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चाहे कश्मीर घाटी में पत्थर फेंकने वाले हों या सीरिया में मार-काट मचाने वाले, चाहे अफगानिस्तान को बर्बाद करने वाले हों या पाकिस्तान में बम फोड़ने वाले, इनके पीछे जिहाद के सौदागर काम कर रहे हैं। इन सौदागरों के इशारे पर जिहादी लोगों की हत्या कर रहे हैं। मरने वालों में सबसे अधिक मुसलमान ही हैं, फिर भी मुस्लिम समाज खुलकर आतंकवाद की आलोचना नहीं कर रहा है
प्रशांत बाजपेई
कश्मीर में नौजवानों से दिहाड़ी पर पत्थर फेंकवाते किसी ‘आजादी’ के ठेकेदारों, अफगानिस्तान को क्लाश्निकोव की गूंज से थर्राने वालों और पाकिस्तान में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम नाम वाले ‘काफिरों’ पर मौत बरसाने वालों में क्या समानता है? यह भारत की सुरक्षा धुरी के इर्द-गिर्द घूमता सवाल है। लंबे समय तक दुनिया के जिम्मेदार लोगों ने इन्हें अलग-अलग समस्याओं के रूप में देखा है, अपने मतलब के हिसाब से इनका इस्तेमाल किया है, और नतीजा शून्य रहा है। आज इस सवाल का उत्तर स्वीकार्य हो रहा है कि इस सारे फसाद की जड़ में वैश्विक जिहाद का सपना है, रावलपिंडी का दिमाग है और पेट्रो डॉलर से लेकर जकात तक, संसाधन इसमें झोंके गए हैं। तथ्य सुर्ख रंगों में चमक रहे हैं, क्योंकि समय से ज्यादा खरा सच कोई नहीं बोलता।
बारूद का ढेर : दृश्य एक
पाकिस्तान से सटे हुए अफगानिस्तान के नांगरार प्रांत के अचिन जिले के एक दूरदराज पहाड़ी इलाके में शाम का आसमान चकाचौंध करने वाली रोशनी से चमक उठा। लोगों ने देखा कि शाम के धुंधलके में मानो सूरज निकल आया हो, और उसके बाद तेज धमाके के साथ धरती कांपने लगी। कई किलोमीटर तक घरों की खिड़कियां और दरवाजे टूट गए। यह 11 टन का जीवीयू-43-बी बम (मदर आॅफ आॅल बम्स) था, जिसे अमेरिका के कार्गो विमान ने गिराया था। यह बम हवा में छह फुट ऊपर फटता है और दूसरे बमों के विपरीत इसके विस्फोट की मार नीचे की तरफ होती है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली इस गैर-परमाणु बम का इस्तेमाल इतिहास में पहली बार हुआ, जिसने धरती के नीचे स्थित सुरंगों के उस जाल को ध्वस्त कर दिया जहां इस्लामिक स्टेट के 100 से अधिक प्रमुख लड़ाकों की बैठक चल रही थी। 90 से ऊपर मारे गए। यह इस्लामिक स्टेट-खुरासान, जिसमें खुरासान से आशय अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान तथा भारत के कुछ इलाकों से है, के लिए कमरतोड़ चोट है। इससे आस-पास के इलाकों के लोग खुश हैं। दो साल पहले यहां पर अपनी पकड़ जमाने से पहले इस्लामिक स्टेट ने वही दरिंदगी दिखानी शुरू की थी जैसी कि वह सीरिया और इराक में दिखा रहा था। दाढ़ी और बुर्का न होने पर किसी की भी जान ली जा सकती थी। सेल फोन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। पुलिस अधिकारियों के गले रेते गए और इलाके के रसूखदारों और सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों को बमों के ऊपर बैठा कर उड़ा दिया गया। बहुत सारे लोग जो घर छोड़ कर भाग गए थे, वे अब वापस लौट रहे हैं। लेकिन डरे हुए हैं कि पहाड़ियों में जमे