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लालू-राबड़ी राज को जंगलराज बनाने में शहाबुद्दीन की बड़ी भूमिका रही थी। हत्या के कई मामलों में दोषी ठहराए गए बाहुबली शहाबुद्दीन पर लालू यादव की 'कृपा' वर्षों से बरसती रही है। इस बार शहाबुद्दीन को जमानत यूं ही नहीं मिली है। वहीं यह रिहाई लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच दरार पैदा कर सकती है। नीतीश को डर है कि कहीं इससे उनकी 'सुशासन' बाबू की छवि खराब न हो जाए
अवधेश कुमार
यह मानने में कोई समस्या नहीं है कि मुहम्मद शहाबुद्दीन की जमानत सामान्य घटना नहीं है। कायदे से उन पर तेजाब से जलाकर दो राज भाइयों को मरवाने तथा उसके चश्मदीद गवाह की हत्या करने का जो आरोप है, उसमें जमानत मिलने का कोई कानूनी आधार होना ही नहीं चाहिए। लेकिन जब सरकारी पक्ष इस मामले में ट्रायल कोर्ट में मुकदमा ही आरंभ नहीं करेगा तो फिर उच्च न्यायालय के सामने उन्हें जमानत पर छोड़ने के अलावा क्या चारा बचता है। इतना ही नहीं, जब सरकारी वकील उच्च न्यायालय में यह दलील भी नहीं देंगे कि शहाबुद्दीन के रिहा होने से मामला प्रभावित हो सकता है, उनके सारे आपराधिक रिकॉर्ड को सामने नहीं रखेंगे तो फिर जमानत होगी ही। लेकिन बिहार और देश के लोग इस जमानत पर भौचक हैं। सामान्यत: यह उम्मीद नहीं की जा रही थी कि शहाबुद्दीन जेल से रिहा होंगे। एक व्यक्ति, जिस पर करीब 63 मामले दर्ज हों, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, सरकारी अधिकारियांें पर हमला, बड़े हथियार अवैध तरीके से रखने, संपत्ति पर कब्जा, भयादोहन आदि सभी प्रकार के जघन्य अपराध शामिल हों, उसका किसी कानून के राज में जेल से बाहर होना उस राज व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह है।
तो फिर ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर तलाशने के लिए कहीं स्वर्ग में सीढ़ी लगाने का यत्न करने की जरूरत नहीं। जिस व्यक्ति से जेल में मिलने राष्ट्रीय जनता दल के मंत्री और विधायक जा रहे हों, जिसे जेल में रहते ही राष्ट्रीय जनता दल की कार्यकारिणी का सदस्य बना दिया जाता हो, उसके खिलाफ पुलिस और नागरिक प्रशासन पहले की तरह सख्ती से कार्रवाई नहीं कर सकता। पुलिस और प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व के इशारे पर काम करता है। राष्ट्रीय जनता दल नीतीश सरकार में सबसे बड़ा साझेदार है। इस पार्टी के नेता लालू यादव के सुपुत्र उप मुख्यमंत्री हैं। अगर वह पार्टी शहाबुद्दीन के साथ है तो फिर कोई सामान्य अधिकारी उनके खिलाफ कार्रवाई का साहस नहीं कर सकता। यह संभव है कि राजद के मंत्री, या स्वयं लालू प्रसाद की ओर से उनकी जमानत का विरोध न करने का अनौपचारिक निर्देश दिया गया हो। बिहार में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री अवश्य हैं, लेकिन अधिकारियों का तांता लालू के घर पर लगा रहता है। कहने का तात्पर्य यह कि शहाबुद्दीन की जेल से रिहाई राजद के जद (यू) के साथ सत्ता में आने के साथ ही सुनिश्चित हो गई थी।
