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बडे़ अस्पतालों का गढ़ माने जाने वाले मुम्बई के परेल क्षेत्र में स्थित नाना पालकर स्मृति समिति के कार्यालय रुग्ण सेवा सदन में प्रतिदिन सैकड़ों मरीज बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की आस से आते हैंं। किन्तु सितम्बर, 2016 के अंतिम सप्ताह में सिलिगुड़ी (पश्चिम बंगाल) निवासी बिकास चक्रवर्ती समिति कार्यालय में आकर जिद पर अड़ गए कि उनके बेटे का विवाह तभी होगा जब रुग्ण सेवा सदन के कर्मचारी एवं अधिकारी उसमें शामिल होंगे। उन्होंने उन सबके लिए आने-जाने हेतु हवाई जहाज का टिकट भी देने की पेशकश की। समिति के कार्यकर्ताओं ने जब इस जिद का कारण पूछा तो चक्रवर्ती ने कहा, ''आज उनका बेटा बिदुरन इस दुनिया में जीवित है तो सिर्फ रुग्ण सेवा सदन के कार्यकर्ताओं एवं अधिकारियों की नि:स्वार्थ सेवा के कारण।''
18 साल पहले मौत को पराजित करने वाला बिदुरन आज बेंगलुरू की एक आईटी कंपनी में काम करता है। उसके परिवार की इच्छा है कि बिदुरन का विवाह उन्हीं लोगों की उपस्थिति में संपन्न होना चाहिए, जिनकी बदौलत उसे नई जिंदगी मिली थी।
बीस साल पहले पांच साल का बिदुरन 'अस्थि मज्जा की दु:साध्य' बीमारी से ग्रस्त था। इलाज हेतु मुम्बई के टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल पहंुचा। चिकित्सकों ने उसके परिवार को तुरंत 7,00000 रुपए अस्पताल में जमा कराने को कहा। इतनी बड़ी राशि का प्रबंध करना परिवार के लिए असंभव था। उनकी स्थिति जानकर चिकित्सकों ने उन्हें नाना पालकर स्मृति समिति के पास भेजा। समिति के अधिकारियों ने उनकी व्यथा सुनी, कहा कि इतने रुपए का प्रबंध तो वे नहीं कर सकते, लेकिन अगले सप्ताह तक इतनी मदद अवश्य करने का प्रयास करेंगे, जिससे बालक का अस्पताल में इलाज शुरू हो सके। यह आश्वासन देकर परिवार को एक सप्ताह बाद आने के लिए कहा गया। इसके बाद वह परिवार कोलकाता चला गया। रास्ते में उन्हें अचानक मशहूर किक्रेटर सौरव गांगुली का घर दिखाई दिया। परेशान परिवार ने उनके मकान की घंटी बजा दी। संयोग से गांगुली घर पर थे। उन्होंने बच्चे की जानकारी लेने के बाद परिवार को 4,00000 रु. का चेक दे दिया। कुछ राशि परिवार ने अपने घर का सामान बेचकर हासिल की। उस सारी राशि के साथ जब परिवार मुम्बई पहंुचा तो 2,00000 रु. की राशि नाना पालकर स्मृति समिति ने दे दी। इस प्रकार बिदुरन का अस्पताल में इलाज शुरू हो सका। इलाज के दौरान बिदुरन और उसका परिवार समिति द्वारा संचालित रुग्ण सेवा सदन में ही रहा। हालांकि नियमानुसार किसी भी मरीज को एक महीने से अधिक समय तक सदन में नहीं रखा जाता है। परन्तु बिदुरन का मामला अपवाद था। वह सदन में दो साल से अधिक समय तक रहा। उस दौरान सदन के कर्मचारियों एवं अधिकारियों का इतना अधिक स्नेह उसे मिला कि उसने किसी को दादा, किसी को नाना तो किसी को काका पुकारना शुरू कर दिया। पूरी तरह ठीक होकर वह सिलिगुड़ी लौट गया। इस दौरान उनका उस सदन से कोई संपर्क भले ही न रहा हो, लेकिन सदन के कर्ता-धर्ताओं को वे भूले नहीं। 9 दिसंबर, 2016 को बिदुरन का विवाह होना था। इसके लिए बिदुरन और उसके पिता मुम्बई गए और समिति के लोगों को सादर निमंत्रित किया। उसके विवाह में समिति के तीन कार्यकर्ता शामिल भी हुए।