बैठे इस्लामिक स्टेट के लड़ाके फिर वापस आ सकते हैं। और इसीलिए वे चाहते हैं कि अमेरिकी और अफगान फौजें पहाड़ों में कार्रवाई करें। अचिन से सड़क पूर्व की ओर प्रदेश की राजधानी जलालाबाद तक जाती है, जबकि दक्षिण में यह पाकिस्तान से सटे बर्फीले पहाड़ों की ओर मुड़ जाती है। सेना का नियंत्रण सड़क पर है, परंतु आसपास के जंगलों और पहाड़ों पर नहीं। इस इलाके में इस्लामिक स्टेट ने खदानों, लकड़ी एवं अफीम के व्यवसाय पर पकड़ बना कर रखी है। पर्वतों की खोहें उन्हें अमेरिकी बमबारी से बचा कर रखती हैं। लेकिन इस हमले में बड़े कमांडरों के मारे जाने के कारण इस्लामिक स्टेट पर निर्णायक चोट पड़ी है। काफी सारे सीमा पर करके पाकिस्तान में हैं। हालांकि प्रांत के तीन अन्य शहरों पर उनका खासा प्रभाव है।
इस्लामिक स्टेट पूरी तरह विदा भी हो जाए तो भी आतंक से मुक्ति नहीं है। कहा जाता है कि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों की संख्या 1,200 के आस-पास है, लेकिन तालिबानी लड़ाके आज भी करीब 15,000 हैं, जबकि अलकायदा के लड़ाकों की संख्या लगभग 3,000 है। इसमें वे लड़ाके शामिल नहीं हैं, जो पाकिस्तान के पेशावर और दूसरे शहरों में पाक फौज द्वारा बसाई गर्इं सुरक्षित आरामगाहों में रह रहे हैं।
इधर बीते सालों में बातचीत और मध्यस्थता की खबरों और अटकलों के बीच तालिबान लगातार भीषण से भीषणतर हमले करता जा रहा है। राजधानी काबुल स्थित दूतावास और संसद भी सुरक्षित नहीं रह गए हैं। इन खूनी हमलों की साजिशें पाक फौजी तैयार करते हैं, जिन्हें पूरा करते हैं उनके प्यादे तालिबान और खूंखार हक्कानी नेटवर्क।
जहां तक शांतिवार्ता की बात है तालिबान कतई गंभीर नहीं है। उसकी शर्तें हैं कि बात शुरू होने के पहले उसके युद्धबंदियों को छोड़ा जाए। उनके धन स्रोतों को फिर से निर्बाध किया जाए और अमेरिका के नेतृत्व में कार्रवाई कर रहीं सेनाएं अफगानिस्तान से बाहर निकल जाएं। तालिबान अमेरिका से इस संबंध में निश्चित तिथि तय करने के लिए सीधी बात करना चाहता है। अब ये शर्तें मानकर अफगानिस्तान या अमेरिका अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से रहे। वे जानते हैं कि इन शर्तों का खाका तालिबान शूरा में नहीं, बल्कि पाक फौज के मुख्यालय में तय होता है। पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान अफगान मुजाहिदीन को सदा से अपना सबसे ताकतवर मानता आया है। 2015 में बातचीत के लिए सकारात्मक रूख दिखाने वाले तालिबान समूहों का पाकिस्तानी पिट्ठुओं ने बेरहमी से कत्ल किया था। तालिबान की स्थापना ही अफगानिस्तान में ऐसी सत्ता लाने के लिए की गई थी, जो पाकिस्तानी फौज के रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने में उपयोगी हो। पाक फौज ने आईएसआई के माध्यम से तालिबान में भारी निवेश किया और ये निवेश उनकी नजर में काफी फायदेमंद रहा। ढाई दशक से आईएसआई ने अपने तीन पंजों, तालिबान-हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा के जरिए अफगानिस्तान को शिकंजे में कस रखा है,और अब वह इस्लामिक स्टेट खुरासान में दिलचस्पी दिखा रहा है। यह