|
पाञ्चजन्य ने 1968 में क्रांतिकारियों पर केंद्रित विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित शिववर्मा के आलेख की समापन कड़ी:-
्नराजगुरु का भाषण महाशय जी के लिए असह्य हो उठा। ''आप जैसे शोहदों से बात करना तो दूर, पास बैठना भी पाप है…'' कह कर वे खड़े हो गये और राजगुरु इत्मीनान से उनकी जगह पैर फैलाकर बैठ गया। फरारी के दिनों में हम जिस स्थान में रहते थे, वहां गाना, ऊधम और हंसी-मजाक से जिंदगी बनाये रखने वालों में उसका मुख्य स्थान था।
राजगुरु सौंदर्योपासक भी था। उसकी सौंदर्यप्रियता ने एक बार अजीब स्थिति पैदा कर दी। उस समय हम लोग आगरा में थे। उसे कहीं से एक कलेंडर मिला जिस पर एक निहायत सुंदर लकड़ी का चित्र बना था। बड़े उत्साह से कलेंडर कमरे में लटका कर वह पार्टी के काम से बाहर चला गया। आजाद ने तस्वीर देखी। बहुत बिगड़े, बोले—''उसे अगर छोकरियों की तस्वीरों से उलझना है तो रिवॉल्वर-पिस्तौल छोड़कर घर चला जाये। दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते।'' यह कहकर उन्होंने कलेंडर के टुकड़े-टुकड़े कर कोने में लगे कूड़े के ढेर पर फेंक दिया। राजगुरु वापस आया तो उसकी पहली निगाह गई दीवार की तरफ। ''मेरा कलेंडर कौन ले गया?'' उसने आते ही पूछा। एक साथी ने कूड़े की ढेर की ओरइशारा किया। ''किसने फाड़ा मेरा कलेंडर?'' फटे टुकड़े उठाते हुए उसने ऊंचे स्वर में पूछा। ''मैंने फाड़ा'' आजाद ने उतने ही ऊंचे स्वर में उत्तर दिया। ''इतनी सुंदर चीज आपने क्यों
फाड़ दी?''
''इसलिए कि वह
सुंदर थी।''
''तो क्या आप हर सुंदर चीज को फाड़ देंगे,
तोड़ देंगे?''
''हां, तोड़ दूंगा।''
''ताजमहल भी?''
''हां, बस चलेगा तो उसे भी तोड़ दूंगा।'' आजाद ने तैश में आकर उत्तर दिया। करीब एक मिनट खामोश रह कर राजगुरु धीमे स्वर में शब्दों को तोलता हुआ बोला—''खूबसूरत दुनिया बसाने चले हैं, खूबसूरत चीजों को तोड़ कर उन्हें मिटा कर यह नहीं हो सकता।'' राजगुरु के इन शब्दों ने आजाद की सारी गर्मी ठंडी कर दी। ''ताज तोड़ने की बात तो तुम्हारे तैश के जवाब में कह गया भाई! मेरा मतलब वह नहीं था। हम लोगों ने किसी लक्ष्य विशेष के लिए घर बार छोड़ कर यह जिंदगी अपनाई है। मैं यही चाहता हूं कि हम लोग एकनिष्ठ होकर उस लक्ष्य की ओर बढ़ते चलें। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी सौंदर्योपासना एक दिन प्रलोभन बनकर हमें अपने पथ से विमुख कर दे या हमारी किसी कमजोरी का कारण बने।''
''लेकिन शत्रु का सामना उससे भाग कर नहीं, आमने-सामने खड़े होकर ही किया जा सकता है। दुनिया के प्रलोभनों से भाग कर जंगल की शरण लेने वाला खुद को कितना ही यतींद्र या विजयी समझे, रहेगा वह भगोड़ा ही। आपके कलेंडर फाड़ने में भी इसी भगोड़ेपन का आभास है।'' राजगुरु की दलील पर आजाद गहरी 'हूं' के साथ खामोश हो गये।
आजाद का गुस्सा
फरारी के दिनों में ट्रेन से सफर करते समय या सड़क पर चलते समय इस तरह की बातों की सख्त मनाही थी जिनसे हमारे राजनीतिक रुझान का पता चले। एक बार आजाद, राजगुरु और भगवानदास माहौर झांसी जा रहे थे। समय काटने और परिचय छिपाने की गरज से आजाद ने माहौर से गाना सुनाने की फरमाइश की। माहौर ने गाना शुरू किया और आजाद ने दाद पर दाद देनी शुरू की। भगवानदास छात्र जीवन से ही अच्छे गायक थे। गाना जम गया। दाद देने वाला भी पूरे मूड में था— ''क्या बात है। खूब! वाह-वाह! खुश रहो दोस्त!'' की झड़ी के साथ आजाद और सुनाने की फरमाइश करते जा रहे थे। कुछ देर तो राजगुरु भी दाद देता रहा, लेकिन जैसे ही गाड़ी बुंदेलखंड की सीमा में पहुंची और उसकी निगाह ऊंची-नीची