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चीन/सत्ता पर एकाधिकार-5-चीनी दमन से कराहता तिब्बत

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Nov 20, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Nov 2017 11:11:11


बर्फ से ढंका तिब्बत पिछले सात दशक से चीन के अवैध कब्जे में है  और पीएलए के फौजी बूटों के नीचे दबा कराह रहा है।

प्रशांत बाजपेई
गतांक से जारी

मैंने देखा कि चीनी अधिकारी खुलेआम मेरे लोगों पर अत्याचार कर रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते जाते हैं कि वे कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। ये लोग बेहिचक झूठ बोलते हैं, और यही सब करते आए हैं। इससे भी बुरी बात यह कि बाहरी दुनिया भी उनकी बातों को सच समझती थी। सत्तर के दशक में कई पश्चिमी राजनयिक वहां (तिब्बत) ले जाए गए। उन्होंने भी लौटकर यही कहा कि सब ठीक चल रहा है। सच यह है कि तिब्बत में बीजिंग की नीतियों के कारण लाखों तिब्बती मारे जा चुके हैं।’ ये शब्द परम पावन दलाई लामा ने अपनी आत्मकथा ‘फ्रीडम इन एक्साइल’ में लिखे हैं। दलाई लामा ने अपनी किताब में चीनी अत्याचारों के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण प्रस्तुत किये हैं। तिब्बत की बंद दीवारों के पीछे से उठती चीखें आज भी अनसुनी हैं। और यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि तिब्बत सफलतम सेंसरशिप का उदाहरण है।
आधुनिक संसार में नृशंस सत्ताओं की बात करें तो नाजियों द्वारा यहूदियों का नरसंहार, स्टालिन द्वारा रूस में किया गया नरमेध, खमेर रूज, पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में किये गए अत्याचार आदि की बात निकलती है। लेकिन तिब्बत, जहां आज भी चीन ऐसे ही अत्याचार कर रहा है, इस सूची से प्राय: छूट जाता है। सन् 1965 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने तिब्बत को लेकर प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि चीनी शासन के चलते तिब्बत में ‘हत्या, बलात्कार, तथा बिना कारण बताए गिरफ्तारी और बड़े पैमाने पर तिब्बतियों का उत्पीड़न, क्रूरता और दुर्व्यवहार जारी हैं। लेकिन दुनिया की चिंताओं में तिब्बत शामिल नहीं है। बर्फ से ढका यह देश पिछले सात दशकों से चीन के अवैध कब्जे में है, और पीएलए के फौजी बूटों के नीचे दबा कराह रहा है।’’
लाल झंडा लिए खूनी दस्ते
विस्तारवाद की भूख के चलते चीन इतिहास को तोड़ता-मरोड़ता और मनचाहे नक्शे पेश करता आया है। सत्ता हथियाने के बाद माओ जेदांग ने तिब्बत को चीन का हिस्सा बतलाना शुरू किया और कुछ ही समय में लाल झंडे लिए खूनी दस्ते तिब्बत पर चढ़ आए। वास्तव में तिब्बत प्राचीनकाल से स्वतंत्र देश रहा है। यह कभी चीन का हिस्सा नहीं था। इसके उलट सातवीं से नौवीं सदी तक चीन के बड़े हिस्से पर तिब्बत का अधिकार जरूर रहा। इस दौरान तिब्बत के राजाओं ने अरब की नवनिर्मित इस्लामी खिलाफत को हिमालय के ऊपरी हिस्से (तिब्बत और चीन) में फैलने भी रोके रखा। सन् 1260 में मंगोल हमलावर कुबलाई खान (चंगेज खान का पोता) ने युआन वंश के साम्राज्य को फैलाया। लंबी खूनी लड़ाई के बाद उसने संपूर्ण चीन और बाद में तिब्बत पर अधिकार कर लिया। वह जापान, वियतनाम और यूरोप पर भी हमले करता रहा। इसी युआन साम्राज्य और चीन में रक्तपात करने वाले कुबलाई खान (और उसके दादा चंगेज खान) को माओ ने चीनी घोषित कर दिया, और इसी आधार पर तिब्बत को प्राचीन चीन का हिस्सा बतलाकर तिब्बत पर धावा बोल दिया। लालच था तिब्बत के खनिज, प्राकृतिक संपदा और मीठे पानी के अपार स्रोत ग्लेशियर, तथा तिब्बत की एशिया में महत्वपूर्ण सामरिक स्थिति। हमलावर चीनियों के सामने तिब्बत के रक्षक दस्ते संख्या में बहुत थोड़े थे। उनके पास