मोलभाव के पुराने खेल के नए खुर-पेंच गढ़ने की तैयारी भी है। ऐसे में यह धमाका करके अमरीकी राष्टÑपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पाकिस्तान को संदेश दे दिया है कि वे इस लड़ाई को लेकर गंभीर हैं और पाकिस्तान और उसके आतंकी नेटवर्क को चौंकाने वाले फैसले भी ले सकते हैं। नया अमेरिकी प्रशासन इस बात को लेकर स्पष्ट है कि तालिबान हो या इस्लामिक स्टेट खुरासान अथवा हक्कानी, उनका आदर्श अबू बकर अल बगदादी, मुल्ला उमर या ओसामा बिन लादेन ही हो सकता है।
एक सुलगता समाज : दृश्य दो
अप्रैल का दूसरा हफ्ता। पाकिस्तान के खैबर पख्तून ख्वा में पत्रकारिता के एक छात्र मशल खान को विश्वविद्यालय परिसर में भीड़ द्वारा नृशंसतापूर्वक मार डाला गया। मरदान के अब्दुल वली खान विश्वविद्यालय में दिनदहाड़े हुई इस हत्या में संस्थान के दर्जनों छात्र भी शामिल थे। मशल को घसीट कर बाहर लाया गया। उसके सारे कपडेÞ फाड़ डाले गए। फिर डंडे, सलाखें , र्इंट और पत्थर लिए हुए सैकड़ों लोग उस पर टूट पड़े। बाद में बेसुध मशल के सीने और सर में गोलियां दागी गर्इं। फिर उसके निर्जीव शरीर पर लाठियां और पत्थर बरसाए गए। उसकी मृत देह को पैरों से कुचला गया। इस दौरान कुछ छात्र और लोग घटना का वीडियो बनाते रहे। घटना के कुछ समय बाद एक और वीडियो सामने आया जिसमें विश्वविद्यालय के कुछ छात्र बाहर जाने वाली कारों की तलाशी ले रहे थे, ताकि मशल की लाश को बाहर न ले जाया जा सके। वे उसे जला डालना चाहते थे, ताकि उसे इस्लामी रीति से दफनाया न जा सके। इतनी नफरत के पीछे मशल का दोष यह था कि वह एक अहमदिया मुस्लिम था और उस पर इल्जाम था कि वह अपने फेसबुक पेज के माध्यम से अहमदी इस्लाम का प्रचार कर रहा था। यह बात भी बाद में झूठी साबित हुई। अब मशल के साथी इल्जाम लगा रहे हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन उन पर मृतक मशल पर झूठे आरोप लगाने का दबाव बना रहा था । पाकिस्तान में जिया उल हक के शासन काल में कानून बनाकर अहमदियों को गैर-मुस्लिम घोषित किया गया था। अहमदी स्वयं को मुस्लिम कहें तो उन्हें तीन साल की सजा हो सकती है। पाकिस्तानी पासपोर्ट के लिए आवेदनपत्र पर घोषणा करनी पड़ती है कि अहमदी काफिर हैं। दूसरा है पाकिस्तान का रिसालत ए रसूल कानून ( ईश निंदा या पैगंबर निंदा) जिसकी सजा मौत है। ज्यादातर मामलों में व्यक्तिगत दुश्मनी भुनाई जाती है और सजा अदालत नहीं भीड़ देती है। मशल की हत्या के पहले तीन सप्ताह में तीन और अहमदियों की हत्या की गई थी। अन्य तीन मृतकों में मॉलिक्युलर जेनेटिक्स की प्रोफेसर ताहिरा मालिक, नोबल विजेता डॉ. अब्दुस सलाम के चचेरे भाई और नेता एडवोकेट मलिक सलीम लतीफ और एक अहमदी पशु चिकित्सक शामिल हैं। अगर आपके मन में जुगुप्सा जगे तो जान लें कि यह खेल इससे कहीं अधिक गंदा और जहरीला है।