यह घटना इस बात का सबूत है कि इलाज के लिए जो मरीज मुम्बई आते हैं उनकी मदद करने में नाना पालकर स्मृति समिति और रुग्ण सेवा सदन का प्रयोग कितना कारगर साबित हुआ है। इस 50 साल की अवधि में हजारों ऐसे बिदुरन यहां आए हैं, जिन्हें समिति और सदन के माध्यम से नया जीवन मिला है। नाना पालकर स्मृति समिति की स्थापना 1968 में सेवाभावी संघ प्रचारक श्री नारायण हरि पालकर की स्मृति में की गई थी, जिनका असामयिक निधन 1967 में हो गया था। इस साल 26 अगस्त से नाना पालकर की जन्मशताब्दी प्रांरभ हो चुकी है। संयोग से नाना पालकर स्मृति समिति का भी यह स्वर्ण जयंती वर्ष है।
ऐसे शुरू हुआ प्रयोग
ग्रामीण क्षेत्रों से इलाज हेतु मुम्बई आने वाले मरीजों और उनके तीमारदारों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था। उस दौर में शिक्षा का स्तर भी बहुत अधिक नहीं था। इस कारण भी उन्हें यही समझ में नहीं आता था कि किस दिन किस डाक्टर को और किस अस्पताल में मरीज को दिखाना चाहिए। अस्पताल से जुड़ी दवाइयों और जांच आदि की प्रक्रिया भी ऐसी थी जो न मरीजों की समझ में आती थी और न ही उनके तीमारदारों की। ऐसी स्थिति में मरीजों की मदद करने का काम नाना पालकर स्मृति समिति के कार्यकर्ताओं ने शुरू किया। चूंकि सभी मरीजों को अस्पताल में भर्ती नहीं किया जा सकता और बार-बार गांव से शहर आने-जाने का बड़ा झंझट रहता था, इसलिए मरीज और उनके रिश्तेदार फुटपाथ पर ही रहने को बाध्य थे। इस परेशानी को दूर करने के लिए सीता सदन में तीन कमरों का एक फ्लैट लेकर वहां 15 मरीजों के रहने की व्यवस्था की गई। इस सोच को आगे बढ़ाने में जिन महानुभावों की महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें प्रमुख थे डॉ. माधवराव परालकर, श्री नारायण भिडे़ श्री उमेश जी़ नेरुरकर श्री अनंवराव उपाख्य मामा सावरकर, श्रीकृष्ण जी छतरे आदि। तत्कालीन वरिष्ठ संघ प्रचारक श्री मोरोपंत पिंगले ने भी इस सोच को ठोस आकार प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में मुम्बई के मशहूर यूरोलोजिस्ट डॉ. अजीत फड़के इस प्रकल्प से पूर्ण समर्पण भाव से जुड़ गए। शुरुआती दिनों को स्मरण करते हुए समिति की संयुक्त सचिव अलकाताई सावरकर कहती हैं, ''काम की शुरुआत तो मरीजों की अस्पताल संबंधी विभिन्न जरूरतों में मदद करने से ही हुई। सीता सदन में हम 15 मरीजों के रहने की व्यवस्था अवश्य करते थे लेकिन वह अपर्याप्त और काफी कष्टदायक थी। ऐसे मरीजों की संख्या बहुत अधिक थी जिन्हें आवास की जरूरत थी। इस समस्या का कुछ हद तक निवारण 1997 में परेल स्थित रुग्ण सेवा सदन के निर्माण से हुआ। शुरुआत में तो सदन का भवन सात मंजिला ही था। शेष तीन मंजिलें वर्ष 2004 में बनाई गईं, जिसमें बृहन् मुम्बई नगरपालिका के तत्कालीन आयुक्त श्री करुणा श्रीवास्तव की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने ही उस समय सदन के साथ वाले मार्ग का नामकरण रुग्ण सेवा सदन मार्ग करवाया। उसी साल एक डायलिसिस सेंटर और पैथ लैब की भी शुरुआत की गई।''
मात्र 350 रुपए में डायलिसिस
डायलिसिस केन्द्र हेतु प्रारंभिक चार मशीनें कछुआ छाप अगरबत्ती के निर्माता बोम्बे कैमिकल्स प्रा़ लि. के श्री गोखले ने प्रदान की। आज 14 मशीनें हैं। अलकाताई बताती हैं, ''हम एक बार में 13 मशीनें ही प्रयोग में लाते हैं। एक मशीन खाली रखते हैं ताकि यदि बीच में कोई मशीन धोखा दे दे तो मरीज को तुरंत दूसरी मशीन पर स्थानांतरित किया जा सके।'' डायलिसिस तीन पालियों में किया जाता है। एक दिन में 39 डायलिसिस होते हैंं। इस साल अप्रैल में यहां होने वाले डायलिसिस की संख्या 1,00000 को पार कर गई थी। 2004 से लेकर आज तक केवल 350 रुपए में ही डायलिसिस की जाती है। हालांकि, समिति को एक डायलिसिस पर करीब 900 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। लेकिन ऐसे मरीजों की संख्या आज भी बहुत अधिक है, जो 350 रुपए का भी प्रबंध नहीं कर पाते। ऐसे मरीजों के लिए समिति ने अलग से कुछ राशि की व्यवस्था की है ताकि किसी भी जरूरतमंद मरीज का डायलिसिस धन के अभाव में बंद न हो। रुग्ण सेवा सदन में बनी पैथ लैब में सभी प्रकार की आधुनिक जांच करने की सुविधा
