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जयललिता के निधन के बाद उनके उत्तराधिकार को लेकर घमासान के बीच शशिकला खेमे के पलानीसामी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। उन्हें 15 दिनों के भीतर विधानसभा में बहुमत साबित करना होगा। अब देखना यह है कि सरकार कितने दिन चलेगी, क्योंकि विरोधी तो चुप बैठेंगे नहीं।
-प्रमोद जोशी-
तमिलनाडु में जे. जयललिता के निधन के बाद उनके उत्तराधिकार को लेकर जारी घमासान में आखिरकार वीके शशिकला गुट की जीत हुई। ई.के पलानीसामी ने 30 मंत्रियों के साथ बुधवार को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। हालांकि राज्यपाल सी. विद्यासागर राव ने विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 15 दिन का समय दिया है। पलानीसामी ने 120 विधायकों के समर्थन का दावा किया है। ओ. पन्नीरसेल्वम के लिए यह बड़ा झटका है। लेकिन यह भी तय है कि उनका खेमा चुप तो नहीं बैठेगा। इसलिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि खींचतान के बीच यह सरकार कब तक चलेगी।
इससे एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति मामले में शशिकला को चार साल कैद की सुनाई थी। सजा पाने के बावजूद फिलहाल पार्टी पर शशिकला की पकड़ कायम है। जेल जाने से पहले उन्होंने पलानीसामी के रूप में अपना विकल्प तैयार कर लिया था। जेल जाने का मतलब यह नहीं है कि उनका राजनीतिक अस्तित्व खत्म हो गया। बिहार में राजनीति की डोर अब भी लालू यादव के हाथों में है। उधर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पन्नीरसेल्वम खेमे में खुशी की लहर थी। विडंबना है कि यह फैसला मूलत: जयललिता के खिलाफ है और पन्नीरसेल्वम उनके उत्तराधिकारी बनना चाहते हैं। लेकिन शशिकला ने साबित कर दिया कि पार्टी पर उनकी पकड़ है। हालांकि पन्नीरसेल्वम इतनी आसानी से हार नहीं मानेंगे। वह पूरी कोशिश करेंगे कि पलानीसामी बहुमत साबित न कर पाएं। पलानीसामी ने बहुमत साबित भी कर लिया तो क्या कि सरकार चार साल चलेगी? खींचतान क्या पार्टी बचेगी? बची भी तो किस कीमत पर? राज्य में पिछले साल ही चुनाव हुए हैं। क्या फिर से चुनाव की नौबत आएगी? दोनों धड़े अगर एक हो गए तो क्या होगा?
भाजपा की दिलचस्पी
कहा जा रहा है कि अन्नाद्रमुक में झगड़े से भाजपा फायदा उठाएगी। इस लड़ाई में कांग्रेस या भाजपा को संभावित लाभ-हानि का विश्लेषण करने की जरूरत भी है। जयललिता के साथ भाजपा के रिश्ते बेहतर थे। खासतौर से नरेंद्र मोदी के साथ। बावजूद इसके जयललिता ने कभी खुलकर भाजपा का साथ नहीं दिया, क्योंकि पार्टी मुसलमान समर्थकों को खोना नहीं चाहती। जयललिता के निधन के बाद क्षत्रपों के आंतरिक संग्राम को देखते हुए लगता है कि पार्टी कमजोर हो जाएगी। इसके कारण प्रदेश की राजनीति में नई ताकत के लिए जगह बनेगी। विस्तार की कोशिश कर रही भाजपा के लिए यह अच्छा अवसर हो सकता है। इसके अलावा, केंद्र की भाजपा सरकार को राज्यसभा में अन्नाद्रमुक के 13 और लोकसभा में 37 सदस्यों के समर्थन की उम्मीद भी है। इस साल राष्ट्रपति चुनाव भी होगा, जिसमें अन्नाद्रमुक मददगार होगी। जयललिता जब अस्पताल में थीं तब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू उनसे मिलने गए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे।
भाजपा महासचिव पी़ मुरलीधर राव ने अगरतला में कहा कि तमिलनाडु की राजनीति में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दूरगामी असर देखने को मिलेगा। अन्नाद्रमुक संकट में है और उसकी परीक्षा इस बात की है कि वह किस प्रकार के नेतृत्व को अब पेश करेगी। वहीं, भाजपा के आंतरिक सूत्रों का कहना है कि इस मौके पर पार्टी का कमजोर होना हमारे हित में नहीं है। इससे द्रमुक को आगे आने का मौका मिलेगा, जो भाजपा नहीं चाहेगी। राज्यपाल की ओर से देरी पर शशिकला खेमे में भाजपा को लेकर खलिश है। शशिकला खेमा एकता बनाए रखने में सफल रहा तो वह किसी के साथ मोल-भाव की स्थिति में आ जाएगा।
कांग्रेस योजना
जयललिता के अस्पताल में भर्ती होने के बाद कांग्रेस ने भी अन्नाद्रमुक के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू की। गुलाम नबी आजाद, पी. चिदंबरम और मुकुल वासनिक के जरिये पार्टी ने अन्नाद्रमुक से संपर्क बनाया। इसके बाद राहुल गांधी उन्हें देखने अस्पताल गए। उस समय अन्नाद्रमुक-कांग्रेस के बीच गठबंधन की बातें भी उठी थीं। हालांकि कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन कायम है, पर वह सिर्फ नाम का है। इसका संकेत तब मिला जब राहुल गांधी ने अस्पताल में जयललिता का हाल-चाल तो पूछा, पर करुणानिधि से नहीं मिले। बाद में करुणानिधि से मिलने गए। तब द्रमुक ने जयललिता से उनकी भेंट पर नाराजगी भी जताई थी। इसके बाद तमिलनाडु कांग्रेस के नव-नियुक्त अध्यक्ष एस़ तिरुनवुक्करसार ने कहा, बीमार का हाल-चाल पूछना नेहरू परिवार की परंपरा है। 1984 में जब एम़ जी रामचंद्रन (एमजीआर) बीमार थे, तब इंदिरा गांधी उन्हें देखने आईं थीं। उन्होंने इलाज के लिए एमजीआर को अमेरिका भेजने के वास्ते विमान की व्यवस्था भी की थी। उनके निधन के बाद राजीव गांधी ने जयललिता की मदद की और वे राजनीति में वापस आईं।