हथियार भी पुराने थे। गोला-बारूद भी बहुत कम थी। चंद हजार असंगठित घुड़सवार सैनिक दशकों पुरानी बंदूकें और तीर कमान लिए चीन के एक लाख सैनिकों की आॅटोमैटिक राइफलों और तोपखाने के सामने थे। जल्दी ही उन्हें गाजर-मूली की तरह काट डाला गया। उसके बाद पूरे तिब्बत पर आतंक का कहर टूट पड़ा। लाखों तिब्बती नागरिक मार डाले गए। लामाओं, बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों को पीट-पीटकर मठों और स्तूपों से बाहर खदेड़ा गया, बहुतों को मार दिया गया। शेष को कारागार में ठूंस दिया गया। 6,000 मठ तोड़ डाले गए। तब से चीन ने तिब्बत में दमन और दहशत का राज कायम कर रखा है।
चंगेजखान के मानस पुत्र
सत्ता के लिए माओ और कम्युनिस्ट पार्टी ने चंगेज खान की विरासत पर ही दावा नहीं किया बल्कि उनके तौर-तरीकों को भी बेझिझक लागू किया। 1959 में इंटरनेशनल कमिशन आॅफ ज्युरिस्ट्स ने तिब्बत पर अपनी जांच रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट में चीनियों द्वारा तिब्बत में आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए किये जा रहे कारनामों को उजागर किया गया था। इसमें तिब्बतियों को सूली पर चढ़ाना, अंग-अंग काटकर मारना, पेट फाड़कर आंतें बाहर निकालना, छेदकर मारना, गर्दन काटना, अंगों को जलाना, पीट-पीटकर अपाहिज कर देना आदि शामिल हैं। इन यातनाओं के बीच, लोग दलाई लामा की जय न बोल सकें, इसलिए उनकी जीभें मांस काटने वाले चाकुओं से निकाल ली जाती थीं।
इस सारी दरिंदगी को अंजाम देने के बाद के बाद चीन के सरकारी समाचार पत्र तिब्बत के बारे में किस प्रकार की रिपोर्ट छापते थे, उसकी मिसाल दलाई लामा ने अपनी किताब में प्रस्तुत की है। उन्होंने लिखा, ‘‘उच्च वर्ग के प्रतिक्रियावादियों का फसाद (तिब्बत का स्वतंत्रता आदोलन) समाप्त कर दिया गया है। तिब्बत के देशभक्त (यानी चीन भक्त) भिक्षुओं और तिब्बत की जनता की सहायता से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीन की सेना) ने इसे पूरी तरह कुचल दिया है। यह इस कारण संभव हुआ कि तिब्बत की जनता बहुत देशभक्त (पढ़ें ‘चीन भक्त’) है, केंद्रीय सरकार (चीन की कम्युनिस्ट सरकार) का समर्थन करती है और (चीन की) सेना से बहुत प्यार करती है और साम्राज्यवादियों तथा देशद्रोहियों का विरोध करती है।’’
आज मानवाधिकार हनन के मामले में तिब्बत दुनिया के शीर्ष पर है। तिब्बती अपनी ही जमीन पर दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर जीने को बाध्य हैं। उन्हें पासपोर्ट नहीं दिए जाते। जब चाहे तब मकान या बस्ती खाली करने का फरमान सुना दिया जाता है। विद्रोह  करने पर जेल से लेकर गोली तक कुछ भी हासिल हो सकता है।
 आबादी का हथियार
आज तिब्बत में तिब्बतियों से ज्यादा चीनी रह रहे हैं। तिब्बत में चीन वंश के हान लोगों को बसाकर तिब्बत की पहचान को मिटा देने की योजना दशकों से क्रियान्वित की जा रही है। इसके दो चरण हैं। पहले, विरल आबादी वाले तिब्बत में भी एक बच्चा नीति को क्रूरतापूर्वक लागू करवाना, (इसके लिए जबरन स्त्री-पुरुषों की नसबंदी, गर्भपात और भ्रूणहत्या) फिर, विकास के नाम पर तिब्बतियों को उजाड़ना और विकास के ही नाम पर चीनियों को बसाना। तिब्बत में ‘विकास’ कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ चाइना का एक औजार है। इस बारे में दलाई लामा ने लिखा है, ‘‘चीनी नागरिकों को तिब्बत भेजकर बसाना चौथे जेनेवा कन्वेंशन के भी विरुद्ध है। इसका परिणाम यह हुआ है कि तिब्बत के पूर्वी भागों में तिब्बतियों से चीनियों की संख्या बहुत बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, किंघाई राज्य में जो आमदो का अंग है और जहां मेरा जन्म हुआ था, चीनी आंकड़ों के अनुसार, चीनियों की संख्या पच्चीस लाख तथा तिब्बतियों की केवल साढ़े सात लाख है और, हमारी जानकारी के अनुसार स्वशासित तिब्बत प्रदेश-अर्थात् केंद्रीय तथा पश्चिमी तिब्बत में भी तिब्बतियों की तुलना में चीनियों की संख्या अधिक हो गई है।’’
