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पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 31
15 फरवरी ,1960
इतिहास के पन्नों से
ले. श्री बलराज मधोक
चीन की चुनौती के प्रकाश में भारत की सुरक्षा का प्रश्न ऐसा राष्ट्रीय प्रश्न बन गया है जिसके विषय में किसी दलगत भेदभाव की गुंजायश ही नहीं। इसके विषय में सोचने का एकाधिकार भारत सरकार को दिया जा सकता है। वास्तव में, भारत सरकार ने इस संबंध में अक्षम्य उदासीनता और लापरवाही दिखाई है। परंतु इसमें जनता का दोष भी कम नहीं। भारतीय जनता इस बात को भूल गई कि लोकतंत्र में शाश्वत जागरूकता ही व्यक्तिगत और सामूहिक स्वतंत्रता का आधार है। यदि जनता जागरूक हो तो लोकतंत्र में कोई भी सरकार हो, ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर जनता की भावनाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। जबसे भारतीय जनता और समाचार पत्रों ने भारत सरकार की चीन के प्रति दब्बू तथा तुष्टीकरण की नीति का विरोध करना शुरू किया है तभी से उसकी भाषा में तो कम से कम कुछ बदल आया ही है। जिस प्रकार की भाषा पं. नेहरू ने लद्दाख की घटना के पश्चात् बोली है उसकी उससे पहले उनसे कभी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। परंतु केवल उक्त भाषा बोल लेने से काम नहीं चलेगा। भारत को वर्तमान स्थिति के निर्माण करने वाले कारणों का ठीक ढंग से विश्लेषण करके उन्हें दूर करने और सुरक्षा की दृष्टि से रचनात्मक एवं यथार्थवादी नीतियों को अपनाना चाहिए। वास्तविकता से आंखें मूदने से काम नहीं चलेगा। जैसा कि स्वर्गीय सरदार पटेल कहा करते थे- ''वास्तविकताओं की अवहेलना नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा होने पर ये जल्दी या देर से अपना बदला अवश्य लेती हैं।''
इस संकट को बुलाने वाली पहली वास्तविकता जिसकी भारत ने अवहेलना की यह है कि तिब्बत की स्वतंत्रता और इसका भारत और चीन के बीच एक स्वतंत्र बफर रूप में बना रहना भारत की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। परंतु भारत ने तिब्बत को चीनी भेडि़यों का भक्ष बनते देखा और तिब्बत की सहायता के लिए चीख पुकार सुनकर भी इसने उसकी सहायता नहीं की। इतना ही नहीं वरन् भारत ने 1954 में तिब्बत पर चीन के प्रति अधिकार को मान्यता देकर मानो अपने हाथ स्वयं काट डाले। जैसा कि दलाईलामा ने जून 1959 में दिल्ली में अपने भाषण में कहा था भारत की उत्तरी सीमा, विशेष कर लद्दाख तथा मेकमोहन रेखा संबंधी संधि तिब्बत सरकार के साथ हुई थी। यदि अब भारत तिब्बत का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानता तो वह सब संधियां अपने आप खत्म हो जाती हैं और चीन को उनके संबंध में विवाद खड़े करने का अधिकार मिल जाता है। वही हो रहा है। भारत ने तिब्बत की स्वतंत्रता की रक्षा न करके एक ऐसी भूल की जिसका प्रायश्चित उसे करना ही पड़ेगा। भारत का अपनी सुरक्षा की दृष्टि से भी और मानवता और न्याय की दृष्टि से भी यह कर्तव्य है कि वह तिब्बत को पुन: स्वतंत्र करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए। संसार का जनमत तिब्बत पर होने वाले अत्याचारों के कारण जागृत हो चुका है। उसे और जागृत करने की आवश्यकता है। तिब्बत की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सभी न्यायप्रिय राष्ट्रों का संयुक्त मोर्चा बनाकर संयुक्त राष्ट्र संघ के बाहर और अंदर से संगठित प्रयास होना चाहिए।
बिहार सरकार द्वारा मंदिर का अपहरण
—दुर्गा चरण कर्ण—