तिरुनवुक्करसार पहले अन्नाद्रमुक से भी जुड़े रहे हैं। चिदंबरम खेमे के नेताओं से उनके अच्छे रिश्ते बताए जाते हैं। अन्नाद्रमुक के साथ रिश्ते बेहतर बनाने के मकसद से ही उन्हें लाया गया है। दोनों पार्टियों के बीच बेहतर रिश्ते बनाने की इच्छा शायद दोनों तरफ से थी। बीते साल विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ईवीकेएस इलंगोवन ने पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। माना जा रहा था कि पार्टी की हार पर उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नाराजगी जताई थी। लेकिन अब समझ में आता है कि कांग्रेस ने द्रमुक का साथ छोड़ जयललिता के साथ जाने का फैसला कर लिया था। कांग्रेस की दिलचस्पी सूबे की राजनीति में नहीं है। अन्नाद्रमुक के पास पर्याप्त बहुमत है और उसे कांग्रेस की जरूरत भी नहीं है। कांग्रेस की रणनीति भाजपा पर दबाव बनाने की थी, ताकि 2019 के लोकसभा चुनाव में हिसाब चुकता किया जा सके।
कहानी अभी जारी
शशिकला ने पलानीसामी को आगे जरूर किया है, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वे वैसे ही 'यस मैन' साबित होंगे, जैसे जयललिता के लिए पन्नीरसेल्वम थे? शशिकला पार्टी की अंतरिम महासचिव बन गई हैं, पर उन्हें खुलकर न तो नेतृत्व का मौका मिलेगा और न ही जनता के बीच 'अम्मा' जैसी लोकप्रियता। पलानीसामी से पहले जयललिता के भतीजे दीपक का नाम भी सामने आया था। दीपक की बहन दीपा भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जाहिर कर चुकी हैं। वे पन्नीरसेल्वम खेमे के साथ नजर आ रहीं हैं। साफ है कि कहानी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंची है। महासचिव बनने तक शशिकला के समक्ष कोई बाधा नहीं आई। पन्नीरसेल्वम ने चुनौती देकर पहली बाधा खड़ी की। फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पूरी कहानी बदल दी। सवाल यह है कि पन्नीरसेल्वम ने पहले इस्तीफा क्यों दिया? फिर अपना मन क्यों बदला? कौन है उनके पीछे? हालांकि जयललिता के निधन के बाद यह असमंजस पैदा हुआ है। पर उनका निधन नहीं भी हुआ होता और सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आता तो ऐसे सवाल जरूर खड़े होते। उनके निधन के समय तक पार्टी उनके उत्तराधिकारी के बारे में सोच भी नहीं पाई थी। फिर ऐसे शक्तिशाली नेता का उत्तराधिकारी खोजना आसान नहीं होता। ऐसे संगठनों में या तो नेता स्वयं उत्तराधिकारी को चुनते हैं या कोई नया नेता नेतृत्व को चुनौती देकर सामने आता है। शशिकला को लगता था कि वे जयललिता के साथ पुराने लगाव के बहाने जनता का समर्थन हासिल कर लेंगी। पर यह काफी मुश्किल काम है। अन्नाद्रमुक अपने सबसे कमजोर दौर में आ चुकी है। जयललिता को एमजीआर के सानिध्य का लाभ मिला था। दोनों परिस्थितियों में अंतर है। एमजीआर के सामने ही जयललिता राजनीति में सक्रिय हो गई थीं। फिर भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा। शशिकला को राजनीति में सक्रिय होने का मौका या तो मिला नहीं या जयललिता ने मौका नहीं दिया। उन्हें जयललिता की बेरुखी भी झेलनी पड़ी। उनके परिवार के सदस्यों के घर में प्रवेश पर रोक भी लगा दी थी। जयललिता के निधन के बाद उम्मीद की जा रही है कि पार्टी को हमदर्दी का लाभ मिलेगा, लेकिन तभी जब अन्नाद्रमुक बचेगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पार्टी के अस्तित्व का सवाल
शशिकला के परिवार की वापसी हो गई है। यह पूरी टीम है, जिसे 'मन्नारगुडी माफिया' कहा जाता है। क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इन्हें स्वीकार कर चुका है? या किसी स्तर पर आंतरिक द्वंद्व है? मान लिया कि शशिकला खेमा वरिष्ठ नेताओं को अपने पाले में लाने में सफल हो गया था। मुख्यमंत्री पद से पन्नीरसेल्वम के इस्तीफे और शशिकला के विधायक दल का नेता चुने जाने तक रास्ता आसान लगता था। लेकिन पन्नीरसेल्वम ने अपना मन बदल लिया। शशिकला के जेल जाने के बाद पार्टी के अंतर्विरोध खुलेंगे। देखना होगा कि पार्टी में कितनी धाराएं हैं। पार्टी मंे सबसे बड़ा पद महासचिव का है। एमजीआर और जयललिता के पास मुख्यमंत्री और महासचिव, दोनों पद थे। अब ऐसा कोई नेता नहीं है जिसे सर्वशक्तिमान कहा जाए।
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