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जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे तमिलनाडु के 'किसानों' के प्रति समाज की हमदर्दी थी लेकिन यह हमदर्दी तब आक्रोश में बदल गई जब सोशल मीडिया ने उनके 'कथित प्रदर्शन' की पोल खोलकर रख दी। अब सवाल उठ रहे हैं कि इस 'प्रदर्शन' के पीछे कौन-कौन लोग शामिल थे?
हर्ष त्रिपाठी
एक भारतीय किसान परिवार की महीने की औसत आमदनी 6,426 रुपये है। जबकि, किसान परिवार की महीने की खपत में ही 6,223 रुपये खर्च हो जाते हैं। आजादी के 70 साल के बाद भी कृषि प्रधान देश भारत में किसानों की यह हालत है। उनकी बदहाली का यह आंकड़ा एनएसएसओ यानी नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन ने जुटाया है। इसी सर्वे में यह भी सामने आया है कि आम किसान खेती के लिए ज्यादातर कर्ज पर निर्भर करता है और इसी दुष्चक्र में देश के आधे से ज्यादा किसान परिवार कर्ज में बुरी तरह फंसे हुए हैं। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आपातकाल को छोड़कर आजादी के लगभग 70 साल की चुनी हुई सरकारों की नीतियां अन्नदाता को इस लायक ना बना सकीं कि वह उद्योगपतियों की तरह भले ही करोड़ों का मुनाफा हर तिमाही न घोषित कर सके, कम से कम अपनी लागत पर इतना मुनाफा तो कमा सके कि अपना घर चलाने के बाद अगली फसल के लिए बीज, खाद, पानी के लिए उसे कर्ज न लेना पड़े, पर ऐसा नहीं हो सका। 1947 से 2014 तक 14 प्रधानमंत्री आए। नरेंद्र मोदी देश के 15वें प्रधानमंत्री हैं। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार का यह लक्ष्य तय किया कि देश के किसानों की आमदनी 5 साल में दोगुनी की जाए। इसके लिए मोदी सरकार ने हर चरण के लिए एक बड़ी महत्वाकांक्षी योजना तैयार की है, जिससे किसानों की आमदनी को दोगुना करने की ओर बढ़ा जा सके।
किसानों की आमदनी की दोगुनी करने के लिए उन चरणों को सरकार ने मिट्टी की जांच के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड, सिंचाई की सुविधा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, उपज के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार तैयार करके देशभर में सबसे बेहतर भाव दिलाने और किसी अनिष्ट की स्थिति में उन्हें बिना किसी परेशानी के आसानी से बीमा दिलाने के लिए फसल बीमा योजना शुरू की है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर दिख रहे आंकड़े बताते हैं कि अब तक 67,784,796 मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रिंट किए जा चुके हैं और 65,232,481 कार्ड किसानों को भेजे जा चुके हैं। सरकार का लक्ष्य कुल 14 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड किसानों को देने का है।
किसानों की आमदनी की दोगुनी करने के लिए दूसरी महत्वपूर्ण योजना है, खेत को सिंचाई के लिए पानी देना। हर खेत को पानी और मोर क्रॉप पर ड्रॉप यानि हर बूंद से ज्यादा फसल के बुनियादी आधार पर प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शुरू की गई है। 1 जुलाई, 2015 को प्रधानमंत्री ने इसकी मंजूरी दी थी। अगले 5 साल में इसके लिए 50 हजार करोड़ रुपए आवंटित किया गया है।
