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लगातार चिकोटियां काटने वाला अपनी शरारत पर भले ही मंद-मंद मुस्कुराता रहे, लेकिन अपनी हरकत में वह इतना खो जाता है कि उसे यह याद ही नहीं रहता कि कोई एक सीमा तक ही बर्दाश्त कर सकता है। सीमा पार होने पर वह प्रतिक्रिया करता है जिससे शरारत करने वाले की आंखें खुल जाती हैं।
खामोशी और खुनक में नाहक बढ़ते झगड़े को सुलटाने का यह त्रिस्तरीय रूप से प्रभावी फार्मूला बच्चों तक को पता होता है परंतु पाकिस्तान यह बात भूल गया।
उरी हमला सिर्फ हमला नहीं था बल्कि आतंकी हमलों की परेशान करती चिकोटियों की कड़ी में एक और चिकोटी थी…ऐसी घटना जिसने भारत की सहनशक्ति को छलका दिया।
आतंकी मोहरों के जरिए उरी में ब्रिगेड मुख्यालय को निशाना बनाने की चाल इस बार ऐसी उलटी पड़ेगी, पाकिस्तान ने कभी नहीं सोचा था।
नेहरू जी के जमाने वाली, भारत के लिए सदा अन्यायकारी रही सिन्धु जल संधि को विसर्जित करने की बात भी भारत सोच सकता है, इस बात ने पाकिस्तान के भीतर चिंता की लहरें उठा दी हैं।
संयुक्तराष्ट्र महासभा में कश्मीर और मानवाधिकारों के 'हक' में लहराया पर्चा आतंक के पक्ष में खड़े राष्ट्र के हलफनामे में बदल गया। इस बात से पाकिस्तानी कूटनीतिक गलियारों में मातम पसर गया है।
निस्संदेह उरी जैसे हमले में भारतीय पक्ष की ओर से भी सुरक्षा चूक रही होगी। इसकी समीक्षा जरूरी है। लेकिन, बुरहान वानी जैसे आतंकी कमांडर का नाम विश्वमंच पर लेते हुए दानवों के लिए मानवाधिकार की मांग करता पाकिस्तान खुद को किन से अलग-थलग करना चाहता है और किससे जोड़ना चाहता है?
भारत के लिए पाकिस्तान के विशेष संदर्भ में यह आर्थिक, राजनैतिक, कूटनीतिक और सामरिक पहलुओं पर समग्रता से सोचने और अमल करने का वक्त है। सिंधु जल संधि, सर्वाधिक वरीय राष्ट्र का दर्जा, पाकिस्तानी बंधक कश्मीर सभी समस्याओं की समीक्षा और इनके समग्र हल के लिए ऐसी रणनीति जिसमें संयम और साहस का संतुलन और समन्वय तो हो ही, प्रश्नों के सटीक जवाब भी हों।
दरअसल, उरी एक घटना है, मुद्दा नहीं है। मुद्दा जम्मू-कश्मीर भी नहीं है। जी हां, जम्मू-कश्मीर भी नहीं बल्कि मुद्दा वहाबी उन्माद की उस जहरीली खेती का है जिसके जरिए एक इस्लामी राष्ट्र अपने काफिर पड़ोसी के घर-आंगन को तबाह करना चाहता है। भारत से उलझने, ऐसे पड़ोसी के लिए षड्यंत्र के फंदे तैयार करने को पाकिस्तान सबाब का काम समझता है।
जिस मुस्लिम द्विराष्ट्रवाद को आधार बनाकर पाकिस्तान की नींव रखी गई थी, वह इस्लामी चश्मा ही उसे भविष्य की ओर देखने की बजाए अंधा बनाए डाल रहा है!
खुद अपने लिए मौजूद खतरे से आंखें मूंदे, दूसरों को डराता कोई पागल। पाकिस्तान की स्थिति आज कुछ ऐसी ही है।
जो देश चंदे और जकात की आड़ में विध्वंसक हथियारों का जखीरा जमा करती जमातों से आंखें मूंदे बैठा हो, जो लोकतंत्र को जनरलों और कठमुल्लों के हितों का खेल बना दे, जिस देश को यह छोटी-सी बात समझ न आए कि मुसलमानों के अलावा अन्य नागरिक भी इंसान होते हैं, उस देश के होने, न होने का प्रगतिशील दुनिया के लिए क्या मतलब है?
विडंबना यह है कि 'आतंक की पौधशाला' और 'जिहाद निर्यातक' के जो ठप्पे आज पाकिस्तान पर चस्पां हैं, उन्हें भी वह पदक की तरह देखता है और अकेले में मुस्कराता है।
उरी के हमले पर, वानी की कहानी पर, सिंधु के पानी पर…पागलपन भरा हंसना-मुस्कराना बहुत हो चुका। बहुत हो चुकीं चिकोटियां, अब सीधी और खरी बात पर आने का वक्त है जो एक कुंद दिमाग को खोलने के लिए जरूरी होता है।
किसी संप्रभु, समझदार देश से वार्ता की शैली और पागलपन के इलाज के तरीके में फर्क होता है। यह बात समझने में भारत को भले सत्तर साल लगे परंतु उरी हमले के बाद संवेदनशील हद तक परिवर्तित घटनाक्रम बता रहा है कि भारत ने इस फर्क को समझ लिया है।
भारत में फैलते जनाक्रोश को थामने के लिए और उन्माद में झूमते पाकिस्तान पर लगाम कसने के लिए इस अंतर को समझना और चीजें ठीक करना जरूरी है।
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