इस्लाम के नाम पर दूसरों का घर जलाने की साजिश रचते-रचते पाकिस्तानी सियासत और फौज ने अपना ही घर सुलगा लिया है। खाकी वाले आज भी उसी आग से खेल रहे हैं। बलूच नेता आरोप लगा रहे हैं कि पाक फौज इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों का इस्तेमाल बलूचिस्तान में शियाओं की हत्या करवाने के लिए कर रही है। इसके सबूत भी हैं। अगस्त, 2016 में बलूचिस्तान के क्वेटा में वकीलों को निशाना बनाकर बम विस्फोट किया गया जिसमें 70 वकील मारे गए। हमले के दिन सुबह एक बड़े वकील की गोली मारकर हत्या की गई। फिर जब इलाके के अधिकांश वकील शोक प्रकट करने एकत्रित हुए तो उस शोक सभा में आत्मघाती धमाका किया गया। हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली। पाक सरकार मरने वालों से ज्यादा चिंतित थी इस इलाके से गुजरने वाले चीन-पाक आर्थिक गलियारे और उसे होने वाले नुकसान के लिए। बलूचिस्तान में इसे बढ़ते हुए स्थानीय पाक विरोधी उभार को दबाने तथा आतंक विरोधी अभियान के नाम पर अमेरिका को ब्लैकमेल कर उससे डॉलर ऐंठने के षड्यंत्र के रूप में देखा गया। बलूचिस्तान के नेता मेहरान मारी ने ट्वीट किया, ‘‘क्या यह महज संयोग है कि एक ही दिन पहले अमेरिका द्वारा (पाक को) 300 मिलियन डॉलर की सहायता रोकी गई और अगले ही दिन वहां (बलूचिस्तान में) इतना बड़ा आतंकी हमला हो गया। पाकिस्तानी किसे मूर्ख बना रहे हैं? अमरीका को या चीन को?’’
क्वेटा में जो हुआ यह खास पाकिस्तान मार्का नरसंहार का तरीका है। शियाओं और अहमदियों के बड़े पैमाने पर नरसंहार के लिए भी यही तरीका अपनाया जाता है। अर्थात् पहले कुछ लोगों की हत्या फिर उनका शोक मनाने वालों का सामूहिक कत्लेआम।
आज इस्लामिक स्टेट, लश्कर ए तोयबा, तालिबान और लश्कर ए झांगवी जैसे संगठन पाकिस्तान के शिक्षित युवाओं में से भर्तियां कर रहे हैं। एक ही मोहल्ले से एक युवा पाक फौज में भर्ती होता है तो दूसरा तालिबान में। पाकिस्तानी हिंदू और ईसाई तो किसी गिनती में आते ही नहीं। ऐसे समाज में सशस्त्र जिहाद का महिमामंडन, ‘काफिरों’ के विरुद्ध असीमित घृणा का प्रचार, इन परिस्थितियों के बीच मिमियाते-गुर्राते सियासी लोग और शतरंजी चालें चलता पाक फौज संस्थान पाकिस्तान को भस्मासुर बनाने पर तुले हुए हैं, क्योंकि ‘इस्लाम के किले’ में मौजूद असंख्य फिरकों के पास इस्लाम़, जिहाद, काफिर और शरिया की अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं और जरा-सा भी मतभेद रखने वाले के लिए है उबलती हुई नफरत। और ये सब सिर्फ मदरसों में नहीं हो रहा है, बल्कि पाकिस्तान के बड़े विश्वविद्यालयों में हो रहा है। जहां इस्लामिक स्टेट से हमदर्दी रखने वाले प्रोफेसर छात्रों को बगदादी की शिक्षाएं घुट्टी में पिला रहे हैं। खुले विचार रखने वाले होनहार छात्र मशल खान की दर्दनाक मौत इसका प्रमाण है। यदा-कदा सुनाई देने वाली, यहां की खुले दिमाग वाली सिविल सोसाइटी की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज है। वे मशल का शोक मना रहे हैं।
‘आजादी’ का पर्चा : दृश्य तीन
