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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 जनवरी ,1968 के अंक में प्रकाशित शहीद चंद्रशेखर आजाद के साथी रहे भगवान दास माहौर के आलेख की पहली कड़ी :-
भगवान दास माहौर
मर शहीद चंद्रशेखर आजाद में सभी प्रकार के मनुष्यों में उन्हीं जैसे बन जाने की, उनका स्नेह संपादन कर लेने की और फिर भी अपने विषय में किसी प्रकार का संदेह न होने देने की आश्चर्यजनक क्षमता थी। राजा साहब खनियाधाना और बुंदेलखंड के अलावा दो एक रियासती सरदारों के यहां उन्होंने अपने आपको उस परिवेश में जिस तरह ढाल लिया था और अपने विषय में किसी को कोई संदेह न होने दिया था, इससे इस प्रसंग की जानकारी रखने वाले दल के हम सभी साथियों को बहुत ही आश्चर्य हुआ था।
पिस्तौल व बंदूक प्राप्त करने की योजना
सन् 1928 के मार्च की बात है। खनियाधाना नरेश श्री खलकसिंह जू देव के यहां से दल के लिए कुछ पिस्तौलें और कारतूस प्राप्त किये जाने की योजना थी। राजा साहब अपने राष्ट्रीय विचारों के लिए प्रख्यात थे और खुल्लमखुल्ला खद्दर पहनते थे। झांसी के कतिपय प्रमुख कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से उनका अच्छा मेल-जोल था और वे उनकी मुक्त हस्त से आर्थिक सहायता करते रहते थे। इनमें झांसी के मास्टर रुद्रनारायण सिंह का प्रमुख स्थान था। संभवत: यह मास्टर साहब का ही सुझाव था कि खनियाधाना से पिस्तौलें, कारतूस आदि प्राप्त किए जाएं। एतदर्थ राजा साहब के यहां मुझे रखे जाने का निश्चय किया गया। मैं ठेठ बुंदेलखंडी था और मेरा बचपन दतिया राज्य के अंतर्गत बड़ौनी जागीर के सरदारों के यहां खेलने में बीता था। अत: मुझे बुंदेलखंड के सामंती जीवन से परिचित समझा गया और फिर राजा साहब की उच्च साहित्यिक और संगीत की रुचि को देखते हुए उनके यहां रहने के लिए संभवत: मुझे ही इसलिए उपयुक्त समझा गया कि दल के सदस्यों में साहित्य और संगीत की कुछ थोड़ी सुधबुध मुझ में ही समझी गई थी। दतिया में एक सरदार के यहां रहते हुए आजाद ने हम झांसी में दल के सदस्यों को बंदूक चलाने आदि की शिक्षा की व्यवस्था की थी, उसका लाभ उठाने का सौभाग्य मुझे मिल चुका था। अत: मास्टर साहब राजा साहब के यहां कुछ दिनों मेरे रहने का प्रबंध कर आए। उस समय मेरी जानकारी में मुझे राजा साहब के यहां इसीलिए रखा गया था कि मैं शिकार आदि में सम्मिलित होकर बंदूक चलाने का अच्छा अभ्यास कर लूं। पिस्तौलें आदि प्राप्त करने की जानकारी मुझे उस समय नहीं दी गई थी। वह तो आजाद, मास्टर साहब और संभवत: झांसी में दल के वरिष्ठ साथी सदाशिवराव मलकापुरकर को ही थी। मुझे क्या करना है यह तो समय पर ही मुझे बताया जाना था।
दल के लिए माउजर पिस्तोल भी
