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राष्ट्रीय समस्याओं और संकट की स्थितियों को लेकर मीडिया खास तौर पर समाचार चैनल किस हद तक असंवेदनशील हैं, इसका एक बड़ा उदाहरण बीते दिनों देखने को मिला। कावेरी नदी के पानी के लिए कर्नाटक में भड़की हिंसा कई चैनलों के लिए 'अच्छी तस्वीरों' से ज्यादा कुछ नहीं थी। सभी क्षेत्रीय और तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों ने जलती हुई कारों और बसों का 'सीधा प्रसारण' किया। ज्यादातर ने बेंगलुरु में जलती हुई गाडि़यां दिखाईं और यह भी दिखाया कि उनकी नंबर प्लेट किस राज्य की है। यही स्थिति तमिलनाडु के शहरों में रही। वहां कर्नाटक के लोगों के व्यापारिक प्रतिष्ठान, वाहन और आम लोग हिंसा का शिकार बने। हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा के तमाम न्यूज चैनलों ने विस्तार से बताया कि हमला करने वाले और हमले के शिकार लोग कौन हैं। नतीजा यह हुआ कि सुबह के वक्त हुई मामूली हिंसा दोपहर तक जंगल की आग में बदल चुकी थी।
मीडिया की आत्म-नियामक संस्थाओं ने ऐसी परिस्थितियों के लिए नियम-कायदे बना रखे हैं। लेकिन खुद मीडिया इन नियमों को कभी नहीं मानता। अगले दिन जब सरकार की 'एडवाइजरी'आई तब चैनलों को अपनी जिम्मेदारी याद आई। क्या मीडिया के कर्ता-धर्ता कभी इस बात की समीक्षा करेंगे कि कर्नाटक-तमिलनाडु के बीच आग में उन्होंने भी घी डालने का काम किया?
सचाई यह है कि ज्यादातर मीडिया समूहों को आभास भी नहीं है कि उन्होंने इस खबर को दिखाने में क्या गलती की है। अगर सरकार ने किसी चैनल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया तो फिर पूरे देश में हंगामा खड़ा हो जाएगा कि अभिव्यक्ति और 'प्रेस' की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है। यह देखने वाली बात है कि देश की मुख्यधारा मीडिया का यह बचकाना रवैया कब तक चलता है।
कावेरी विवाद जैसी ही कवरेज रही बिहार में अपराधी शहाबुद्दीन की रिहाई की खबर में। राज्य सरकार की कृपा से शहाबुद्दीन भले ही जेल से बाहर आ गया, लेकिन उसका बाकी काम लगता है, मीडिया कर रहा है। देश के तमाम मुद्दों पर चैनलों ने उसकी 'महत्वपूर्ण' राय पूछी। उसे पूरी तवज्जो के साथ चलाया भी। पूरे विवाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दोषमुक्त दिखाने की एक सोची-समझी कोशिश भी दिखाई दी। मीडिया का यही अधकचरापन अक्सर अयोग्य व्यक्ति को जनता की नजरों में 'बड़ा नेता' बनने में मदद कर देता है। हालांकि कुछ चैनलों ने शहाबुद्दीन के आतंक से पीडि़त परिवारों की कहानी दिखाकर थोड़ा साहस जरूर दिखाया।
उधर हरियाणा में बिरयानी में गोमांस पाए जाने पर मीडिया ने विवाद पैदा करने की भरपूर कोशिश की। खाने-पीने की दुकानों से नियमों के मुताबिक सैंपल लेना कोई नई बात नहीं है। लेकिन इस मामले को, खास तौर पर एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस जैसे संस्थानों ने कुछ इस तरह पेश किया मानो सरकार अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से हटकर कोई गलत काम कर रही हो। क्या इन मीडिया संस्थानों के संपादकों को याद नहीं है कि देश के ज्यादातर राज्यों में गोमांस पर कानूनी प्रतिबंध है। क्या ये पत्रकार और मीडिया संस्थान कानून के उल्लंघन के पैरोकार बनना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि पाबंदी के बावजूद गोमांस खुल्लमखुल्ला बिकता रहे और सरकार कोई कार्रवाई न करे? ज्यादातर नमूनों में गोमांस की पुष्टि होने के बाद भी मीडिया के इस तबके की तरफ से लोगों की भावनाएं भड़काने की पूरी कोशिश होती रही।
हिंदू संतों और विद्वानों के लिए तिरस्कार का भाव रखने वाले कुछ चैनलों ने ईसाइयों की नई संत मदर टेरेसा की 'ताजपोशी' का सीधा प्रसारण दिखाया। उनके दो बहुप्रचारित 'चमत्कारों' की कहानियां दिखाईं। प्रगतिशील होने का दावा करने वाले चैनल अचानक टोने-टोटके और अंधविश्वास मानने वाले चैनलों की तरह दिखाई देने लगे। वेटिकन अगर मदर टेरेसा को 'संत' की उपाधि देता है तो यह उनकी मर्जी है, लेकिन भारतीय मीडिया का विवेक अचानक कहां गायब हो गया?
शायद यही कारण है कि मीडिया के एक तबके पर यह आरोप लगता रहा है कि वह कन्वर्जन कराने वाली ईसाई मिशनरियों की मदद करते हैं। वरना दिल्ली से सटे बागपत के एक मिशनरी स्कूल में बच्चों के हाथ में कलावा बांधने या हिंदू धर्म की कोई भी निशानी पहनने पर रोक की खबर को भी मदर टेरेसा के महिमांडन के साथ थोड़ी जगह जरूर मिलती।
उधर दिल्ली के तमाम बड़े पत्रकार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निशाने पर हैं। पिछले दिनों उन्होंने शेखर गुप्ता, दीपक चौरसिया और राहुल कंवल जैसे नामी पत्रकारों के लिए गाली-गलौज वाली भाषा का इस्तेमाल किया। मीडिया और राजनेताओं में खराब संबंध कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी के नेताओं ने मर्यादा की सारी हदें पार कर दीं। इसके बावजूद पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आज भी केजरीवाल सरकार को लेकर 'नरम' बना हुआ है। ऐसा लगता है कि दिल्ली सरकार के लाखों-करोड़ों के विज्ञापनों का इसके पीछे बड़ा हाथ है।
लोकतंत्र के चौथे खंभे का सम्मान और विश्वसनीयता बनी रहे, इसकी चिंता खुद इसके कर्ता-धर्ताओं को भी करनी होगी। वरना कभी विज्ञापन तो कभी दूसरे फायदों के दबाव में उन्हें आम आदमी पार्टी जैसी 'भस्मासुरी ताकतों' का कोप झेलते
रहना पड़ेगा।
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