कश्मीर की आजादी की तथाकथित मांग क्या है सिवाय इस्लामिक स्टेट छाप जिहाद और पाकिस्तानी छाप समाज की रूमानी कल्पनाओं के? इसी जिहादी सपने को पूरा करने के लिए वहां पाक पोषित आतंकियों ने स्थानीय कट्टरवादियों के साथ मिलकर कश्मीरी हिंदुओं को हिंसा और बलात्कार के दम पर घाटी से खदेड़ा। इस्लामिक स्टेट वाली इसी मानसिकता से घाटी के शिया मुस्लिम भयभीत हैं। इसी मानसिकता के चलते आज कश्मीर में शिक्षा, पर्यटन और उद्योग का सर्वनाश किया जा रहा है। फिर फालतू बैठे युवकों को पैसा देकर पत्थर फेंकवाए जा रहे हैं। जो जितना दूर पत्थर फेंक सकता है उसे उतने ज्यादा नोट दिए जाते हैं। प्रायोजित विरोध प्रदर्शनों ने जीवन को बंधक बना रखा है। घाटी के नेताओं ने आतंकवाद और अराजकता को फायदे का धंधा बना रखा है। देश के किसी भी राज्य की तुलना में यहां प्रति नागरिक आठ गुना धन केंद्र सरकार दशकों से दे रही है। यहां खर्च होने वाले हर एक रुपए में से 60 पैसा केंद्र से आता है। केंद्र से सस्ता कर्ज, दूसरे फायदे अलग। जाहिर है कि कोई अलग नहीं होना चाहता। तिस पर भी जम्मू और लद्दाख के साथ सदा से भेदभाव होता आया। इसका कोई औचित्यपूर्ण तर्क नहीं सिवाय जिहादी मानसिकता के। घाटी में जो विपक्ष में बैठता है उसे जिहाद और इस्लाम के ख्वाब आने लगते हैं। फारुख अब्दुल्ला के हाल ही के बयान इसकी सबसे अच्छी मिसाल हैं। करीबियों के अनुसार असल जिंदगी में फारुख पार्टी और महफिलों में मस्त रहने वाले इंसान रहे हैं। घर से बाहर निकलकर वे इस्लाम-परस्त हो जाते हैं और घाटी से बाहर निकलकर सेकुलर हो जाते हैं। घाटी के कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज का हालिया बयान भी इसी श्रृंखला की कड़ी है। अलगाववादी नेता कैमरों के सामने तथाकथित ‘आजादी’ की बात करते हैं और कश्मीर समर्थकों के बीच इस्लाम और जिहाद की बाते करते हैं। मारे गए आतंकी बुरहान वानी का पिता भी मीडिया के सामने जन्नत और जिहाद की ही दुहाई देता है। घाटी में जो विपक्ष में बैठे हैं वे बेचैन हैं कि यदि राज्य सरकार ने थोड़ा-सा भी काम कर दिखाया तो उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी। उधर पाकिस्तान व्यग्र है कि यदि विकास की बात चल पड़ी तो उसके बचे-खुचे सपने चकनाचूर हो जाएंगे। इसलिए उसने अपनी सारी ताकत झोंक रखी है और कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस मिलकर मौकापरस्ती की नई इबारत लिख रहे हैं।
समय की लिखावट : दृश्य चार
कहने को आज नोटों के जोर पर जारी पत्थरबाजी खबरों में बनी हुई है, लेकिन अंदर या बाहर से कोई समर्थन जुटाने में अलगाववादी नाकाम रहे हैं। पाकिस्तान सदा से उसके कश्मीर कार्ड पर इतराता आया था, लेकिन अतीत का हुकुम का इक्का आज जोकर बन गया है। उसकी स्वयं की संप्रभुता दांव पर है। बुरहान का मर्सिया गा-गाकर नवाज शरीफ का गला बैठ गया, लेकिन दुनिया से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। सर्जिकल स्ट्राइक का घाव अभी भी उसे सालता है। आज यदि कोई उसे साथ बैठा रहा है तो मजबूरी में ही ऐसा कर रहा है। यह बहुत दूर तक जाने वाला घाटा है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ नफरत है। अफगानों ने पाकिस्तान की ‘इस्लामी’ बिरादरी का असली रंग देख लिया है। वे भारत के मुरीद हैं। जीवीयू-43-बी के धमाके के बाद अमेरिका के राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार मैकमास्टर अफगानिस्तान होते हुए जब इस्लामाबाद पहुंचे