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गत 5 सितंबर की शाम कर्नाटक में वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एवं नक्सलवाद समर्थक लेखिका गौरी लंकेश की उनके आवास पर अनजान तत्वों ने गोली मारकर हत्या कर दी। गौरी लंकेश को भाजपा के नेताओं के खिलाफ भ्रामक और तथ्यहीन लेख छापने के जुर्म में हुबली की निचली अदालत ने दोषी मानते हुए 6 महीने की सजा सुनाई थी। इस मामले में वे ऊपरी अदालत से जमानत पर थीं। पर भाजपा विरोधी तबका गौरी लंकेश की हत्या की निंदा और सही नजरिए से इसकी जांच पर बात करने की बजाय बेहद आश्चर्यजनक ढंग से इस घटना की आड़ में 'निर्णायक' भूमिका में आते हुए सीधे तौर पर संघ और भाजपा पर आरोप लगाने लगा। कर्नाटक में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है और कानून व्यवस्था उसी के जिम्मे है। लेकिन कर्नाटक की कांग्रेस सरकार से इस हत्या की निष्पक्षी जांच की मांग करने की बजाय दिल्ली में कुछ लोग इसे सीधे तौर पर भाजपा और संघ से जोड़कर देखने लगे। इस क्रम में माकपा की तरफ से सीताराम येचुरी का बयान आया कि यह 'आरएसएस समर्थित लोगों का कृत्य है'! कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जोड़ दिया! इसी क्रम में 6 सितंबर की शाम 5 बजे प्रेस क्लब में पत्रकारों द्वारा इस हत्या के विरोध में एक प्रदर्शन का आयोजन किया गया, जहां पत्रकारों के अलावा वामपंथी दलों के नेताओं और वामपंथी विचारों के पत्रकारों का जमावड़ा हुआ है। हालांकि प्रेस क्लब में आयोजित वह प्रदर्शन भी अब सवालों के घेरे में है। चूंकि संविधानसम्मत भारतीय लोकतंत्र में हत्या को किसी भी रूप में वाजिब नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन हत्या के तुरंत बाद बिना किसी जांच-पड़ताल के संघ और भाजपा के खिलाफ प्रेस क्लब में की गई सुनियोजित मोर्चाबंदी करके हत्या की वाजिब जांच के मूल विषय से ध्यान भटकाने को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। इस प्रकरण में अनेक सवाल हैं, जिनके जवाब सामने आने चाहिए। प्रेस क्लब में जिस ढंग से हत्या के विरोध के नाम पर वामपंथी राजनीति से प्रत्यक्ष जुड़े लोगों की भाषणबाजी हुई, उसने पत्रकारिता खेमे पर सवाल खड़े किए हैं। सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि बिना मामले की पड़ताल किये, आखिर किस आधार पर कुछ लोगों ने तय कर दिया कि यह संघ और भाजपा की साजिश है? इन तमाम सवालों के घेरे में राजनीतिक दलों के लोग, पत्रकार संगठनों के लोग और खुद प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भी है। इस सवालों की पड़ताल किए बिना किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा।
गौरी लंकेश की हत्या किसने की, यह तो पुलिस जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन प्रेस क्लब में श्रद्धांजलि के बहाने जिस ढंग से संघ और भाजपा के खिलाफ राजनीतिक मोर्चा खोला गया, उस पर लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी कहते हैं, ''प्रेस क्लब में जो हुआ, वह इस मौके पर वामपंथी राजनीति को चमकाने की एक कोशिश थी। जहां तक पत्रकार की हत्या का मामला था तो पत्रकार खुद सक्षम थे जो अपनी आवाज उठा सकते थे, पर वामपंथी विचारधारा के राजनेताओं द्वारा इसकी अगुआई करना ठीक नहीं कहा जाएगा। पत्रकारों का यह मुद्दा पूरी तरह से एक खास राजनीतिक विचारधारा के खिलाफ बना दिया गया।''
प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की श्रद्धांजलि सभा में जिस ढंग से एक खास विचारधारा के खिलाफ मोर्चाबंदी की कोशिश की गई, उस पर वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने ट्वीट किया, ''दुख इस पर भी है कि बिना यह जाने कि हत्या किसने और क्यों की, मित्रों, नेताओं ने शोकसभा की गरिमा को राजनीतिक मंच की भाषणबाजी में बदल दिया।'' वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी लिखते हैं, ''गौरी लंकेश की हत्या की जितनी भी निंदा की जाए, कम है, पर जिस तरह से सोशल मीडिया पर एकतरफा फैसला सुनाया जा रहा है, वह उचित नहीं है। यह कैसे साबित हो गया कि खास विचारधारा के ही लोगों ने उनकी हत्या कराई? प्रगतिवाद की पैरोकारी में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के पक्ष को बिल्कुल भुलाने की कोशिश की गई है।''
प्रसार भारती में सलाहकार एवं वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र बरतरिया कहते हैं, ''हमें मूल प्रश्न पर गौर करना होगा जिस पर बात नहीं हो रही है। बड़ा प्रश्न यह है कि इन लोगों के लिए अपनी राजनीतिक बहस शुरू करने की पृष्ठभूमि में एक हत्या होने का इंतजार क्यों होता है? कश्मीर के पत्थरबाजों से लेकर गौरी लंकेश की हत्या तक हर कहानी की पृष्ठभूमि में कोई न कोई हत्या एक अनिवार्यता के रूप में क्यों नजर आने लगी है?'' वरिष्ठ पत्रकार एवं दिल्ली पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष अनिल पाण्डेय ने फेसबुक पर लिखा कि ''दिल्ली के प्रेस क्लब में कुछ पत्रकारों ने एक पत्रकार की मौत को रंगारंग राजनीतिक कार्यक्रम बना दिया। इसमें जेएनयू वाले कन्हैया कुमार भी सादर आमंत्रित थे। अब कांग्रेस और वामदल के प्रवक्ता प्रेस क्लब के सौजन्य से पत्रकारों के न्याय के लिए संघर्ष करेंगे!''
