|
तिरपन वर्ष पहले की एक फाल्गुनी संध्या! मैं काशी के चेतसिंह घाट के एक बुर्ज पर बैठा था। उसके पिता का शरीर इधर कई दिनों से अधिक अस्वस्थ चल रहा है। आते समय मैंने उसके हरिश्चंद्र घाट के निकट स्थित मकान पर आवाज लगाने की कोशिश की, परंतु दरवाजे पर बैठे सीआईडी के भोले सिपाही को देखकर चुपके से खिसक आया। बैठा-बैठा मैं मुग्ध होकर गंगाजी का दृश्य देख रहा था। पांच बज चुके थे। जाड़े का अस्ताचलगामी सूर्य अपने निष्प्रभ प्रकाश से दूर स्थित रामनगर दुर्ग और प्रासाद को आलोकित कर रहा था। परंतु इस पार के घाटों पर शाम का अंधेरा तेजी से फैल चला था। केदारघाट पर एक तेज बत्ती जल उठी थी और मंदिर में बजने वाली घंटे की आवाज दूर-दूर तक गूंज रही थी।
निर्जन और शांत घाट
दूर मणिकर्णिका घाट पर शायद दो-तीन शव जल रहे थे और चेतसिंह घाट के निकट ही हरिश्चंद्र घाट पर भी एक शव जल रहा था। मर्णिकर्णिका से भी आगे पञ्चगंगा घाट पर मस्जिद की दो ऊंची मीनारें इतिहास के साक्षी के रूप में खड़ी थीं। काफी जाड़ा होने पर भी घाटों पर स्नान करने वालों की संख्या कम नहीं थी। काशी के घाटों की विशेषता है कि उनमें प्रात: से लेकर आधी रात तक कुछ न कुछ लोग स्नान करते रहते हैं। परंतु चेतसिंह को घाट कुछ अधिक निर्जन और शांत लग रहा था। मैं उठने ही वाला था कि पीछे की ओर से किसी ने धीरे से पुकारा— ''सुरेश दा!'' पीछे मुड़कर देखा तो नृपेन्द्र खड़ा-खड़ा हंस रहा था। ''तुम इधर से कहां से आये नृपेन?''—मैंने पूछा।
''मैं रामघाट की ओर से चक्कर काट कर आ रहा हूं। क्यों? नहीं तो भोलेनाथ का पिंड कैसे छुड़ाता?''
''क्या आजकल यह सिपाही नित्य तुम्हारे दरवाजे पर बैठने लगा?''- मैंने पूछा।
''नित्य ही नहीं, वह तो सुबह से शाम तक और कभी-कभी रात में भी बना रहता है।'' ''अरे भाई, यह तो बताओ कि तुम्हारे पिताजी कैसे हैं?''
''अच्छे नहीं, दिनों-दिन उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा है।'' थोड़ी देर बातचीत के बाद हम दोनों उठे और घाट-घाट के रास्ते से घर की ओर बढ़े। इसके कुछ दिन बाद हम मुंशीघाट पर मिले। इस बीच में नृपेंद्र के पिता वैद्य-शास्त्री महेन्द्र कविराज की मृत्यु हो चुकी थी। मैंने नृपेन्द्र से उसके कार्यक्रम के बारे में पूछा। नृपेन्द्र ने कुछ हंसते हुए और कुछ वेदना के साथ उत्तर दिया— ''अब तो मैं बिलकुल फुर्सत में हूं। पिताजी जब थे तब तो मुझे कुछ सोचना भी पड़ता था, अब तो मैं बिलकुल मुक्त हूं। परंतु ऐसा लगता है कि मुझे काशी से बाहर जाना पड़ेगा।''
एकनिष्ठ सदस्य
नृपेन्द्र काशी के क्रांतिकारी दल का एक एकनिष्ठ सदस्य था। सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में वह मेरा सहपाठी था। पढ़ने-लिखने में तेज और साथ ही क्रांतिकारी विचारों और आदर्शों में दृढ़ विश्वासी था। छोटे कद का स्वस्थ और हंसमुख यह तरुण किस समय आंदोलन में प्रविष्ट हुआ था, यह मुझे मालूम न था। परंतु जहां तक स्मरण है आंदोलन में योगदान करने से पहले ही उससे मेरा घनिष्ठ परिचय हो चुका था। आरंभ में वह दल का केवल एक 'पोस्टबॉक्स' था परंतु 1915 के आरंभ में, जब उत्तर भारत में सशस्त्र विद्रोह की तैयारी शुरू हुई, नृपेन्द्र पर अधिक जिम्मेदारियां सौंपी गईं। उसके पिता ने अगस्त कुंड में एक बड़ा और अच्छा मकान बना लिया था। इसके अतिरिक्त काशी में उनके और भी कई मकान पहले ही से थे। हरिश्चंद्र घाट की सड़क से लगी हुई एक गली में भी एक मकान था जिसमें नृपेन्द्र रहा करता था। मैं उस मकान में प्राय: उससे मिलने जाया करता था।