उपलब्ध है।
10 रुपए में भोजन
समिति का एक अन्य सराहनीय प्रयास है रुग्ण सेवा सदन, के.ई.एम. और वाडिया जैसे अस्पतालों में मरीजों को सस्ती दर पर पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना। वाडिया अस्पताल में सरकार नवजात बच्चों के लिए तो दूध का प्रबंध करती है लेकिन नवप्रसूताओं के लिए भोजन की वहां कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी माताओं के लिए भोजन की व्यवस्था नाना पालकर समिति करती है। सप्ताह में एक बार मरीजों में फल भी वितरित किए जाते हैं। इसके अलावा करीब 200 चपाती प्रतिदिन नायर अस्पताल में भेजी जाती है। अलकाताई बताती हैं, ''अस्पताल ऐसी जगह है जहां धनाढ़्य लोगों की भी जेबें खाली हो जाती हैं। टाटा कैंसर अस्पताल में इलाज बहुत महंगा है। हम रुग्ण सेवा सदन में मरीजों से आवास के नाम पर तो कुछ नहीं वसूलते, लेकिन एक प्लेट भोजन के लिए 35 रुपए लिए जाते थे। पिछले साल से 10 रु. में एक प्लेट खाना और सुबह का नाश्ता मात्र पांच रुपए में प्रदान किया जाता है।'' उन्होंने बताया, ''हमारे कार्यकर्ताओं को पता चला कि भोजन की एक प्लेट से ही अभावग्रस्त मरीजों के कई-कई तीमारदार अपना गुजारा करते हैं। हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग प्लेट हेतु भुगतान करने की उनकी क्षमता नहीं थी। कुछ तो पैसे बचाने और पेट भरने के लिए सड़क से दस रुपए का वड़ा-पाव खाकर ही गुजारा करने को बाध्य थे। इस घटना ने इतना द्रवित किया कि हमने तय किया कि कम से कम सभी लोगों को भरपेट भोजन मिल सके इसकी व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए। इसके लिए एक योजना बनाई गई। हिसाब जोड़ा तो पता चला कि यदि किसी दानदाता से मात्र 12,000 रुपए मिल जाएं तो एक दिन के भोजन की व्यवस्था आसानी से की जा सकेगी। हमने लोगों का आह्वान किया कि वे अपने परिवार की खुशी अथवा गम के अवसर पर लोगों को भोजन कराने के लिए सहयोग करें। सोचा कि जिस दिन 45 दिन के अग्रिम धन की व्यवस्था हो जाएगी उसी दिन से भोजन की दर सस्ती कर दी जाएगी। किन्तु हमारे आश्चर्य का उस समय ठिकाना नहीं रहा जब शुरुआती 15 दिन में ही हमें पूरे छह महीने के लिए जरूरी धन मिल गया। इसके बाद दरें कम कर दी गईं।''
इस समय रुग्ण सेवा सदन में 76 मरीजों तथा हर मरीज के साथ दो तीमारदारों के ठहरने की व्यवस्था है। कुल मिलाकर 228 लोग ठहरते हैं। ज्यादतर लोग बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड आदि राज्यों से आते हैं। सदन के आसपास अनेक अस्पताल हैं, जैसे वाडिया बच्चों का अस्पताल, टाटा कैंसर अस्पताल, केईएम अस्पताल, जेजे अस्पताल, सेंट जॉर्ज, नायर आदि। टाटा अस्पताल तो सदन से महज 10 मिनट की पैदल दूरी पर है। मरीजों को अस्पताल ले जाने और लाने के लिए एक एंबूलेंस है। समिति जरूरतमंद मरीजों को आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है ताकि अस्पताल में उनका अविलम्ब इलाज शुरू हो सके। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि निजी अस्पतालों में जब तक कुछ राशि अग्रिम जमा नहीं कर दी जाती मरीज का इलाज शुरू नहीं होता। अलकाताई बताती हैं कि ऐसे करीब 7,00000 रु. की प्रतिमाह सहायता की जाती है।
