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श्रीराम अयोध्या से वनवास के लिए निकले तो सबसे पहले प्रयाग के पास शृंगवेरपुर में रुके थे। यहीं पर उन्होंने अपने वस्त्र, मुकुट आदि उतार कर सारथी सुमंत को देकर वापस अयोध्या भेजा था
प्रयाग से हरिमंगल
उत्तर प्रददेश की धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी प्रयाग अनादिकाल से देवताओं, ऋषियों और मुनियों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। इसे उनके यज्ञ, जप, तप, दान जैसे तमाम महत्वपूर्ण आयोजनों का साक्षी बनने का गौरव प्राप्त है। यही कारण है कि प्रयाग और उसके आसपास आज भी अनेक महत्वपूर्ण स्थल हैं, जहां हम अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक धरोहरों को देखकर, उनके बारे में जान कर या उनसे जुड़ी कथाओं को अनुभूत कर सकते हैं। इसलिए प्रयाग आ रहे हैं तो कम से कम दो दिन का समय लेकर आएं।
यात्रा की शुरुआत गंगा-यमुना के पावन संगम स्थल पर स्नान से करें। संगम और उसके आसपास मौजूद धरोहरों को देखने के बाद शृंगवेरपुर अवश्य जाएं। प्रयाग से 40 कि.मी. दूर लखनऊ मार्ग पर स्थित शृंगवेरपुर को महर्षि शृंगी की तपोभूमि एवं निषादराज गुह की राजधानी माना जाता है। लेकिन धर्म ग्रंथों में इसका महत्व प्रभु श्रीराम के वनवास प्रसंग से जुड़ा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार अपने पिता दशरथ की आज्ञा से वनवास के लिए चले श्रीराम ने पत्नी सीता और भाई लक्षमण के साथ पहला पड़ाव शृंगवेरपुर में किया, क्योंकि आगे गंगा नदी थी जिसे पार करके जंगल के रास्ते रथ को छोड़ कर पैदल यात्रा होनी थी। यहीं पर श्रीराम ने अपने वस्त्र, मुकुट आदि उतार कर सारथी सुमंत को देकर उन्हें वापस अयोध्या भेजा था। शृंगवेरपुर में गंगा नदी को पार करने के लिए श्रीराम ने निषाद राजा गुह से अनुरोध किया लेकिन वे पहले तैयार नहीं हुए। इसके लिए अलग-अलग ग्रंथों में कई कथाएं मिलती हैं, लेकिन सबका सार एक है कि निषादराज भगवान् श्रीराम का आशीर्वाद चाहते थे। इस कारण सभी लोगों को रात्रि शृंगवेरपुर में शीशम के वृक्ष के नीचे व्यतीत करनी पड़ी थी। निषादराज का अनुरोध जैसे ही स्वीकार हुआ, वह तैयार हो गए। गंगा पार कराने से पूर्व निषादराज ने प्रभु श्रीराम के पैर धोकर अपने नाव से गंगा पार कराई। जिस स्थान पर श्रीराम के पैरों को धोया गया था, वहां एक छोटा-सा प्रतीकात्मक मंंिदर है जिसके बाहर पैरों के निशान बने हैं। इस स्थान को रामचौरा के नाम से जाना जाता है।
शृंगवेरपुर की पुरातात्विक खुदाई में यहां शृंगी ऋषि का मंदिर सामने आया है। इस आधार पर कयास लगाए जाते हैं कि उन्हीं के नाम पर इसका नाम शृंगवेरपुर पड़ा होगा। धर्म ग्रंथों में वर्णन है कि शृंगी ऋषि ने ही राजा दशरथ के यहां पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया था जिसके बाद उन्हें पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई थी। राजा दशरथ पुत्र प्राप्ति से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती बेटी शांता का विवाह शृंगी ऋषि से कर दिया। शृंगवेरपुर में आज शांता माई का सुंदर मंदिर है। इस स्थल से पर्यटकों को जोड़ने के लिए प्रदेश सरकार ने राम वन गमन मार्ग को बनवाने की योजना तैयार की है।
शृंगवेरपुर आधुनिक चकाचौंध से दूर बहुत ही शांत स्थान है, जहां आप गंगा घाट पर बनी सीढ़ियों पर बैठ कर द्रुत गति से अविरल बहती गंगा को दूर तक निहार सकते हैं। शांत चित्त बैठ कर आप तुलसीदास के रामचरितमानस के अयोध्या कांड में यहां के संदर्भ में आए विभिन्न प्रंसगों को महसूस कर सकते हैं। यहां पहुंचने के लिए बस और ट्रेन दोनों की सुविधाएं हैं। टेÑन की तुलना में बस ज्यादा मात्रा में सुलभ है।
मुख्य मार्ग से शृंगवेरपुर तक पहुंचने के लिए दिनभर आॅटो उपलब्ध हैं। वैसे तो यहां कभी भी जाया जा सकता है लेकिन यदि इस मनोरम स्थल का देर तक आनंद उठाना चाहते हैं और भगवान् राम के जीवन चरित के साथ तादात्म्यता की अनुभूति करने के इच्छुक हैं तो नवंबर से फरवरी तक का मौसम सबसे बेहतर है।
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