चीन की यह आबादी बढ़ाने की नीति नई नहीं है। उसने अन्य क्षेत्रों में भी इसका सुनियोजित ढंग से उपयोग किया है। कुछ ही समय पूर्व मंचू एक बिलकुल अलग प्रजाति थी, जिसकी संस्कृति तथा परंपरा उनकी अपनी थी। अब मंचूरिया में केवल 20 या 30 लाख ही मंचुरियाई रह गए हैं, जबकी चीनियों की संख्या साढ़े सात करोड़ हो गई है। पूर्वी तुर्किस्तान में, जिसे चीनी अब जिनजंग कहते हैं, सन् 1949 में 2 लाख चीनी थे, जो अब बढ़कर सत्तर लाख हो गए हैं, जो वहां की कुल जनसंख्या के आधे से अधिक है। इसी तरह अंदरूनी मंगोलिया का चीनी उपनिवेशीकरण हो जाने के बाद वहां चीनियों की संख्या 85 लाख तक जा पहुंची है, जबकी मंगोलियाई सिर्फ 25 लाख हैं। हमारा अनुमान है कि इस समय पूरे तिब्बत में 75 लाख चीनी हैं, जबकि तिब्बतियों की संख्या 60 लाख है इसी प्रकार तिब्बतियों के इलाके में  मुस्लिम आबादी को बसाने का काम भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
निरंतर सुलगता तिब्बत
तिब्बत में चीन के कब्जे के खिलाफ लगातार विरोध होता आया है, 87,000 चीन की सेना ने क्रूरता से कुचला है। साठ के दशक में तिब्बत के स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ चीनी सेना का एक दस्तावेज लगा था। जिसके अनुसार मार्च 1959 और सितम्बर 1960 के बीच सेना ने 87 हजार तिब्बतियों को मार डाला था। इसमें उन लोगों की गिनती शामिल नहीं है, जो उत्पीड़न, आत्महत्या और भुखमरी के कारण मारे गए थे।
अधर में भविष्य
चीन ने तिब्बत की संस्कृति, परम्पराओं और भाषा को भी मिटा डालने के लिए जोर लगाया हुआ है। तिब्बती छात्रों के ऊपर मंदारिन थोप दी गई है। इसके विरोध में छात्रों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन किये हैं। तिब्बतियों की पीड़ा मीडिया, आम साहित्य और फिल्मों से भी गायब है। और अब, जब फिल्में सारी दुनिया में रिलीज की जाती हैं, ऐसे में चीन के करोड़ों दर्शकों को नजरअंदाज कर पाना बड़े फिल्म निमार्ताओं के लिए बहुत बड़ी कीमत बन चुकी है। दलाई लामा ही आज तिब्बत की पीड़ा को मुखर करने वाले सबसे बड़े प्रवक्ता हैं। (भले ही चीनी प्रचारतंत्र उन्हें ‘साधु के वेश में भेड़िया’ कहता है) उनकी अन्तरराष्ट्रीय मान्यता है। लेकिन 82 वर्षीय दलाई लामा के पीछे कोई मंझोला कद भी दिखाई नहीं देता। दलाई लामा के बाद क्या होगा, यह प्रश्न हर तिब्बती के मन में है। दलाई लामा के मन में भी अवश्य होगा। तिब्बत की स्वतंत्रता अभी दूर की कौड़ी दिखती है। जब तक तानाशाह कम्युनिस्ट सत्ता का केंद्र बीजिंग मजबूत है, तब तक तो निश्चित ही। दलाई लामा की पंचसूत्री शांति योजना भी इसी ओर इंगित करती है। दलाई लामा के इस प्रस्ताव में मांग की      गई है।
1    तिब्बत के संपूर्ण क्षेत्र को शांति-क्षेत्र घोषित किया जाए।
2    चीनी जनता को तिब्बत में बसाने की नीति का परित्याग किया जाए।
3    तिब्बती जनता के मौलिक अधिकारों तथा लोकतंत्री स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए।
4    तिब्बत में पर्यावरण और संपदा की सुरक्षा की जाए। जो विध्वंस किया गया है, उसे पुनुर्स्थापित किया जाए। और आण्विक कचरा डालने के लिए तिब्बत का इस्तेमाल बंद हो।
5    तिब्बत के भविष्य संबंधी वार्ता गंभीरता से आरम्भ की जाएं और तिब्बत व चीनी जनता के संबंधों को बढ़ाया जाए।
दलाई लामा भी जानते हैं, और दुनियाभर की राजधानियों को भी यह एहसास है कि चीन से इतना-सा मांगना भी बहुत ज्यादा की मांग है।                       क्रमश:

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