इसके बाद बारी आती है किसानों की उपज जब तैयार हो तो उन्हें सबसे अच्छा भाव मिले। और सबसे अच्छा भाव किसानों को तभी मिल सकता है, जब उन्हें देश भर का बाजार मिल सके। देश भर का बाजार किसानोंं को मिले, इसके लिए जरूरी है कि देश की सभी मंडियां एकीकृत हो जाएं। सरकार इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना लागू कर रही है। इसमें कम्प्यूटर के जरिए देश की सभी मंडियों के टर्मिनल एक दूसरे से जुड़ रहे हैं। इससे देश के किसी भी हिस्से का किसान अपनी उपज किसी भी हिस्से के किसान या कारोबारी को बेच सकता है। जाहिर है, इससे किसानों को बेहतर भाव मिलेगा और ग्राहक के लिए भी देश के अलग-अलग हिस्सों में जरूरी सामान के भाव में अचानक तेज उतार-चढ़ाव से मुक्ति मिल सकेगी। सरकार का लक्ष्य मार्च 2018 तक देश की सभी मंडियों को कम्प्यूटर के जरिए जोड़ने का है। इस पर तेजी से काम हो रहा है। हालांकि, अभी इसे पूरी तरह से लागू करना बड़ी चुनौती है क्योंकि, एपीएमसी कानून में बदलाव करना राज्य सरकारों का अधिकार है। राज्य सरकारें भी केंद्र की इस अतिमहत्वाकांक्षी योजना में साथ दे रही हैं। लेकिन, मंडियों में कारोबारियों का गठजोड़ राष्ट्रीय कृषि बाजार के लागू होने में बड़ी मुसीबत है। इस सबके बावजूद इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आजाद भारत की यह पहली सरकार है, जो किसानों का जीवनस्तर बेहतर करने के लिए सब्सिडी देने और कर्जमाफी से आगे जाकर किसानों की आमदनी को दोगुना करने के लिए कई ठोस कदम उठाती दिख रही है।
भारत में मानसून के अच्छे-बुरे होने से लेकर ढेर सारी ऐसी परिस्थितियां हैं, जिसकी वजह से किसानों की उपज हमेशा खतरे में रहती है। इसीलिए केंद्र सरकार प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लेकर आई है। जिसमें बेहद कम प्रीमियम पर किसानों की उपज का जोखिम बीमा किया जा रहा है। इसमें समय से बीमा की रकम मिलने के साथ ही किसानों पर कम से कम शर्ते लगाई गई हैं। कुल मिलाकर सरकार हर स्तर पर किसानों की मदद करके उनकी आमदनी बढ़ाने की कोशिश करती दिख रही है। इसी बात को 23 सितम्बर को दिल्ली में हुई नीति आयोग की बैठक में मजबूती से फिर से कहा गया। नीति आयोग ने गवर्िंनग काउंसिल की बैठक में राज्यों से कहा कि वे किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए खेती में जरूरी सुधार करें।
सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए जितना कुछ करती दिख रही है, उससे किसानों को तुरन्त कितना फायदा हुआ यह तो समय के साथ तय होगा। लेकिन, इतना तो होना ही चाहिए था कि देश के किसानों को उम्मीद होती, सरकार पर भरोसा होता। लेकिन, पिछले दिनों संसद मार्ग के बगल में धरना-प्रदर्शन वाली जगह पर हरे रंग की पगड़ी धोती में जमे 'किसान' तो बेहद डरावनी तस्वीर पेश कर रहे थे। तमिलनाडु से आए ये किसान प्रधानमंत्री के घर के सामने कपड़े उतारकर पहुंच गए। बिना कपड़ों के देश की राजधानी में देश के अन्नदाता की ये तस्वीरें डराती हैं। ये 'किसान' तमिलनाडु से लाए गए थे, जो राज्य में पड़े जबरदस्त सूखे के बाद केंद्र सरकार से 'राहत की उम्मीद' में थे। हालांकि, किसानों का कर्ज माफ करने से लेकर उन्हें राहत देने का जिम्मा राज्य सरकार का है। लेकिन, 2008 में यूपीए की सरकार ने देशभर के किसानों का 80,000 करोड़ रुपये का कृषि कर्ज माफ करके एक मिसाल कायम की है जिससे देश के किसानों को केंद्र से लगातार उम्मीद बनी रहती है। उस पर हाल में चुनाव जीतने के तुरन्त बाद चुनावी वादे को पूरा करते हुए उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने उ.