देशभर में हो रही आलोचनाओं के दबाव में नीतीश सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शहाबुद्दीन की जमानत के विरोध में अपील की है। हालांकि वे न करते तब भी अपील उच्चतम न्यायालय में जानी ही थी। प्रशांत भूषण की ओर से एक अपील दायर की गई है। यहां प्रश्न है कि क्या नीतीश द्वारा अपील दायर करवाना लालू, उनके सुपुत्रों तथा राष्ट्रीय जनता दल को रास आ रहा होगा? आखिर शहाबुद्दीन की जमानत के बाद गाडि़यों का जो काफिला भागलपुर से सीवान तक आया, उसमें ज्यादातर नेता-कार्यकर्ता राजद के थे। हां, जद (यू) के भी थे, पर कम थे। तो जो पार्टी उनकी जमानत पर उत्सव मना रही हो वह उनकी जमानत के खिलाफ याचिका को कैसे पचा सकती है? याचिका का छिटपुट विरोध आरंभ भी हो चुका है। कल्पना करिए यदि शहाबुद्दीन की जमानत चायिका रद्द हो जाती है यानी उन्हें फिर जेल जाना पड़ता है तो राजद की क्या प्रतिक्रिया होगी! कम से कम पार्टी इसे आसानी से तो स्वीकार नहीं कर पाएगी। ध्यान रखिए, जब शहाबुद्दीन ने जेल से बाहर निकलने के बाद लालू यादव को अपना नेता बताया तथा कहा कि नीतीश कुमार तो परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं, क्योंकि हमारी पार्टी ने इस पद पर दावा नहीं किया तो इसका राजद ने स्वागत किया। स्वयं लालू यादव ने कहा कि इसमें गलत क्या है? उन्होंने यहां तक कहा कि इसमें नीतीश जी को भी बुरा नहीं मानना चाहिए। इस प्रकरण का राजनीतिक अर्थ आप अपने अनुसार निकालिए।
लालू यादव ने परिस्थितियों से विवश होकर नीतीश कुमार के साथ राजनीतिक समझौता किया है। यह समझौता दिल का नहीं है। इसमें ईमानदारी और निष्ठा होने का तो प्रश्न ही नहीं है। वे सजायाफ्ता हैं, उन पर भ्रष्टाचार का आरोप साबित हो चुका है। जब तक बड़ी अदालत उन्हें दोषमुक्त नहीं करती, तब तक उनके लिए चुनाव लड़ना संभव नहंीं, उनके बेटे अभी राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं। इसलिए उन्होंने अवसरवादी गठबंधन कर लिया। उनका लक्ष्य एक समय नीतीश से अलग होकर अपनी पार्टी की सरकार बनाने की कोशिश करना है जिसमें वे नहीं तो उनका बेटा मुख्यमंत्री हो और वे पीछे से शासन चला सकें जैसे अभी भी कर रहे हैं। चंूंकि अभी पूरी सरकार उनकी नहीं है, इसलिए उनकी भूमिका आंशिक ही है। इस लक्ष्य के लिए उन्हें शहाबुद्दीन जैसे लोगों का साथ चाहिए जो भय पैदा करके चुनाव जिता सके तथा जिसके मुसलमान होने का पूरा लाभ उन्हें मिल सके।
लालू यादव के द्वारा शहाबुद्दीन को उनके आरंभिक काल से ही खुलेआम राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है। यह एक प्रकट तथ्य है। इसमें कोई किंतु परंतु नहीं। कुछ उदाहरण लीजिए। 1996 में लोकसभा चुनाव के दिन एक मतदान केन्द्र पर गड़बड़ी फैलाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार करने निकले तत्कालीन पुलिस अधीक्षक एस.के. सिंघल पर गोलियां चलाई गईं। आरोप था कि खुद शहाबुद्दीन ने गोलियां दागीं और सिंघल को जान बचाकर भागना पड़ा। इस कांड में हालांकि शहाबुद्दीन को दस वर्ष की सजा हो चुकी है। लेकिन यह जदयू-भाजपा शासनकाल में हुआ। जब यह घटना हुई तब उनके खिलाफ कार्रवाई करना असंभव हो गया था। तत्कालीन प्रदेश पुलिस प्रमुख डी.