जमीन व पहाड़यों पर बनी छोटी-छोटी गढि़यों पर पड़ी। उसने इशारा करते हुए कहा, ''देखिए पंडित जी, यह स्थान गुरिल्ला लड़ाई के लिए कितना उपयुक्त है।'' आजाद ने अनसुना करते हुए माहौर से कहा, ''हां, जब कफस में लाश निकली… फिर क्या हुआ?'' ''शिवाजी ने जिस स्थान को गुुरिल्ला लड़ाई के लिए चुना था, वह भी बहुत कुछ ऐसा ही था।'' राजगुरु कहता गया। ''तुम्हारे शिवाजी की…'' इस बार आजाद ने पूरी गाली दे डाली और माहौर की ओर मुखातिब होकर बोले, ''हां, यार फिर क्या हुआ? इस कदर रोया कि हिचकी बंध गई सैयाद की। फिर क्या हुआ? कम्बख्त ने सारा मजा मिट्टी कर दिया। सुनाओ दोस्त।'' इस बार बात राजगुरु की समझ में आ गई और वह चुप हो गया। झांसी पहुंचने पर आजाद ने प्यार से कहा, ''साले, आज तूने मुझसे शिवाजी को भी गाली दिलवा दी। तेरा कहना ठीक है। वह स्थान गुरिल्ला लड़ाई के लिए उपयुक्त है। समय आने पर उसका इस्तेमाल भी होगा।''
भगत सिंह का प्रतिद्वंद्वी
क्रांतिकारी युग में भगत सिंह को राजगुरु अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानता था। यह राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में आगे बढ़कर मौत के आमंत्रण की प्रतिद्वंद्विता थी। कहीं इस होड़ में भगत सिंह पहले शहीद न हो जाए, इसकी चिंता उसे हर समय लगी रहती थी। पार्टी के सामने उसकी एक ही मांग थी, ''हर काम में आगे बढ़कर पहली गोली चलाने का अवसर उसे ही मिलना चाहिए।'' लाहौर में सांडर्स पर पहली गोली उसी ने चलाई थी। निशाना इतना अचूक था कि बाकी गोलियां न भी चलाई गई होतीं तो भी सांडर्स का काम तमाम हो जाता। भगत सिंह से होड़ की भावना के तहत उसे यह भी गवारा न था कि किसी काम में भगत सिंह जाएं व उसे न भेजा जाए।
दिल्ली असेंबली में बम फेंकने के लिए भगत सिंह के साथ दत्त या और किसी को न भेजकर उसे ही भेजा जाए, इसे लेकर राजगुरु ने काफी जिद की। उसका कहना था कि इस काम में भी भगत सिंह के साथ उसे ही जाना चाहिए। भगत सिंह तथा केंद्रीय समिति के दूसरे सदस्यों से अपनी बात मनवाने में जब वह असमर्थ रहा तो भागा-भागा झांसी आजाद के पास पहुंचा। आजाद के सामने अपनी और उसके पक्ष में जितनी भी दलीलें हो सकती थीं, रखीं। आजाद ने उसे समझाया, ''केस में बयान देने का सवाल आयेगा। तुम अंग्रेजी नहीं जानते हो। पकड़े जाने पर तुम्हें भगत सिंह से अलग कर दिया जाएगा। उस हालत में अगर तुम बम फेंकने के राजनीतिक महत्व को एक अच्छे बयान द्वारा न समझा सके तो केस का महत्व मारा जाएगा।'' आजाद की इस दलील पर उसने कहा, ''आप भगत सिंह से कहकर मेरे लिए अंग्रेजी में एक बयान लिखवा दीजिए। मैं उसे कॉमा, फुलस्टॉप के कंठस्थ कर लूंगा। एक भी गलती नहीं हो पायेगी। आप सुन लें, अगर एक कॉमा की भी भूल हो जाए तो न भेजिएगा।'' तमाम दलीलों के बाद भी वह आजाद से मांग पूरी नहीं करवा पाया तो नाराज होकर पूना चला गया। लोगों को पैसा, पद, प्रतिष्ठा के लिए होड़ लेते देखा है। लेकिन लपक कर मौत को गले लगाने की होड़ एक ईमानदार क्रांतिकारी ही लगा सकता है। भगत सिंह को पहले फांसी न दी जाए, वह पहले गोली का शिकार न बने, यह उसकी सबसे बड़ी साध थी और परिस्थितियों ने उसकी यह साध पूरी भी की। वह खुशी