प्र. के किसानों का 36,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का कृषि कर्ज माफ करके दूसरे राज्यों के किसानों को भी ऐसी मांग करने का रास्ता खोल दिया। उस पर तमिलनाडु में भयंकर सूखे की स्थिति से परेशान किसानों के लिए तो यह जायज दिखता है। इन किसानों की मूल मांग कर्जमाफी और न्यूनतम समर्थन मूल्यों में अभिवृद्धि के लिए स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा लागू करना थी। स्वामिनाथन कमेटी कहती है कि किसानों को उनकी फसलों का लागत से डेढ़ गुना मूल्य दिया जाना चाहिए। सरकार के पास ये मांगें लम्बित हैं।
सोशल मीडिया पर तमिलनाडु के 'किसानों' का प्रदर्शन तीखी टिप्पणियां जुटा रहा था। ऐसी ही एक टिप्पणी,''किसी ने आपको बताया कि जंतर-मंतर पर 29 दिनों से प्रदर्शन कर रहे तमिलनाडु के किसान लगातार बीमार पड़ रहे हैं, कि उन्होंने खुद से जुड़ी हर एक चीज को प्रदर्शन का हथियार बना लिया है। उन्होंने प्रदर्शन के तौर पर 7 अप्रैल को मोदी का पुतला बनाकर उस पर अपने हाथ काटकर खून चढ़ाया और वे चावल-सांभर सड़क पर सानकर खा रहे हैं, कि विरोध के तौर पर गले में अपने मृत साथी किसानों के कंकालों की माला पहनकर बैठे दामोदरन किसी को यह नहीं बताते कि उसमें से एक कंकाल उनकी पत्नी का है, कि अब उनके पास खोने के लिए खुद की जान के सिवा कुछ और नहीं बचा?''
किसानों के साथ आम लोगों की सहानुभूति होना जायज है, हमेशा रहती है। लेकिन, यह पहला 'किसान आन्दोलन' था, जो इतने निचले स्तर तक गया और शायद यही वजह रही कि सोशल मीडिया में इस किसान आन्दोलन पर ढेर सारे सवाल खड़े हुए।
नरमुण्ड कहां से आए? क्योंकि, हिन्दू परम्परा में तो किसी की मृत्यु के बाद शव को जलाया जाता है और अस्थियां नदी में बहाई जाती हैं मुंह में सफेद चूहे रखने के लिए कहां से मिले? क्योंकि, ऐसे चूहे सामान्य तौर पर घूमते तो नहीं मिलते? अपना मूत्र पीकर प्रदर्शन और मल खाने की धमकी कोई किसान दे सकता है क्या? सरकार का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए प्रदर्शन का ऐसा विचार कहां से पोषित हो रहा था?
'किसान' 'सुनते ही लगता है कि उनका कुछ भी कहना जायज है। भारत में किसानों की दुर्दशा देश की दुर्दशा की असली वजह भी रही। इस दुर्दशा को रोकने के लिए सरकारों में बैठे नेताओं ने यह आसान रास्ता निकाल लिया है कि कुछ-कुछ समय पर कर्ज माफी करते रहो, जिससे नेताओं की दुकान चलती रहे। यह भारत का किसान नहीं हो सकता जो धरती मां की सेवा करके सिर्फ बारिश के पानी के भरोसे अन्नदाता बन जाता है। यह राजनीतिक तौर पर प्रेरित आन्दोलन दिख रहा था। ये किसान अगर इस बात की मांग के लिए जंतर-मंतर पर जुटे होते कि इस साल हमने इतना अनाज उगाया, हमारी लागत के बाद कम से कम इतना मुनाफा हमें मिलना चाहिए, तो उनकी इस मांग पर देश जरूर उनके साथ खड़ा होता। लेकिन, ये किसान दरअसल सरकार के खिलाफ एक बड़ी साजिश का नतीजा थे। इसका खुलासा सोशल मीडिया पर होना शुरू हुआ। ढेर सारे लोगों ने साक्ष्य के साथ दिखाया कि कैसे इन तथाकथित किसानों को सन्देह वाली जगहों से फंडिंग होती दिखी। एक और कमाल की बात यह दिखी कि इन किसानों के लिए चंदा जुटाने वाले, सोशल मीडिया पर लोकतंत्र बचाने की अपील करने वाले, इनके समर्थन में ज्यादा दिखाई दिए। इस आन्दोलन की अगुआई करने वाले किसान नेता अयाकन्नू पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। तमिलनाडु के गुम्मिडीपुन्डी के रहने वाले अनिल कुमार आचार्य ट्विटर पर लिखते हैं कि वे तमिल किसान हैं और जानते हैं कि कोई भी तमिल किसान चूहा, सांप नहीं खा सकता।