पी. ओझा ने शहाबुद्दीन पर कार्रवाई करने की ठानी तो उनकी सरकार से भी ठन गई। ओझा ने शहाबुद्दीन पर मुन्ना चौधरी अपहरण कांड में गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। ओझा को जो भुगतना पड़ा, वह देश के सामने है। शहाबुद्दीन को इस मामले में 13 अगस्त, 2003 को मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के न्यायालय में आत्मसमर्पण करना पड़ा था। तब शहाबुद्दीन लालू से नाराज हो गए थे। उन्हें जेल से अलग सदर अस्पताल में रखा गया था। शहाबुद्दीन ने बयान दिया कि उन्होंने राजद से नाता तोड़ लिया है। लालू यादव सीवान सदर अस्पताल में शहाबुद्दीन से मिलने गए। इसके बाद शहाबुद्दीन ने पार्टी छोड़ने से इनकार कर दिया। लालू ने कहा कि सीवान का सांसद मेरा छोटा भाई है, मिलने आया था। पुलिस प्रमुख डी.पी. ओझा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने कहा कि ओझा का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। सरकार बदलने के बाद भी लालू शहाबुद्दीन से मिलने जेल के अंदर गए थे। 16 मार्च, 2001 को राजद के एक नेता के खिलाफ एक वारंट पर गिरफ्तारी करने आए पुलिस अधिकारी संजीव कुमार को शहाबुद्दीन ने थप्पड़ मार दिया था। उनके सहयोगियों ने पुलिस वालों की जमकर पिटाई कर दी। इससे गुस्साई पुलिस शहाबुद्दीन पर कार्रवाई करने उनके गांव प्रतापपुर पहुंची और उनके घर पर छापेमारी की। पुलिस की उम्मीदों के विपरीत शहाबुद्दीन समर्थकांे की ओर से गोलीबारी आरंभ हो गई। दोनों ओर से करीब तीन घंटे तक गोलीबारी हुई जिसमें आठ लोग मारे गए। पुलिस को खाली हाथ बैरंग लौटना पड़ा। लालू सात दिन बाद शहाबुद्दीन के गांव पहुंचे और सभी मामलों को सीआईडी कंट्रोल के हवाले कर दिया। तत्काल प्रभाव से सीवान के पुलिस अधीक्षक बच्चू सिंह मीणा एवं जिलाधिकारी रसीद अहमद खां का तबादला कर दिया। क्या यह सामान्य बात है कि इस संगीन वारदात के बाद भी शहाबुद्दीन के खिलाफ कोई मजबूत मामला नहीं बनाया जा सका?
तो अपराध करते हुए शहाबुद्दीन को लालू का सरेआम समर्थन व संरक्षण रहा है। नीतीश के साथ आने से यह खत्म नहीं हो सकता। वह भी इस परिस्थिति में जब लालू को शहाबुद्दीन जैसों की जरूरत महसूस हो रही है। शहाबुद्दीन के अपराधों की गाथा इतनी लंबी है कि उस पर मोटी पुस्तक बन जाए। उस गाथा में लालू के समर्थन और संरक्षण के अध्याय भरे पड़े हैं। उसे हटा दें तो फिर शहाबुद्दीन का कोई वजूद ही नहीं बचता। जैसा ऊपर कहा गया, जिस मामले में अभी उनकी जमानत हुई है, उसे तेजाब कांड के नाम से जाना जाता है। 2004 में सीवान में दो भाइयों, गिरीश राज और सतीश राज की हत्या तेजाब से जलाकर कर दी गई थी। सीवान के व्यवसायी चंद्रकेश्वर प्रसाद उर्फ चंदा बाबू के दो बेटों गिरीश राज और सतीश राज का अपहरण हुआ था। बाद में उनके तेजाब से जले हुए शव मिले थे। इसका आरोप शहाबुद्दीन पर लगा और पूरे सीवान में लोगों को पता था कि ये नृशंस हत्याएं किसके कहने पर हुई हैं। उनका तीसरा बेटा राजीव रोशन इस मामले में गवाह था। उसकी दो वर्ष पहले गोली मारकर हत्या कर दी गई। शहाबुद्दीन के जेल में रहते हत्या हुई। इस दौरान और भी हत्याएं हुईं और वे सारे लोग किसी न किसी तरह शहाबुद्दीन के मुकदमों से संबंधित थे। इसी वर्ष मई में पत्रकार राजदेव की हत्या हुई जिसकी जांच अब सीबीआई कर रही है। हो सकता है, इसमें भी शहाबुद्दीन पर शिकंजा कसे। हालांकि प्रत्यक्ष सबूत मिलना कठिन है।