तिरस्कृत टीबी मरीजों की देखभाल
मुम्बई का सेवरी टीबी अस्पताल कुछ मामलोें में काफी बदनाम है। चूंकि यहां सामान्यत: गंभीर अवस्था वाले मरीज आतेे हैं, इसलिए देखा गया है कि जो यहां एक बार आ गया उसके लिए दो ही रास्ते बचते हैं। एक, वह जिंदगी भर यहीं रहे और दूसरा, भगवान के पास जाए। यहां तक कि बीमारी ठीक होने के बाद भी उनके परिवारजन उन्हें वापस घर नहीं ले जाते। बहुत से परिवार भर्ती के समय अपना गलत पता लिखवाते हैं। इसलिए मरीज की मौत के बाद भी उनसे सम्पर्क करना मुश्किल हो जाता है। अस्पताल में भर्ती मरीजों से कोई मिलने नहीं जाता। लेकिन समिति के कार्यकर्ता सप्ताह में एक बार उनसे अवश्य मिलते हैं। अलकाताई बताती हैं, ''हम कोई न कोई मौसमी फल लेकर प्रत्येक बृहस्पतिवार को अस्पताल के करीब 1,200 मरीजों से मिलते हैं। यह कार्य पिछले 15 साल से किया जा रहा है। इन मरीजों से मिलने वाले समूह में तीन महिलाएं भी हैं जो इस काम के प्रति बहुत समर्पित हैं। फल हेतु वैन मुम्बई के ही एक सामान्य व्यक्ति द्वारा नि:शुल्क प्रदान की जाती है। कुल मिलाकर एक दिन में 1,500 मरीजों को फल वितरण किया जाता है।''
यह सही है कि टीबी अब लाइलाज बीमारी नहीं है। लेकिन सेवरी अस्पताल में भर्ती टीबी मरीजों को जिस अकेलेपन और अपनों के ही तिरस्कार का सामना करना पड़ता है उससे पता चलता है कि समाज की मानसिकता अभी भी नहीं बदली है। समाज की मानसिकता बदलना समिति के कार्यकर्ताओं के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। अलकाताई अपना स्वयं का अनुभव बताती हैं, ''अस्पताल में भर्ती प्रत्येक टीबी मरीज की अलग ही दारुण कहानी है। जून के प्रथम सप्ताह में मैंने स्वयं एक पति को अपनी पत्नी को अस्पताल में भर्ती करते हुए देखा। भर्ती करने के बाद वह पत्नी से कह रहा था कि मैंने तुम्हें भर्ती कर दिया है इसलिए अब वार्ड में जाओ और मैं अगले सप्ताह मिलने आऊंगा। उस महिला ने आंसू रोकते हुए कहा, ''मुझे मालूम है अब मुझे यहीं रहना है, तुम अब यहां कभी नहीं आओगे।'' यह कहते हुए वह आंसू छुपाते हुए वार्ड की तरफ चली गई। इसलिए हम टीबी मरीजों के प्रति समाज में जागरूकता पैदा करने के लिए एक विशेष प्रकल्प शुरू करने पर विचार कर रहे हैं।'' अभी टीबी और एड्स के मरीजों हेतु परामर्श केन्द्र के रूप में प्रभाकर कुटुम्ब कल्याण केन्द्र चल रहा है। वहां प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को एक महिला श्रीमती मती महिन्द्र नि:शुल्क परामर्श प्रदान करने हेतु आती हैं। यह कार्य वह पिछले 10 साल से कर रही हैं। पहले वह महेन्द्रा एंड महिन्द्रा में काम करती थीं, लेेकिन इस प्रकल्प को अधिक समय देने के उद्देश्य से उन्होंने अब नौकरी छोड़ दी है।
दिनभर देखभाल