सर्वप्रथम मार्च , 1934 ई. में मैं तिनटंगा पहाड़ी, कहलगांव, जिला भागलपुर ऋषि अष्टावक आश्रम देखने गया था। 25 वर्ष बाद जनवरी 1959 को भागलपुर से पुन: मैं कहलगांव गया। गांव के सबसे निकट की पहाड़ी पर हनुमान वाले बाबा के बदले अब कुलानंद तापस आश्रम है। उत्तरी पहाड़ी पर शांति बाबा का मंदिर पहले से अधिक सुरम्य बन गया है और दक्षिणी पहाड़ी पर संत ज्ञानेश्वर जी महाराज अपने शिष्यों के साथ रहते हैं।
संत ज्ञानेश्वर द्वारा पूजित तिनटंगा पहाड़ी के मंदिर में शिव गंगा के विग्रह और ग्रंथ साहेब पूज्य हैं। गंगा माता के गले का स्वर्ण हार और पूजा के पार्षदों को देखने से पता चलता है कि स्थान व्यवस्थित चल रहा है। विगत अक्तूबर में मुझे संयोगवश श्री संत ज्ञानेश्वर जी महाराज के दर्शन दीघा सती चौड़ा के निकट हुए। उन्हें मैं अपने यहां ले आया। बहुत बातें हुईं। उनसे जो कुछ पता लगा है वह एक अत्यंत हृदय-विदारक कहानी है। सभ्य, जनतांत्रिक जीवन चाहने वाले भारत के नागरिकों के सामने यथाकथित घटनावली को मैं रखना आवश्यक समझता हूं जिससे कि बिहार सरकार अविलंब इन बातों की उच्च न्यायालय के सम्मानीय न्यायाधीश द्वारा जांच करवाए-
1958 के प्रारम्भ में किसी मुसलमान ने यह मुकदमा किया कि पंजाबी बाबा भाई साधु ने तिनटंगा की मजार, जहां वह मजाविर की हैसियत से नित्य झाड़ू देता है, को तोड़कर तुरंत मंदिर बना दिया है। सरकारी जांच के सिलसिले में डी.एस.पी., नौगछिया भी वहां गए और 18-6-58 को उन्होंने रिपोर्ट दी कि पता लगता है- पहाड़ी पर बहुत पहले से मंदिर है-सर्वे में यह ठाकुरवाड़ी दर्ज है। भाई साधु संत जागेश्वर प्राय:15 वर्षों से रहते और पूजते आए हैं। मंदिर में हवनकुंड, शिवगंगा की मूर्ति आदि है। हाल में कुछ टूटा हो या बनाया गया हो-इसका कोई चिन्ह नहीं है।
ऋषि अष्टावक्र के आश्रम की दुर्दशा
भागलपुर के एस.डी.ओ. को इन बातों से संतोष न हुआ और साधु पर मुकदमा चला। 27 अप्रैल,1959 को साधु इसी मुकदमे के संबंध में कोर्ट में उपस्थित थे। वहीं उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। जेल में किसी को न मिलने दिया जाए, ऐसा आदेश दिया गया और साधु को किस अपराध में गिरफ्तार किया गया-यह खबर तक नहीं दी गई। 24 सितम्बर, 1959 को जेल में पांच महीना रहने के बाद, वहीं साधु को नोटिस मिली की बॉण्ड दें और वायदा करें कि अमन चैन तब तक कायम रखेंगे जब तक उस मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता है।
दिशाबोध-'प्रधान न्यायाधीश का चपरासी'
''स्व. भैयाजी दाणी एक उदाहरण दिया करते थे, जो मुझे सदैव स्मरण रहता है। वे कहा करते थे कि अंतत: चपरासी तो चपरासी ही होता है, कोई सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तो कोई किसी तहसीलदार का। शायद दोनों के वेष में थोड़ा-बहुत अन्तर होता हो, किंतु क्या उनकी श्रेणी में कोई अन्तर पड़ता है? दल का अध्यक्ष तो अध्यक्ष ही होता है और मंत्री एक मंत्री। वह भला अध्यक्ष के साथ अपनी भी डींग हांकता हुआ शोभायात्रा में कैसे बैठ सकता हैै? आपको मेरा सम्मान ही करना हो तो आप बस इतना ही कह सकते हैं कि यह प्रधान न्यायाधीश का चपरासी है। क्या आपने कहीं देखा है कि न्यायाधीश और उनका चपरासी साथ-साथ कुर्सी लगाकर विराजमान हुए हैं?'' —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 29) (कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें सम्मानित करने की जिद पर)
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