राजा साहब के यहां रहते मुझे कुछ दिन हो गये थे और राजा साहब तथा उनके खास नजदीकी लोगों का मेरे प्रति वात्सल्ययुक्त सद्भाव हो गया था। राजा साहब ने एक माउजर पिस्तौल, एक बेवल स्काट रिवाल्वर और उनके कई सौ कारतूस मंगवाए। परंतु प्रश्न यह था कि उनको वहां से लाया किस प्रकार जाए। सरकार के यहां यह तो नोट हो ही चुका होगा कि राजा साहब ने अमुक नंबर की पिस्तौल आदि खरीदी हैं। सरकार की उन पर उनके खद्दरधारी और राष्ट्रीय विचारों के होने के नाते शंका की दृष्टि थी ही। अत: राजा साहब पर सरकार की शंका बढ़ाए बिना और उनको किसी प्रकार के संकट में डाले बिना पिस्तौलें और कारतूस प्राप्त कर लेना एक समस्या ही थी। राजा साहब को इस संबंध में किसी प्रकार के धोखे में नहीं रखा गया था। राजा साहब ने जानबूझकर दल के लिए ही ये पिस्तौलें आदि खरीदी थीं। इसमें राजा साहब के लिए जोखिम बहुत था। यह तो स्पष्ट ही था कि राजा साहब के निकट के लोगों में कुछ सरकारी गुर्गे होंगे ही। राज्य के दीवान श्री प्रभुदयाल की इस संबंध में चौकस नजर होना स्वाभाविक ही था। राजा साहब के एक रिश्ते से भाई लगने वाले एक व्यक्ति पर भी इस विषय में संदेह था और इसीलिए इन भाई साहब के साथ आवश्यक रूप से अच्छा व्यवहार किया ही जाता था। सोचा जा रहा था कि पिस्तौलें आदि के कहीं खो जाने या असावधानी से नदी में कहीं गिर जाने आदि का बहाना किया जा सकता है।
चंद्रशेखर आजाद निरे उत्साह से कोई काम कभी नहीं करते थे। उनमें किसी काम की परिस्थितियों और उसके परिणाम को समझ लेने की समझ क्या, सूंघ लेने की विलक्षण विशेषता थी। जब पिस्तौल, कारतूस आदि राजा साहब के यहां से ले जाने की बात आई तो स्वभावत: ही आजाद ने परिस्थिति का स्वयं निरीक्षण करना चाहा। इधर राजा साहब भी क्रांतिकारी दल के महान सेनानी चंद्रशेखर आजाद से मिलने की अपनी इच्छा का संवरण नहीं कर पा रहे थे। अत: यह निश्चित हुआ कि आजाद बसई जा कर राजा साहब से मिलेंगे। राजा साहब उन दिनों बसई ग्राम में ही अपनी कोठी में अपने अनेक मुसाहबों के साथ रह रहे थे।
आजाद आये
मैं वहां पहले से था ही और राजा साहब की शिकार पार्टियों में भाग्य से दो एक अच्छे निशाने मेरे हाथ से लग गये थे और राजा साहब की साहित्य गोठियों में भी मैं अपने मामा झांसी के कविवर नाथूराम माहौर की कुछ कविताएं पक्के रागों में बांधकर सुनाने से कुछ सद्भाव प्राप्त कर चुका था। सवेरे का वक्त था, राजा साहब की एक ऐसी ही अनौपचारिक गोष्ठी कोठी के बगीचे में आम के पेड़ के नीचे जमी हुई थी। चाय-नाश्ते का इंतजार हो रहा था। मुझे इस बात की कोई पूर्वसूचना नहीं थी कि आज चंद्रशेखर आजाद राजा साहब से मिलने आने वाले हैं। अत: जब मैंने बगीचे के दरवाजे से मास्टर रुद्रनारायण के साथ आजाद और सदाशिव जी को प्रवेश करते देखा तो आश्चर्य और संभ्रम से मैं उठ कर खड़ा हो गया। संभ्रम में मुझे उठ खड़ा देख और लोगों को भी लग ही सकता था कि कोई विशेष व्यक्ति आ रहा है। राजा साहब ने जो मुड़ कर देखा तो वे भी आदर और संभ्रम से उठ खड़े हुए। शायद उन्हें यह पहले से ज्ञात था कि चंद्रशेखर आजाद उनसे मिलने आने वाले हैं, परंतु वे उसी दिन उसी समय आने वाले हैं, यह उनको भी नहीं ही बताया गया होगा। तो भी उन्होंने समझ लिया कि ये चंद्रशेखर आजाद ही हैं और उन्होंने बड़े ही आदर से आजाद की अगवानी की। इससे भी लोगों का कौतुहल जागृत होना स्वाभाविक था। राजा साहब ने आजाद को मेज पर अपने पास ही बैठाया। मेरी जान में जान आई क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैंने यह प्रदर्शित करके कि, मैं आजाद को पहले से जानता हूं, ठीक नहीं किया था और इसके लिए मुझे आजाद की डांट खानी पड़ेगी। मगर जब राजा साहब ने ही आजाद का इतना समादर किया तो मुझे लगा कि मेरे व्यवहार की त्रुटि छिप गई है। फिर तो आजाद ने भी यह प्रयास नहीं किया कि वे यह दिखाएं कि वे मुझे पहले से नहीं जानते हैं।