ठाणे एवं बोरिवली में नाना पालकर समृति समिति की दो अन्य शाखाएं हैंं, जहां मरीजों के लिए उपयोगी सामान जैसे बैडपेन, लाठी, व्हीलचेयर, ऑक्सीजन सिलेंडर आदि नि:शुल्क प्रदान किए जाते हैं। अलकाताई बताती हैं, ''मरीजों की जरूरत की हर चीज हमारे पास उपलब्ध है। ये सभी चीजें एक निर्धारित जमानत राशि पर दी जाती हैं। जब सामान वापस मिलता है तो जमानत राशि लौटा दी जाती है। बोरिवली में नेत्र एवं दंत चिकित्सा के साथ-साथ फिजियोथेरेपी और डायलेसिस केन्द्र भी चलता है। तीन साल पहले ठाणे में बुजुगार्ें एवं शारीरिक रूप से असहाय लोगों की मदद हेतु एक 'डे केयर सेंटर' शुरू किया गया। यह सुबह आठ बजे से रात्रि आठ बजे तक चलता है। ऐसे लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी है जिनके घर के सभी लोग काम पर जाते हैं और उनकी देखभाल करने वाला घर पर कोई नहीं रहता। अभी वहां एक फिजियोथेरेपी केन्द्र भी शुरू होने वाला है। ठाणे के वनवासी क्षेत्र में कुपोषण से मुक्ति हेतु बच्चों को विटामिनयुक्त भोजन प्रदान किया जाता है। यह प्रयोग काफी प्रभावी सिद्ध हुआ है। इसके अलावा समिति समय-समय पर रक्तदान शिविर भी आयोजित करती है ताकि रुग्ण सेवा सदन में आने वाले किसी भी मरीज को रक्त की कमी न पडे़।
रुग्ण सेवा सदन में 39 कर्मचारी और बड़ी संख्या में सेवाभावी कार्यकर्ता हैं। कुछ कार्यकर्ता तो प्रकल्प से भावनात्मक रूप से जुडे़ हुए हैं। 82 और 85 साल की दो महिलाएं हैं। उनमें से एक घाटकोपर से आती हैं तो दूसरी सायन से। वे सिर्फ मरीजों का हालचाल जानने के लिए परेल तक आती हैं। बहुत से बच्चे उन्हें नानी कहकर पुकारते हैं। सुप्रसिद्ध बंगाली लेखिका श्रीमती जुवेकर ने करीब 200 पुस्तकें सदन के पुस्तकालय को दान की हैं। इसके अलावा 'रुग्ण मित्र' नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन होता है। पिछले 18 साल से एक योग केन्द्र भी रुग्ण सेवा सदन में संचालित है। ठाणे में एक औषधालय और पैथ लैब है जहां सिर्फ 10 रुपए में मरीजों का इलाज होता है।
स्वर्ण जयंती वर्ष की तैयारियां
समिति ने तय किया है कि मरीजों के आवास हेतु और भी व्यवस्था की जाए। नाना पालकर जन्म शताब्दी वर्ष में समिति ने तय किया है कि एक तो उनकी सभी पुस्तकों का पुन: प्रकाशन किया जाए। समिति ठाणे में भी एक डायलिसिस केन्द्र शुरू करने की तैयारी में है। ऐसे प्रयास देशभर के सभी बडे़ शहरों में शुरू हों तो लोगों की परेशानियां बहुत कम हो जाएंगी।
सदन की विशेषताएं
* 228 लोगों को नि:शुल्क आवास व चिकित्सा सुविधाएं
* रु़ 350 की दर पर प्रतिदिन 39 डायलिसिस
* जरूरतमंद मरीजों को प्रतिमाह 7,00000 रु. की सहायता
* आधुनिक पैथ लेब
* टीबी और एड्स के मरीजों को नि:शुल्क परामर्श
* जरूरतमंदों को नि:शुल्क दवाइयां
* विभिन्न अस्पतालों के मरीजों को नि:शुल्क भोजन
* अस्पताल आने वाले मरीजों का मार्गदर्शन
* वर्ष में एक बार चिकित्सकों का सम्मान
प्रेरक नाना
नाना पालकर स्मृति समिति के प्रेरक हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री नाना पालकर। वे सतारा में जिला प्रचारक थे। रायगढ़ में भी प्रचारक रहे। उन्होंने अपना पूरा जीवन रोगियों एवं जरूरतमंदों के कष्ट निवारण में लगाया। 1967 में उनके असामयिक निधन के बाद उनकी सेवाभावना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए समिति का 1968 में गठन किया गया। नाना एक प्रभावी लेखक और कवि भी थे। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का प्रथम अधिकृत जीवन चरित्र उन्होंने ही लिखा था। उनके द्वारा इस्रायल पर लिखी पुस्तक को पढ़कर अनेक यहूदी इस्रायल वापस लौट गए। वहां नाना के नाम पर एक सड़क भी है। उनकी कुछ पुस्तकें हैं –
पू ़ डॉ. हेडगेवार चरित्र, मंदिराच्या कथा आणि व्यथा, आपली आंघोल, छलाकडून बलाकडे, नानांचे मनघ्गत, खंडो बल्लाल चरित्र, श्री गुरुजी यांची सविस्तार चरित्रे आदि। -मुम्बई से लौटकर प्रमोद कुमार
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