राजगुरु हमारा केस शुरू होने के कई माह बाद पकड़ा गया। कोई चाहे बच भी जाए, पर पकड़े जाने पर भगत सिंह और राजगुरु को फांसी अवश्य होगी। इसे हम लोग जानते थे। इसीलिए उसके पकड़े जाने की खबर से सभी चिंतित थे। राजगुरु भी जानता था कि उसे फांसी होगी, फिर भी जिस दिन अदालत में हम लोगों के बीच उसे लाया गया तो पहले उसने ऊंचे स्वर में नारे लगाये फिर 'अपने आशिक को ढूंढ़ने निकले…' कहता एक-एक के गले से चिपटकर ऐसा मिला मानो बरसों की जुदाई के बाद मिल रहा हो। उसकी खुशी का ठिकाना न था। उसका उछलना, दूसरों को गुदगुदाना, छेड़ना, गाल पर गाल रखकर प्यार करना मौत को एक चुनौती सी लगी। कुछ दिनों के लिए हम लोगों के बीच उसने नई जिंदगी पैदा कर दी। संघर्षों में तो वह सभी जगह आगे रहता। जेल, पुलिसवालों से झगड़े और उसके फलस्वरूप हमारे और उनके बीच मारपीट प्राय: लगी ही रहती थी। एक बार तो पुलिसवालों ने उसे मारते-मारते बेहोश ही कर दिया।
जेल में हमारी पहली भूख हड़ताल के समय तक वह पकड़ा नहीं गया था। जनवरी 1930 में दुबारा भूख हड़ताल हुई तो वह आ चुका था। किसी के मरे बगैर सरकार हमारी मांगों पर ध्यान नहीं देगी, यह हम जानते थे। भूख हड़ताल की सफलता, असफलता के साथ क्रांतिकारियों की प्रतिष्ठा तथा सम्मान का प्रश्न जुड़ा था। अस्तु, हममें से कुछ साथी ऐसे अवसरों पर प्राणों की बाजी लगा कर संघर्ष शीघ्र समाप्त करने की कोशिश करते थे। पहली भूख हड़ताल में यतीन्द्रदास ने यह समझ कर मृत्यु का आह्वान किया कि इसके बगैर सरकार क्रांतिकारियों से बात करने को राजी नहीं होगी। दूसरी भूख हड़ताल प्रारंभ हुए 13 दिन हो चुके थे। साथियों की हालत तेजी से गिरती जा रही थी। 13वें दिन डॉक्टरों ने हम में से कमजोर साथियों को चुना और उन्हें जबरदस्ती दूध पिलाने के लिए अस्पताल ले गये। इनमें राजगुरु भी था। उसके साथ भी वही हुआ जो पहली भूख हड़ताल में यतींद्रदास और मेरे साथ हो चुका था। डॉक्टरों ने जल्दबाजी में रबड़ की नली पेट के बजाय उसके फेफड़ों में डाल दी और कीप से पूरी खुराक दूध उड़ेल कर चले गये। उसके फेफड़े जकड़ गये व निमोनिया हो गया।
वह एक शब्द 'सफलता'
फेफड़ों में दूध भर जाने और निमोनिया हो जाने से कितनी यंत्रणा होती है, इसे पहली हड़ताल में मैं अनुभव कर चुका था, लेकिन राजगुरु को उससे अधिक इस बात की खुशी थी कि अब भूख हड़ताल शीघ्र समाप्त हो जाएगी और सरकार को मांगें मानने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। उसने एक पर्चे पर मुझे लिखकर भेजा 'सफलता'। उसकी हालत संगीन हो गई और डॉक्टरों की रपट तथा बाहरी मांगें मान ली गईं। अधिकारियों ने हम सभी को अस्पताल में जमा कर दिया। सेंट्रल जेल से भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त भी आ चुके थे। राजगुरु की चारपाई के चारों ओर बैठकर हमने भूख हड़ताल स्थगित करने का फैसला किया। भगत सिंह ने दूध का गिलास राजगुरु के होठों से लगाते हुए कहा- ''आगे भागना चाहते हो बच्चू! मैं तो सोचता था आगे चलकर तेरे ठहरने के लिए एक कमरा वहां बुक करा लूं, पर देखता हूं बगैर नौकर के अब तुझसे सफर नहीं हो सकेगा।'' राजगुरु ने मजाक किया।
सांडर्स को मारकर भगत सिंह और राजगुरु जब लाहौर से निकले थे तो भगत सिंह पहली श्रेणी में सफर करने वाला बड़ा अधिकारी बना था और राजगुरु उसका नौकर। राजगुरु का इशारा उसी घटना की तरफ था। उसके गाल पर हल्की सी चपत देते हुए भगत सिंह ने कहा-''अच्छा, दूध पियो। वादा करता हूं कि अब तुमसे सूटकेस नहीं उठवाऊंगा। और दोनों हंस पड़े थे।''
राजगुरु को भगत सिंह और सुखदेव के साथ मौत की सजा सुनाई गई। फांसी की कोठरी में उसका पुराना स्वभाव लौट आया। मजाक, छेड़खानी और गाना फिर से चलने लगा। आखिरी दिन 23 मार्च 1931 की शाम जब उसकी कोठरी खोली गई तो उसने जोर के नारे के साथ दूसरे साथियों को सूचना दी कि चलने का समय आ गया है। उस दिन
वह सूर्यास्त के साथ-साथ अपने दोनों
साथियों को लेकर सदा के लिए दृश्यपटल से लुप्त हो गया। ल्ल
टिप्पणियाँ