निशानेबाजी के अनुभव
राजा साहब तो आजाद से मिलने के हर्ष से अभिभूत ही हो रहे थे। यह स्थिति आजाद के लिए कुछ विषम अवश्य हो रही थी, वे यह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि लोग उनके प्रति विशेष रूप में आकृष्ट हों। परंतु क्या किया जाता, राजा साहब ने उनका अपने भाई से भी बढ़कर आदर किया। आजाद के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अब वहां के अन्य लोगों की दृष्टि में राजा साहब के सम्मान्य मित्र के अनुरूप ही अपना आचरण रखें। राजा साहब और आजाद ने एक ही मेज पर चाय पी और नाश्ता किया और फिर ठकुराई-दरबारी बातचीत का दौर चलने लगा। निशानेबाजी की ठकुराई ठसक की लच्छेदार बातें होने लगीं। आजाद को भी इसमें योग देना आवश्यक हो गया। राजा साहब के सम्मान्य अच्छे निशानेबाज मित्र की भूमिका उन्हें निभानी पड़ी। (क्रमश:)
मद्रास के क्रांतिकारी की जेब से प्राप्त एक पर्चा
प्रत्येक भारतीय स्वराज्य और सनातन धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए अंग्रेजों को यहां से निकालना चाहता है। जिस देश पर राम, कृष्ण, अर्जुन, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह सरीखों का राज्य था, उसी पर एक गोमांस-भक्षी जार्ज पंचम का राज्य है, यह कितने शर्म की बात है? तीन हजार मद्रासी यह प्रतिज्ञा कर चुके हैं, अर्थात उन्होंने जार्ज पंचम को मारने की प्रतिज्ञा की है।
(यह पर्चा 17 जून 1911 को श्री वंची अय्यर की जेब से मिला था, जिन्हें टिनेवली के अंग्रेज मजिस्ट्रेट मि. ऐश को गोली मारने पर फांसी दी गई।)
पेड़ों पर लाशें लटकी थीं…
इलाहाबाद में जो सैनिक शासन स्थापित हुआ, वह अमानुषिक था, उसकी तुलना पूर्व अत्याचारों से स्वप्न में भी नहीं हो सकती… इसकी किसी को चिंता नहीं थी कि लालकुर्ती वाले सिपाही किसको मार रहे हैं! निरपराध अथवा अभियुक्त, क्रांतिकारी अथवा राजभक्त, भलाई चाहने वाला अथवा विश्वासघाती—प्रतिशोध की लहर में सब एक ही घाट उतारे गये।
…लगभग 6000 मनुष्यों की हत्या की गई। पेड़ों की प्रत्येक डाल पर उनकी 2 या 3-3 लाशें लटकी हुई थीं। 3 मास तक लगातार, प्रात:काल से संध्या तक 8 बैलगाडि़यां वृक्षों और खंभों से लाशें उतारकर ले जाती थीं और उन्हें गंगा में बहा देती थीं…।
(के—रचित 'हिस्ट्री ऑफ द सिपाय वार इन इंडिया', पृष्ठ 668 तथा भोलानाथ चंदर रचित 'टे्रवेल्स ऑफ ए हिंदू', पृष्ठ 270 से)
टिनेवली गोली कांड में बरामद दूसरा पच
'ईश्वर के नाम पर प्रतिज्ञा करो कि तुम अपने देश से फिरंगी के पाप को दूर करोगे, और स्वराज्य कायम करोगे। यह प्रतिज्ञा करो कि जब तक भारतवर्ष में फिरंगियों का राज है तब तक अपने जीवन को व्यर्थ समझोगे। जैसे तुम कुत्ते को मारते हो, उसी प्रकार तुम फिरंगी का वध करो, तुम यदि छुरी पाओ तो उसी से मारो, यदि कुछ भी न मिले तो ईश्वर के लिए हाथ से ही उसे मारो।' (भा.क्रां.आं. इति. से साभार)
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