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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और साथ ही अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढि़ए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
बेटियों को लेकर सोच कब बदलेगी?
हर बार मेरे साथ ऐसी कोई न कोई घटना घट ही जाती है जिस पर लिखने से मैं खुद को रोक नहीं पाती। पत्र लिखते समय सामने नहीं होते हुए भी लगता है, जैसे मैं आप सब से सीधा संवाद कर रही हूं। कई बार ऐसा भी होता है कि पत्र लिखते समय हंसी छूट जाती है। कभी मायूस हो जाती हूं और कभी-कभी तो आंसू भी छलक पड़ते हैं।
अभी जिस घटना का जिक्र कर रही हूं, वह करीब एक माह पुरानी है। मैं मां के साथ कपड़े की दुकान पर गई थी। वहां हमारी एक पुरानी पड़ोसन मिल गईं। 11 दिसंबर को उनकी बेटी की शादी है। इसलिए बेटी को लेकर खरीदारी रही करने आई थीं। मां की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने अभिवादन किया। फिर हंसते हुए पूछा- ''तो बेटी की शादी की तैयारी हो गई?'' जानी-पहचानी आवाज सुनकर वह पलटीं और कहने लगीं- ''आपसे क्या छिपा है बहनजी? बेटी की शादी का मतलब है मां-बाप की बरबादी।''
यह सुनते ही मां मेरी ओर पलटीं और मुझे देखने लगीं। आंटी जी भी मुझे देखने लगीं। फिर दोनों बनावटी हंसी हंसने लगीं। चूंकि आंटी जी की बेटी उम्र में मुझसे दो साल छोटी थी और उसका विवाह पहले हो रहा था, यह सोचकर मां मेरे लिए चिंतित थीं। लेकिन पता नहीं क्यों, यह सुनकर मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उनकी बेटी, जो शादी के लिए खुशी-खुशी अपने वास्ते कपड़े पसंद कर रही थी, वह भी थोड़ी देर के लिए मायूस हो गई। हालांकि यह सब देख-सुन कर मैं उस समय तो किसी को कुछ नहीं बोल पाई, लेकिन मन ही मन सोचने लगी- क्या सच में बेटी की शादी मतलब मां-बाप की बरबादी होती है? यह बात उस परिवार की महिला बोल रही है, जिसके पास धन-दौलत, मान-सम्मान आदि किसी चीज की कमी नहीं है।
इस घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आखिर समाज में आज भी ऐसी सोच क्यों है? बेटी तो नहीं बोलती कि मेरी शादी में तामझाम करो! लाखों रुपये पानी की तरह बहा दो! लोग अपनी खुशी के लिए खर्च करते हैं और कितनी आसानी से आरोप बेटियों पर मढ़ देते हैं। हम लोगों को उपदेश देते हैं और सारा दोष अनपढ़ लोगों पर डाल देते हैं। शिक्षा और सोच की बात की जाए तो पढ़े-लिखे लोग तो उनसे भी गए – गुजरे हैं। मां-बाप के घर में बेटी पराया धन, भाई के घर में बहन मेहमान, पति के घर में पत्नी पराये घर से आई… यही उसका नसीब है। दुनिया कितनी आगे बढ़ रही है। तरक्की के नए आयाम छू रही है। बस परायेपन का यही एक बोझ स्त्री के मन से कभी नहीं उतरता। अगर उतर भी जाए तो लोग उसे एहसास करा देते हैं।
मेरी गुलाबो (छत्तीसगढ़ की बोली में दादी को दाई कहते हैं) से बात हो रही थी। पूछने लगीं, ''शादी क्यों नहीं करना चाहती?'' मैंने कहा- ''मन नहीं है।'' तो बोलती हैं, ''अभी मन नहीं कर रहा और जब मन करेगा तब कोई नहीं मिलेगा, फिर पछताएगी।'' मैंने कहा- ''ठीक है। जब मन करेगा तो मंदिर में जाकर गंधर्व विवाह कर लूंगी।'' इतना सुनकर दादी भड़क गईं। कहने लगीं- ''मां-बाप की नाक कटाएगी। हम लोग जिस समाज में रहते हैं, उस समाज के नियम-कायदे हैं। तू तो कर लेगी पर लोग जो तेरे मां-पिता को बोलेंगे उसका जवाब देने आएगी क्या? इसलिए सबकी बात मान ले। शादी कर ले।'' मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। खैर, जानती हूं कि मेरे पिता की बरबादी किसी बेटी की शादी से कभी नहीं होगी।
अलबत्ता, इतना जरूर समझ में आया कि शादी के बीच फंसी बेटी घर और समाज दोनों को खटकने लगती है। सभी बेटी का अच्छा चाहते हैं, लेकिन यह अच्छाई भी बेटी के लिए बोझ बनती जा रही है।
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