें छलक आएं। जिसकी एक हिचकी पर मां की रुलाई फूट पड़े, जिसकी आंखों में आंसू का एक कतरा दिल हिला देता हो, अपने ऐसे नौनिहालों को नामी स्कूलों के चक्कर में हमने किसके हवाले कर छोड़ दिया है?
यह रेयान का मामला था। 2004 में डीपीएस स्कूल के एमएमएस का मामला था। वर्ष 2007 में गुड़गांव के ही यूरो इंटरनेशनल स्कूल में एक छात्र ने अपने साथी छात्र की हत्या कर दी थी! इन नामी स्कूलों के चक्कर में हम अपने बच्चों को कहीं ऐसे बीहड़ों में तो नहीं पटक आए जहां रोज संस्कारों की हत्या होती है, निर्लज्जता का नाच होता है, कोमल दिल पत्थर होते जाते हैं!
क्या यह सच नहीं कि ऐसे स्कूलों से हत्या, दुराचार, लंपटता और संस्कृति विरोध की खबरें लगातार आती हैं मगर जब तक मामला ज्यादा न सुलगे, हमें ये लपटें दिखती ही नहीं! माना, सभी मामले सुर्खियों में नहीं आते, किन्तु घटनाएं तो रोज ही होती हैं!
अब आते हैं दूसरे सवाल पर—विद्यालय शिक्षा के लिए हैं या मुनाफाखोरी अथवा कन्वर्जन की दुकान चलाने के लिए?
क्षमा कीजिए, किन्तु नामी स्कूलों के वार्षिक शुल्क किसी छोटी-मोटी ‘फिरौती’ सरीखे मुटिया चुके हैं। क्या कारण है?
एक ही पाठ्यक्रम को एक से समय क्रम में निबटाते हुए वार्षिक परिणाम की कसौटी पर सरकारी स्कूलों का प्रदर्शन इनसे इक्कीस ही रहता है, फिर सवाल क्यों न पूछे जाएं। दरअसल, छात्रों के बीच शुल्क और सुविधाओं का यह अंतर भावी सामाजिक जीवन में बड़ी फांक पैदा करता है। इस फांक के साथ, साथियों में अंतर और अनमनेपन के साथ हमारी अगली पीढ़ी क्यों तैयार हो?
अगली बात, हालांकि रेयान हत्याकांड में यौन हमले की बात की पुष्टि नहीं हो सकी, पर यह भी सच है कि चर्च से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़े स्कूलों को लेकर लोगों की आशंकाएं गहराने लगी हैं। इन आशंकाओं को निराधार भी नहीं कही जा सकता। कैथोलिक ईसाइयों के पंथप्रमुख पोप फ्रांसिस ने इटली के अखबार ‘ला रिपब्लिका’ को दिए एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि विश्वसनीय आंकड़ों से मिले संकेतों के मुताबिक कैथोलिक चर्च के ‘करीब दो फीसदी पादरी’ बच्चों का यौन शोषण करते हैं। कोच्चि (केरल) की एक घटना फ्रांसिस की बात पर मुहर लगाती है। यहां इसी वर्ष किंग्स डेविड इंटरनेशनल स्कूल के प्रिंसिपल 65 वर्षीय ‘फादर’ बेसिल कुरियाकोस को एक 10 वर्षीय छात्र के यौन शोषण के आरोप में पकड़ा गया था। केरल में पिछले कुछ वर्षों में अनेक पादरी बच्चों से बलात्कार के मामले में पकड़े गए हैं, लेकिन आश्चर्य यह है कि इन खबरों को जितनी गंभीरता से लेने और पर्याप्त स्थान देने की आवश्यकता थी, उसे कथित मुख्यधारा मीडिया ने तवज्जों ही नहीं दी।
बहरहाल, शिक्षा की बजाय करियर की तलाश करते हुए, अपने ‘नन्हे हीरों’ को तराशने का सपना पाले हुए हम कहीं गलत दिशा में तो नहीं लुढ़क रहे। जहां ज्ञान की बजाय नाम की प्रतिष्ठा हमें खींचे लिए जा रही है! अब अंत में तीसरा प्रश्न- नाम का ठप्पा जरूरी है, या बच्चा जरूरी है! आशा है, उत्तर आपको मिल गया होगा!
टिप्पणियाँ