तो उन्होंने पाकिस्तान को आतंकियों पर कार्रवाई करने में दोगलेपन के पुराने रवैये को छोड़ने को कहा। भारत के लिए सकारात्मक रवैया रखने वाले मैकमास्टर ने प्रधानमंत्री और राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से भेंट की। उन्होंने भारत को अमेरिका का प्रमुख सुरक्षा सहयोगी बताया। प्रधानमंत्री मोदी और मैकमास्टर की बातचीत के बिंदु अफगानिस्तान के नांगरार से शुरू होकर उत्तरी कोरिया तक पहुंचे। समय की यह लिखावट आने वाले काल के कई संकेत दे रही है।
समस्या है मजहबी कट्टरता
आर. एस. एन. सिंह
कश्मीर घाटी में पिछले कुछ साल से पत्थरों को हथियार बनाकर बड़ा घृणित और निम्न स्तर का जिहाद चलाया जा रहा है। कश्मीर की युवा पीढ़ी की रचनात्मक जीवनशैली वहाबी इस्लाम ने छीन ली है। घाटी में जो पत्थर फेंके जा रहे हैं उनके निशाने पर केवल भारत के सैनिक ही नहीं हैं, उनके निशाने पर कश्मीरियत भी है, उनके पूर्वज भी हंै। जो नस्ल भूगोल और इतिहास को अपना दुश्मन मान लेती है, फिर उसकी समाप्ति ज्यादा दूर नहीं रह जाती।
कन्वर्जन अगर अपनी जमीन और अपने पूर्वजों के प्रति घृणा पैदा करता है तो हमें उस मत विशेष के बारे में नए सिरे से विचार करना चाहिए। कश्मीर में आतंकवाद और उसका वर्तमान पत्थरबाज स्वरूप कई सालों की अनीदेखी का नतीजा है। इस स्वरूप को हम देख तो रहे थे, महसूस तो कर रहे थे लेकिन इसको पटरी पर लाने का हमने कभी बौद्धिक साहस नहीं दिखाया। शायद इस्लाम के इस पहलू को समझने में समझदारी की कमी रही है। मेरी राय में तो जिस समय कश्मीरी हिन्दू घाटी से निकाले गये थे, कश्मीरियत उसी समय मर गई थी। कश्मीरी हिंदू कश्मीरी संस्कृति का आखिरी संपर्क सूत्र थे।
घाटी को जकड़बंदी में लेने का सिलसिला कई साल से चल रहा था। इसके फलस्वरूप वहाबी विचारधारा सारी घाटी पर हावी होती जा रही थी। ऐसे उन्माद से भरे माहौल में लश्करे-तोयबा, हिज्बुल मुजाहीद्दीन और जैशे-मोहम्मद जैसी जिहादी तंजीमों के लिए अपना वर्चस्व स्थापित करना काफी आसान हो गया।
इसमें संदेह नहीं कि इन तमाम जिहादी तंजीमों के तार अल कायदा से जुड़े हैं। इसके पीछे कारण है कि अरब कट्टरवादियों का भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी गतिविधियां संचालित करना मुश्कील है। इसलिए उन्होंने भारत, बंगलादेश, म्यांमार और श्रीलंका में जिहाद की जिम्मेदारी लश्करे तोयबा को सौंप रखी है। इस्लामिक स्टेट भी अल कायदा से ही संबद्ध है। कई रपटें इस बात का संकेत देती हैं कि अफगान-पाकिस्तान क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट को स्थापित करने में आईएसआई और लश्करे तोयबा की एक बड़ी भूमिका रही है। इस संगठन की बुनियाद अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में पेशावर में रखी गयी थी। पता चला है कि बलूचिस्तान में इस्लामिक स्टेट के हत्यारे सीमान्त क्षेत्रों मे मौजूद अड्डों से गतिविधियां संचालित कर रहे हैं। इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि कश्मीर घाटी में मस्जिदों के बाहर इस्लामिक स्टेट के झंडे फहराए जाते हैं। पाकिस्तान की सेना भी अल कायदा से फरमान लेती है। अल कायदा और उसके पाकिस्तानी सूत्र, जिसमें वहां की सेना भी है, अमेरिका और हिन्दुस्थान को अपना दुश्मन मानते हैं। इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सीरिया में इस्लामिक स्टेट को अमेरिका एवं इस्रायल का गुप्त समर्थन था। इस तरह का गुप्त समर्थन एक आतंकी संगठन के हाथों वैसे ही दूसरे संगठन को खत्म करने के लिए अक्सर दिया जाता है।
इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि कश्मीर घाटी के ज्यादातर कट्टरवादी नेता, हुर्रियत और अलगाववादी अल कायदा से जुड़े हैं। शायद इसीलिए जब राष्टÑपति ट्रंप ने पिछले दिनों अफगानिस्तान के ऐसे इलाके में बड़ा भारी बम गिराया जहां से पाकिस्तान को भी इस्लामिक स्टेट को संरक्षण देने के संदर्भ में चेतावनी दी जा सके। उल्लेखनीय है कि उस बम से पाकिस्तान की खुर्रम एजेंसी में भी भारी क्षति हुई है।
सवाल है कि अल कायदा के इस व्यापक जहर को कश्मीर घाटी से कैसे निकाला जाए? इसके लिए हमें आतंकी विचारधारा के टक्कर में एक विचारधारा तैयार करनी होगी। अगर जिया उल हक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों को देवबंद और वहाबी रास्ते पर ले जा सकता है तो हम उसे भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़े इस्लाम की तरफ क्यों नहीं ला सकते? याद रहे कि जियाउल हक ने कहा था कि अगर कोई ईरानी हिन्दुस्थान का रास्ता अपना लें तो वे ईरानी ही रहेंगे, लेकिन तब पाकिस्तान का वजूद खत्म हो जाएगा।
कश्मीर घाटी में बहुत से मुसलमान अलग ही सोच के हैं। अभी हाल में वहां लोकसभा उपचुनाव में 7 प्रतिशत वोट डाले गये। अगर अल कायदा और उसके मददगारों का खौफ नहीं होता तो वोट प्रतिशत कहीं ज्यादा होता। लेकिन अगर एक वोट चुनाव में जीत और हार का फैसला कर सकता है तो एक वोट लोकतंत्र और हैवानियत के लिए भी निर्णायक हो सकता है। पिछली बार जब घाटी में बाढ़ आयी थी। तब कई जगह देखने में आया कि कुछ मजहबी उन्मादी राहत सामग्री लेने के बाद नाव में बैठे सुरक्षाकर्मियों पर पथराव करने लगते थे। लेकिन शिया बहुल इलाकों में लोग सेना से बड़े आदर के साथ पेश आते थे। इससे जाहिर है कि कश्मीर का मसला राजनीतिक नहीं, एक विशेष मजहबी विचारधारा की वजह से है। यह वही विचारधारा है जो कश्मीर को इस्लाम के अरब ब्रांड की तरफ जाने के लिए हिंसक तरीके से मजबूर कर रही है।
अगर प्रदेश के 7.2 प्रतिशत इलाके में रहने वाले 98 प्रतिशत क्षेत्र पर राज कर रहे हों, अगर पूरी दुनिया में घाटी में प्रति व्यक्ति मांस की खपत सबसे ज्यादा हो तो समस्या आर्थिक और राजनीतिक नहीं है। मूल समस्या इस्लामिक कट्टरता की है जो पाकिस्तान जैसे ‘अल कायदा’ देश से संयोजित की जा रही है। घाटी के नेताओं से बात करने से कोई लाभ हासिल नहीं होगा क्योंकि वे भी उसी अल कायदा नेटवर्क का हिस्सा हैं।
मेरी राय है कि घाटी में कश्मीरियत और हिन्दुस्थानियत को दोबारा स्थापित करने के लिए धारा 370 का अंत अनिवार्य है।
(लेखक सैन्य गुप्तचर अधिकारी रहे हैं और रॉ में भी सेवाएं दे चुके हैं)
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