बहरहाल, बिहार सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में जमानत विरोधी अपील पर सुनवाई चल रही है। लेकिन क्या यह लालू के सीने में सुई की तरह चुभ नहीं रही होगी? जिसे उन्होंने संरक्षण देकर इतना बड़ा माफिया बनाया, सरकार आने के साथ जिस पर मुकदमा ही शुरू नहीं होने दिया, पर्दे के पीछे रहकर जिसकी जमानत करवा दी, उसकी फिर से जेल में जाने की नौबत अपनी ही सरकार के द्वारा पैदा की जाए, इसे वे आसानी से कैसे सहन कर सकते हैं। हालांकि यह मानना कठिन है कि नीतीश कुमार ने गंभीरता से जमानत के विरुद्ध याचिका डलवाई होगी। आखिर उन्हें भी तो बड़े साझेदार का ध्यान रखना है। सरकार गंवाना तो वे भी नहीं चाहेंगे। बेलगाम होते अपराध पर नीतीश कहां नियंत्रण पा रहे हैं। यह साझेदार की कृपा बनाए रखने की विवशता ही तो है। जब नीतीश की भाजपा के साथ सरकार थी तो प्रदेश अपराध-मुक्त हो रहा था। अगर लालू की चिंता नहीं होती तो जो नीतीश कुमार राजग के शासनकाल में सीवान जेल में विशेष न्यायालय बिठाकर शहाबुद्दीन के खिलाफ मामला चला सकते हैं, उनको सजा दिलवा सकते हैं, वे उन्हें खुलेआम कैसे रहने देते। जब शहाबुद्दीन की 2005 में गिरफ्तारी हुई तो नीतीश का पूर्व शासनकाल था। उनकी जमानत याचिका का हर मोड़ पर राज्य सरकार द्वारा विरोध किया गया था। यही कारण था कि उन्हें 11 साल जेल में बिताने पड़े। सीवान जेल के भीतर विशेष अदालत मंे चले मुकदमों में से सात में उन्हें दोषी करार दिया गया, जिनमें से दो में आजीवन कारावास और दो में 10-10 साल की कैद मिली। शहाबुद्दीन जब तक सीवान जेल में रहे, उनके सेल और वार्ड में बार-बार छापे पड़ते रहे। इन छापों में मोबाइल फोन जब्त किए गए, उससे मिलने आने वालों के लिए नियमों में ढील देने के कारण कई अधिकारियों को निलंबित किया गया। नीतीश लालू के कारण भागलपुर जेल में ऐसा ही नहीं कर सके। उनके पास शहाबुद्दीन जैसे प्रमाणित अपराधी को अपराध नियंत्रण कानून या सीसीए या राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत जेल में बंद रखने का भी विकल्प है। इसे तो वे आजमा नहीं रहे। तो जमानत के विरुद्ध याचिका दिखावा भी हो सकता है। सुशासन बाबू की अपनी छवि बनाए रखने तथा राष्ट्रीय स्तर पर झेंप से बचने के लिए उनका ऐसा करना लाजिमी था।
यह बात साफ है कि इस प्रकार नीतीश ने जितना भी किया है वह लालू को रास नहीं आ रहा होगा, तो शहाबुद्दीन दोनों के बीच दरार का कारण बन चुके हैं। यह दरार कहां तक जाएगी देखना होगा। नीतीश सरकार यदि जनमत और मीडिया के दबाव में जमानत विरोधी याचिका को गंभीरता से लड़ती है तो फिर लालू का धैर्य जवाब दे सकता है। हो सकता है, आरंभ में वे स्वयं न बोलें, उनके इशारे पर दूसरे नेता बयान देने लगें। लालू इस तरह एक माहौल बना सकते हैं। इसमें अल्पसंख्यक को बचाने और परेशान करने की गंदी राजनीति भी होगी। हो सकता है, एक सीमा के बाद लालू स्वयं मैदान में उतर जाएं। आखिर वे जिस राजनीतिक लक्ष्य से आगे बढ़ रहे हैं उसके अनुसार तो ऐसा करना ही होगा। उन्हें दिखाना ही होगा कि वे एक मुसलमान को बचा रहे हैं। शहाबुद्दीन उनके लिए अपराधी या माफिया नहीं, मुसलमान होगा।
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