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अपने साज मोहन वीणा के माध्यम से भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा में अपना विशिष्ट स्थान बना चुके विश्व मोहन भट्ट की ख्याति 90 देशों तक पहुंच चुकी है। संंगीत के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करने वाले विश्व मोहन जी कहते हैं, 'संगीत मेरे रक्त में है इसलिए मैंने इसे अपना पूरा जीवन समर्पित किया है'। हाल ही में भारत सरकार ने उन्हें पद़्म भूषण सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा की है। पाञ्चजन्य संवाददाता अश्वनी मिश्र ने उनसे बात की। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश:-
पद्मभूषण सम्मान मिलने पर आपकी पहली प्रतिक्रिया?
यह अपने आप में एक सम्मान की बात है, क्योंकि सरकार की ओर से जब कोई सम्मान मिलता है तो उसकी एक अहमियत होती है। मेरे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि मुझे इस पुरस्कार के लिए चुना गया। इससे मैं अपने को बड़ा उत्साहित महसूस कर रहा हूं।
इस बार पद्म सम्मान पाने वालों में कई असाधारण समाजसेवी हैं। इस बारे में क्या कहेंगे?
किसी भी सम्मान को देने की प्रक्रिया बहुत ही कठिन और पारदर्शी होती है। इसमें जो चयन होते हैं वे बहुत ही उच्च स्तरीय मानकों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। हां, यह सच है कि इस बार जिन्हें भी पुरस्कार मिला, वे वास्तव में इसके हकदार हैं। इसके लिए सरकार का धन्यवाद।
आपका वैसे तो आंध्र प्रदेश से संबंध रहा है, लेकिन जयपुर आ बसने के पीछे क्या वजह रही?
दरअसल, हमारे परिवार में कवि, संगीतकार, साहित्यकार और संस्कृत के पंडित हुआ करते थे तो जयपुर के महाराजा ने हमारे परिवार को यहां बुलाया और ससम्मान रखा। उनके द्वारा रहने के लिए स्थान एवं अन्य सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। सो हम यहीं के होकर रह गए।
आप संगीत के क्षेत्र में कैसे आए?
मेरे परिवार में पहले से ही संगीत की परंपरा रही है। मुझे मेरे मां-पिता से शिक्षा मिली। भाई का भी योगदान रहा। साथ ही जिनका विशेष आशीर्वाद रहा वे थे पंडित रविशंकर जी। इस तरह मुझे संगीतमय वातावरण मिला तो उसका जीवन पर प्रभाव पड़ना ही था। बस, संगीत की लौ लग गई।
मोहन वीणा कैसे अस्तित्व में आया? आपने कब सोचा कि इसको भारतीय संगीत का हिस्सा होना चाहिए?
देखिए, मैं सदैव से सोचता था कि एक ऐसा साज हो जो कुछ अलग हो। मेरा दिमाग हर वक्त नए पन की तलाश में रहता है। बचपन से ही मेरा स्वभाव प्रयोगात्मक रहा। दिमाग में रहता, कोई एक ऐसा साज बनाऊं जिसमें सितार, वीणा, संतूर, सारंगी और परंपरागत वाद्ययंत्रों की सारी विशेषताएं आ जाएं। तो इस लिहाज से मैंने सोचना शुरू किया और गिटार को लेकर प्रयोग करने शुरू किए। मैंने इसमें भारी फेरबदल करके 49 वर्ष पहले इसका भारतीयकरण करने का मानस बनाया था। इस यंत्र के चलते मुझे काफी प्रसिद्धि मिली और मैं इसको बनाकर काफी खुश हूं।
आम भारतीय का शास्त्रीय संगीत पर रुझान कम है। इसका क्या कारण है?