नृपेन्द्र की मां नहीं थी। संभवत: सौतेली मां से उसको सस्नेह व्यवहार नहीं मिलता था। पिता की संपत्ति और मकानों पर उसको लोभ न था। थोड़ी उम्र में ही वह लक्ष्मी कुंड पर स्थित युवक सम्मिलनी क्लब का सदस्य बन गया था। आगे जहां तक अनुमान है प्रियनाथ भट्टाचार्य के जरिये ही उसका दल में प्रवेश हुआ था। कॉलेज में और घाटों पर नृपेन्द्र से मेरी प्राय: मुलाकात होती थी और कभी-कभी तो नित्य ही होती थी। काशी में सशस्त्र क्रांति की तैयारी चल रही थी, परंतु पुलिस द्वारा मेरी निगरानी उस समय तक काफी कड़ी नहीं हुई थी। इसलिए मेरा घर कुछ सुरक्षित समझा जाता था। दो रिवॉल्वर और कुछ समान मेरे घर पर रखवा दिये गये थे। मेरे मंझले भाई हरिदास भट्टाचार्य को इस बात का पता था। वे नृपेन्द्र को भी जानते थे। एक दिन शाम के बाद नृपेन्द्र बहुत-सी तार काटने वाली संडसियां लेकर मेरे घर आया और उनको सावधानी से रखने के लिए कह कर चला गया। इसके बाद एक दिन कुछ झंडे और क्रांति के घोषणापत्र भी वह मेरे यहां रख गया।
मुंशी घाट पर हम जिस दिन मिले, उस दिन हमने यह निश्चय कर लिया था कि हमें काशी छोड़कर बाहर चले जाना चाहिए। काशी में क्रांतिकारी दल का करीब-करीब अंत हो चुका था। सशस्त्र क्रांति की योजना व्यर्थ हो चुकी थी और बनारस षड्यंत्र मामले की गिरफ्तारियों ने स्थानीय संगठन को बिल्कुल कमजोर बना दिया था। नृपेन्द्र, मैं और विनायकराव कापले के अतिरिक्त दो-तीन युवक और रह गए थे, जो 'पोस्टबॉक्स' के रूप में काम करते थे। श्री रास बिहारी जापान जा चुके थे। जाते समय वे संगठन का भार शचीन्द्रनाथ सान्याल और गिरिजा बाबू पर छोड़ गए थे। परंतु दोनों को काशी षड्यंत्र के मामले में सजा हो चुकी थी। उत्तर प्रदेश में कार्य-भार संभलने के लिए बंगाल से किसी नए नेता का आगमन नहीं हुआ था। फिर भी कुछ न कुछ काम हो रहा था। इस बीच में 'स्वाधीन भारत', 'युगांतर' तथा 'लिबर्टी' नामक क्रांतिकारी पर्चे, जो बंगाल से आ गये थे, दीवारों पर चिपका दिए गए थे।
विनायकराव कापले की शिकायत
हम एक दिन नारद घाट पर मिले। यह घाट सुनसान रहा करता था। हम दोनों के लिए पुलिस की निगाह बचाकर चलना कठिन हो गया था। दोनों के दरवाजे पर सीआईडी का पहरा बैठा दिया गया था। विनायकराव से भेंट नहीं होती थी। काशी षड्यंत्र मामले में वह एक खास अभियुक्त था। परंतु पुलिस उसको गिरफ्तार नहीं कर पाई थी। उसके पास पार्टी का काफी रुपया था और रिवॉल्वर , माउजर, पिस्तौल आदि हथियार भी थे। बंगाल के क्रांतिकारियों से इस बात की शिकायत थी कि विनायकराव पार्टी के धन तथा हथियारों का दुरुपयोग कर रहा है और दल का अनुशासन तोड़ रहा है। इधर, विनायक ने मध्य प्रदेश में दल का एक नया संगठन तैयार किया, जिसमें सात सदस्य थे। उनमें दो शिक्षक, दो छात्र, एक वकील, एक क्लर्क और एक दरजी था। परंतु पुलिस विनायक का सर्वत्र पीछा कर रही थी और उसको बाध्य होकर मध्य प्रदेश छोड़ना पड़ा। वह उत्तर प्रदेश में लौट आया और लखनऊ में जाकर रहने लगा था।
सुशील लाहिड़ी का पत्र
हम दोनों ने इन बातों पर विचार किया और देर तक बातचीत करते रहे। हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बनारस के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सुशील लाहिड़ी का एक पत्र चंदननगर से आया हुआ था, जिसमें उन्होंने नृपेन को तुरंत अपने पास बुलाया था। इस पत्र में उन्होंने विनायक राव से दल के हथियार तथा रुपया ले लेने पर जोर दिया था। पत्र के उत्तर में सुशीलदा को इस बात की सूचना दे दी गई कि विनायकराव से, जो लखनऊ चला गया है, हथियार और रुपया प्राप्त करना आसान नहीं है। जहां तक चंदन नगर जाने की बात थी, निश्चय हुआ कि नृपेन्द्र दूसरे ही दिन सुशीलदा के निर्देशों का पालन करेगा।