वे लिखते हैं कि तमिलनाडु के छद्म किसान जो 41 दिनों से दिल्ली में आन्दोलनरत थे… मीडिया बताएगा कौन स्पॉन्सर था, पैसा किसने दिया? उज्जैन के जाने माने ब्लॉगर सुरेश चिपलूणकर लिखते हैं, ''तमिलनाडु के कथित 'किसानों' और उनके वीभत्स प्रदर्शनों पर मैं थोड़ा रुककर लिखना चाहता था… क्योंकि आजकल अधिकांश आंदोलन 'प्रायोजित' होते हैं। ऐसे कथित आंदोलनों के पीछे कोई न कोई झूठ होता है अथवा ऐसी कोई संस्था होती है जो भारत (अथवा नरेंद्र मोदी) को बदनाम करने के चक्कर में नीचता की पराकाष्ठा को भी पार कर सकती है। तमिलनाडु से आए किसानों का यह आंदोलन (??) एकदम फर्जी, बनावटी और गढ़ा हुआ था। पहले चित्र में गोरा और मोटा 'किसान' जिसके पास सौ एकड़ जमीन और ऑडी कार है। जबकि दूसरे चित्र में शेख हुसैन नामक एक फर्जी किसान है जिसका खेती से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा (इसी ने कश्मीरी पत्थरबाजों के पक्ष में भी फेसबुक पोस्ट किए हैं) लेकिन पोस्ट का मेरा उद्देश्य दूसरा है… आखिर कब तक सोशल मीडिया किसी आंदोलन के दूसरे-तीसरे दिन बाद से तथ्य-तर्क और सबूत लाकर देता रहेगा??''
इलाहाबाद से दिल्ली आकर पत्रकारिता कर रहे ऋषि मालवीय लिखते हैं,''मैं वहां करीब करीब रोज जा रहा था। करीब डेढ़ बजे के आसपास जब वहां पहुंच तो एक गाड़ी खड़ी दिखी। जिसकी गाड़ी थी उसके कनॉट प्लेस में कई रेस्टोरेंट है। मैंने सोचा कि जंतर मंतर पर किसी काम से स्टाफ आया होगा। थोड़ी देर में सारे किसान लाइन लगा कर खड़े हो गए। और उनको थाली में विधिवत पूरा खाना परोसा गया। देखकर बड़ी खुशी हुई कि चलो, किसी ने तो इनकी सुध ली। उसके बाद से ऐसा कई बार देखा। कहने का मतलब है कि अगर होटल प्रबंधन ऐसा कर रहा है तो उसको सलाम लेकिन अगर नहीं तो कौन स्पांसर कर रहा है? बुंदेलखंड जाइये तो गरीब किसानों की शक्ल देखकर डर जायेंगे भाई साहब। गरीबी, सूखे और उस पर नेताओं की राजनीति ने उन्हें इतना कंगाल कर दिया है कि घर पर रोटी नहीं मिलेगी तो तन पर ढकने के लिए उतना ही कपड़ा मिलेगा जितने से उनकी शर्म-हया बच जाये और रही बात दिल्ली आकर हुकूमत को अपनी हालात की जानकारी देने की तो उस बात को भूल ही जाइये, दो जून की रोटी मिल जाये वही गनीमत है।
कहने का मतलब जंतर मंतर पर बैठे किसान अगर प्रायोजित हो रहे हैं तो यह उनका दोष नहीं क्योंकि अच्छे सपने देखने का हक सबको है। हां उनके सपने बेचकर अय्याशी कौन करता है, ये किसी से छुपा भी नहीं है, सफेद बुर्राक कुर्ते पाजामे में बहुतेरे दलाल बाजार में घूमते मिल जायेंगे। जंतर मंतर पर तो इनकी कोई कमी नहीं।''खैर अब तो तमिलनाडु के किसान धरने से उठ गए हैं। लेकिन, वे इतने सवाल छोड़कर गए हैं कि उसकी जांच जरूरी हो जाती है। जांच इसलिए भी क्यों कि 'चूहे खाने वाले' किसानों के चक्कर में असली अन्नदाता पर से लोगों का भरोसा न उठे और उनका सम्मान ऐसे ही बरकरार रहे।
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