यह दुख की बात है। रही रुझान के कम होने की बात तो इसका श्रोता वर्ग अलग है। दरअसल इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि हमारे यहां संगीत को जितना बढ़ावा मिलना चाहिए उतना नहीं मिला है, क्योंकि यह आध्यात्मिक संगीत है, भक्ति प्रधान संगीत है। इसमें भगवान से लौ लगाने की क्षमता है। तो ऐसे में कितने लोग होंगे जो इस तरफ मुखातिब होंगे? क्योंकि उन्हें दूसरे तरह के अनेक मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं और उसमें ज्यादा रुचि भी होती है, इसमें कोई शक नहीं है। हालांकि इस संगीत की जड़ें बहुत मजबूत हैं। सुनने वाले कम जरूर हैं लेकिन जो हैं, वे टिकाऊ हैं।
आज संगीत की कई शैलियां उभर रही हैं। ऐसे में शास्त्रीय संगीत के अस्तित्व पर कोई खतरा तो नहीं देखते?
देखिए, कलाकार शुरुआत से ही प्रयोगधर्मी होता है। उसमें कुछ नया करने की चाहत हरदम रहती है। मैं भी इसी का एक हिस्सा हूं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो नई ध्वनि, नया संगीत इससे संगीत की विद्या समृद्ध होती है। आज आप जो शास्त्रीय संगीत देखते हैं, उसके रूप में काफी विकास हुआ है। वैसे तो यह 5,000 साल पुराना संगीत है लेकिन इस समय इसमें बदलाव के साथ इसका विकास हुआ है परंपरा के साथ। नई शैलियां उभरी हैं, कलाकर उभरे हैं, उन्होंने खुद की कल्पना से इसे परवान चढ़ाया है। हम लोगों को इसका कारण खोजना पड़ेगा। रही बात अस्तित्व की तो मीडिया का साथ हमारे साथ नहीं होता। अगर उसका भरपूर साथ मिल जाए तो काफी कुछ हो सकता है। मैं देखता हूं कि प्रिंट मीडिया में विभिन्न क्षेत्रों के लिए सभी पेज पूरी तरह से तय रहते हैं। लेकिन इन पेजों में कहीं भी कोई शास्त्रीय संगीत का पेज नहीं होता। किसी शास्त्रीय संगीतज्ञ की इतनी बड़ी तस्वीर हमने नहीं देखी जितनी एंजिला जॉली, जेनिफर लोपेज या क्रिकेटर विराट कोहली की देखते हैं। यही हाल कमोबेश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी है। सरकार की ओर से डीडी भारती है जो इस क्षेत्र के लिए कार्य कर रहा है। शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा मिले इसलिए कुछ अलग से चैनल होने चाहिए जो 24 घंटे की तर्ज पर इसे प्रसारित करते रहें। इसे देखकर सभी को प्रेरणा मिलेगी और रुझान बढ़ेगा।
चूंकि संगीत के क्षेत्र में जो गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही थी, वह लगभग समाप्त होती जा रही है। ऐसा क्यों?
हां, ये समस्या है। गुरु तो अच्छे-अच्छे हैं लेकिन गुरु के पास समय नहीं है क्योंकि वे अपने कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हैं। पर जो सीखने वाले होते हैं वे गुरु-शिष्य परंपरा के इतर भी सीख सकते हैं, क्योंकि जहां चाह होती है वहां राह हो ही जाती है। गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व हमारे यहां कम नहीं हो सकता। उसमें आवश्यक है कि इस तरह का जो एक वातावरण होता है गुरु के घर पर रहना और वहां संगीत सीखना, यह सब तो अच्छा है। लेकिन आज के दौर में यह संभव नहीं है कि शिष्य गुुरु के पास रहकर इसकी सेवा करके अपनी पूरी जिंदगी को इसमें झोंक दे। आज की पीढ़ी को पढ़ाई करनी पड़ती है, अपनी रोजी-रोटी की चिंता करनी पड़ती है एवं और भी पारिवारिक दायित्व निभाने होते हैं। ऐसे में गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन आज कठिन है।
आज संगीत का स्तर बराबर गिर रहा है। आपको ऐसा नहीं लगता कि कुछ लोगों ने इसे पेशा बना दिया है?