बरसाती रात और यात्रा
दूसरे दिन शाम से ही पानी बरसना आरंभ हुआ। नृपेन्द्र को बंबई मेल से जाना था और मुझे उसके साथ-साथ मुगलसराय तक जाना था। गिरफ्तारी से बचने के लिए हमने यह तय किया कि नाव से गंगा पार करके राजघाट के पुल तक पहुंचा जाय और वहां से रात को मुगलसराय पैदल जाया जाए। नृपेन्द्र मुझे उसके साथ जाने से रोकना चाहा, परंतु मुझे तो जाना ही था। हम दोनों केदार घाट से नाव पर सवाल हुए और लगभग 10 बजे रात्रि को राजघाट के पुल के पास जा उतरे। वहां से मुगलसराय स्टेशन 10 मील का रास्ता है रात बिल्कुल अंधेरी थी और सड़क के दोनों ओर के खेत और मैदान पानी से लबालब भरे हुए थे। कहीं-कहीं सड़क पर बित्ता-बित्ता भर जल था। दो-तीन बार सड़क पर सांप भी रेंगते हुए दिखाई पड़े। करीब दो घंटे के बाद हम मुगलसराय पहुंचे। मेरे पास एक छाता था जिसने काफी काम दिया। तीसरे दरजे के टिकटघर के पास जब हम पहुंचे तो मालूम हुआ कि गाड़ी तीन बजे रात को आती है और टिकट 12 बजे के बाद ही मिलेगा।
नृपेन्द्र विलग हुआ
कुछ देर हमलोग छाता खोल कर उसकी आड़ में लेटे-लेटे बातचीत करते रहे। उस रात्रि को क्या बातचीत हुई, इसका आज स्मरण नहीं। कुछ पुलिस के सिपाही भी इधर-उधर घूम रहे थे, परंतु हमारी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद हमने एक टिकट हावड़ा का खरीदा और एक काशी के लिए। जब गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आई तो पानी जोरों से गिर रहा था। नृपेन एक डिब्बे में बैठ गया और मैं छाता लिए खिड़की के पास खड़ा रहा। गाड़ी जब चलने लगी तो मैं भी कुछ दूर साथ-साथ चलता रहा। कुछ ही देर में गाड़ी नृपेन्द्र को लेकर अदृश्य हो गई। हम दोनों भारी और वेदनायुक्त मन लेकर एक-दूसरे से अलग हुए। नृपेन्द्र के जाने के बाद दो गिरफ्तारियां हुईं। सुरेन्द्रनाथ मुकर्जी क्रांतिकारी दल के एक साधारण सदस्य थे। उनके पांडेघाट स्थित मकान की तलाशी हुई और वे नये भारत रक्षा कानून के अंतर्गत एटा में नजरबंद कर दिये गये। उसके बाद ही प्रबोधेन्दु मोहन राय, जो दल के एक 'पोस्टबॉक्स' थे, पकड़ लिए गये और उनको हमीरपुर जिले के मुस्कटा नामक स्थान में नजरबंद किया गया।
8 नवंबर, 1915 को पुलिस ने मेरे घर की तलाशी ली। तलाशी में कुछ नहीं निकला। फिर भी मुझे पुलिस सुपरिंटेंडेंट के दफ्तर तक जाना पड़ा। वहां दसों उंगलियों के निशान लिये गये और फोटेा भी ली गई। उसी दिन भारत रक्षा कानून के अंतर्गत मुझे नजरबंदी का आदेशपत्र दिया गया और दूसरे ही दिन मुझे एक सब-इंस्पेक्टर के साथ उरई को रवाना होना पड़ा।
विनायक राव का प्रस्ताव
नजरबंदी के दिनों में मुझे यह न मालूम हो पाया कि नृपेन्द्र सुशीलदा के साथ कब लखनऊ आये और कितने दिन तक वहां रहे। बीच में एक दिन विनायकराव उरई में आये और उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं नजरबंदी से निकल कर उनके साथ फरारी जीवन अपनाऊं। विनायकराव के संबंध में मैंने जो कुछ सुन रखा था, उसको ध्यान में रखते हुए मैंने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार करना ही उचित समझा। उसके बाद दो वर्ष तक ये लोग क्या करते रहे, कहां रहे? इसका मुझे कुछ भी पता न चला।
विनायक राव का कत्ल : सुशीलदा को फांसी
अंत में जब पता चला तो मैं थोड़ी देर के लिए स्तंब्ध सा हो गया। मालूम हुआ कि 9 फरवरी 1918 की रात्रि को लखनऊ की एक गली में किसी क्रांतिकारी की गोली से विनायकराव कापले की मृत्यु हो गई। जिन परिस्थितियों में यह कांड हुआ उसे जानकर मुझे और भी अधिक दु:ख हुआ। (जारी)
टिप्पणियाँ