प्रेस क्लब में एक और अनोखी चीज सामने आई। कुछ लोग हाथों में गौरी लंकेश की तस्वीर लगे पोस्टर लिए थे, जिन पर नीचे 'कैरिटास इंडिया' के कार्यकारी निदेशक का नाम लिखा हुआ था। कैरिटास इंडिया की वेबसाइट से इस संस्थान के बारे में पड़ताल की तो पता चला कि यह कैथोलिक चर्च से जुड़ा एक संगठन है जो भारत में गैर-सरकारी संगठन के रूप में काम करता है। वैसे कोई भी संगठन किसी की श्रद्धांजलि सभा में जाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन यहां व्यावहारिक प्रश्न यह है कि प्रेस क्लब में भला कैथोलिक चर्च से जुड़े एक संगठन के कार्यकारी निदेशक के नाम के पोस्टर के साथ कोई किस जुड़ाव के नाते पहुंचा था? क्या गौरी लंकेश का चर्च अथवा इस संगठन से भी कोई नाता था या वे उनके किसी कार्य में भागीदार थीं? इन सवालों से परदा हटाने की जरूरत है, जिनके जवाब पड़ताल के बाद सामने आ सकते हैं।
इस मामले में गौरी लंकेश के भाई इंद्रेश का पक्ष भी गौरतलब है। एक टीवी चैनल से बातचीत में इंद्रेश ने दावा किया है कि गौरी लंकेश को नक्सलियों से धमकी मिल रही थी। हालांकि उन्हें नक्सलियों का समर्थक भी माना जाता रहा है। 5 सितंबर को ही उनके द्वारा फेसबुक पर ओणम को लेकर एक आपत्तिजनक तस्वीर साझा की गई थी, जिस पर अब एक तबका आक्रोशित है। इन तमाम सवालों व बहस के बीच जब भ्रम और अफवाह की तरंगें तेजी से सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया में तैर रही हैं, तो सच सामने कैसे आए? इस पर भी विचार करने की जरूरत है। सच सामने न आ जाए, कहीं इस भय से तो कुछ लोग मुद्दे को दूसरी दिशा में मोड़ने की कोशिश नहीं कर रहे?
कट्टरपंथियों के निशाने पर संघ कार्यकर्ता
पिछले 4 वर्ष के दौरान कर्नाटक के अलग-अलग हिस्सों में रा.स्व.संघ, भाजपा एवं अन्य हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के लगभग 24 से ज्यादा कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या की गई। प्रशांत पुजारी, विश्वनाथन, रुद्रेश, मांगली रवि, हरीश, प्रवीण पुजारी, किथगनहल्ली वसु एवं शरत इनमें प्रमुख हैं। लेकिन कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार और वामपंथी खेमे ने इन हत्याओं पर न कभी दुख प्रकट किया और न ही इनमें शामिल अपराधियों को पकड़ने में कोई दिलचस्पी दिखाई।
प्रशासन ने इसी का फायदा उठाया और जांच के नाम पर खानापूर्ति करके मामले को दबा दिया। हालांकि इन सभी हत्याओं के पीछे दो इस्लामिक संगठन— कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (केएफडी) और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का हाथ है। कई हत्याओं में इन संगठनों से जुड़े लोग पकड़े गए हैं। लेकिन अधिकतर मामलों में प्रशासन ने जांच किए बिना सबूत न होने का बहाना बनाकर अपराधियों को छोड़ दिया। यह चलन कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार आने के बाद से शुरू हुआ है। -शिवानन्द द्विवेदी
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