हां, कुछ हद तक तो ये बात ठीक है। इस क्षेत्र में मेरे पास जो विद्यार्थी नए आते हैं, उनको मैं यही कहता हूं कि आप शुरुआत से ये मानकर न चलें कि यह कमाई का जरिया बन जाएगा। पहले आपको स्थान बनाना पड़ेगा, शिक्षा पूरी करनी पड़ेगी। इसके बाद भी आप पैसा कमा सकते हैं। मैं आज की युवा पीढ़ी को देखता हूं कि वे सब कुछ छोड़कर संगीत सीखने के लिए घर पर आ गए। ऐसे में वे कहां रहेंगे, क्या खाएंगे, ये समस्या आ जाती है। इसे देखकर मुझे लगता है कि ये सब अधूरी पढ़ाई को छोड़कर आ गए हैं, उनको एक जुनून सवार हो गया है संगीत का। लेकिन व्यावहारिक बात है कि जीवन में बहुत सारी चीजों की आवश्यकता होती है, वे कहां से लाएंगे? जब तक हम से सहायता होती है, मैं करता हूं। इसलिए मैं कहता हूं कि पहले सक्षम बन जाओ, अपने आपको लायक बना लो, फिर संगीत जीवन के साथ चलता रहे तो अच्छा है।
आपके पोते का नाम मात्र 4 वर्ष की अवस्था में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज है। इस छोटी-सी उम्र में यह सब कैसे हुआ?
इसका श्रेय परिवार के वातावरण को जाता है। दरअसल संगीत हमारे खून में है। इसकी वजह भी यही है। मैं उसे बचपन से अपने पास बैठाकर संगीत सुनाता और सिखाता था। यह प्रथा हमारे परिवार में चली आ रही है। मेरे पुत्र भी संगीत में निपुण हैं। इसमें एक तो मोहन वीणा भी बजा रहा है।
आप 90 से ज्यादा देशों में प्रस्तुतियां दे चुके हैं। भारत और विश्व के दूसरे देश के श्रोताओं के बीच क्या अंतर नजर आता है?
कोई खास अंतर नहीं नजर आता। सुरताल अच्छा है तो उसे सब सुनते हैं। अच्छे सुरताल को किसी भी देश में सम्मान मिलता है। हां, एक बात जरूर है कि यहां के श्रोता सुरताल की बड़ी बारीकियां जानते हैं क्योंकि उन्होंने बड़े-बड़े संगीतकारों को सुना है। विदेशों में भी अच्छे श्रोता होते हैं और बड़े अनुभवी होते हैं। वहां खास चीज है अनुशासन। समय से पहले श्रोता आते हैं और बड़े शांत होकर सब सुनते हैं। जो कलाकार हैं, उनके बारे में पढ़ते हैं और जानने का प्रयास करते हैं। जैसे, ये कलाकार कौन हैं? क्या करते हैं? कौन-सा संगीत गाते हैं? संगीत को हम सुनने जा रहे हैं तो इसका आनंद हम अधिक से अधिक कैसे ले सकते हैं? और इस कलाकार की क्या उपलब्धि है? इन सब बातों के बारे में पहले वह तैयार होकर आते हैं। मुझे यह सब बहुत भाता है।
आज के युवा जो संगीत के क्षेत्र में आना चाहते हैं, उन्हें तीन बातें आप क्या कहना चाहेंगे?
देखिए, संगीत को अगर अपना भविष्य बनाना है तो फिर आपको सोचना पड़ेगा और तैयार हो जाइये कि इसमें पूरी जिंदगी लगने वाली है। और ये कोई 'शार्टकट' की चीज नहीं है। इसमें आपको लंबा जाना पड़ेगा और इसके लिए लंबी मेहनत करनी पड़ेगी। पहले तो आप अपनी पूरी जिंदगी समर्पित करने को तैयार हैं? दूसरी जो आपकी सांसारिक इच्छाएं हैं, उनके बारे में आपने क्या सोचा है? क्योंकि अगर परिवार रखना है तो परिवार की ओर ध्यान देना पड़ेगा और ऐसे में संगीत कैसे सीखेंगे, इस पर सोचना होगा? दूसरी, संगीत आत्मा की शुद्धिकरण का काम करता है। आप संगीत को अपनाएंगे तो आपके जीवन में एक नई खुशबू आएगी। तीसरी, युवाओं को अपने परिवार के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के पास 24 घंटे में एक बार कुछ समय के लिए पास बैठकर बातें करनी चाहिए। उनके अनुभव का लाभ लेना चाहिए। अपने परिवार के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहिए।
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