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(आचार्य कृपालानी)
लोकसभा के पिछले सत्र में जब केरल का प्रश्न उठाया गया तो कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण सदस्य ने, जो भू. पू. मंत्री भी हैं, मुझसे लॉबी में कहा, 'यह शोर-शराबा क्यों? कांग्रेस सरकारें भी तो विभिन्न राज्यों में वही कर रही हैं जो केरल सरकार कर रही है।' मैं भी इस तथ्य से परिचित हूं कि कांग्रेस जन अनियमितताएं बरतते हैं। अनेक अवसरों पर यह आरोप लगाया जा चुका है कि वे प्रशासन-यहां तक कि पुलिस और न्याय में भी हस्तक्षेप करते हैं। कांग्रेसजनों के प्रयासों से कई अपराधपूर्ण मुकदमों को वापस लिया गया है। कांग्रेस शासित राज्यों में भी राजनैतिक हत्याएं होती हैं। कांग्रेस शासन की स्थिरता के लिए कांग्रेसजन भी ऐसी अनेक बातें करने की कोशिश करते हैं जो अप्रजातांत्रिक हैं। किन्तु तब भी मुझे लगता है कि उनके और कम्युनिस्टों के प्रयासों में मूलभूत अंतर हैं।
कांग्रेसी भ्रष्टाचार- सबसे बड़ा अंतर यह है कि कांग्रेसजन अधिकांश संदेहजनक कृत्य अपनी निजी हैसियत से निजी लाभ के लिए करते हैं। उसके पीछे कोई योजनापूर्ण संकल्पित नीति नहीं है। उदाहरणार्थ यदि किसी गैरकांग्रेसी की तुलना में किसी कांग्रेसजन को लाभप्रद ठेका दिया जाता है तो वह व्यक्तिगत कारणों से होता है, पार्टी की नीति के अनुसार अथवा ठेके के लाभ से पार्टी की जेब भरने के लिए नहीं होता। प्र्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप नहीं होता। कांग्रेस का सिद्धांत नहीं है, उसके पीछे किसी राजनीतिक विचारधारा और दर्शन का आधार नहीं है। यदि कोई मंत्री किसी कांग्रेसजन का पक्ष लेता है तो वह व्यक्तिगत मित्र, संबंध अथवा लाभ के लिए ही होगा। इन्हीं कारणें से अनेक गैर-कांग्रेसियों को भी लाभ प्राप्त हो जाता है। कांग्रेसजनों का एक गुट दूसरे गुट की उपेक्षा एवं अपने गुट का पक्ष लेता है। यदि कुछ इक्की-दुक्की राजनीतिक हत्याएं हुई हैं तो उनका शिकार कांग्रेसजन भी बने हैं और अन्य भी। कई बार कांग्रेस की आपसी गुटबंदी के परिणामस्वरूप ही कत्ल हो जाता है। कांग्रेसजन प्रशासन को अपने अधिकार के नाते आज्ञा नहीं दे सकता और प्रशासन भी कर्त्तव्य के नाते कांग्रेसजन की आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। जब कांग्रेस जन अपने व्यक्तिगत हितों के पोषण के लिए ऐसे कृत्य करते हैं तो उन्हें दल से ताड़ना प्राप्त होती है। कई बार कांग्रेसजनों को केंद्रीय संगठन अथवा प्रादेशिक मंत्रियों की ओर से प्रशासन में हस्तक्षेप न करने की चेतावनी दी जा चुकी है। उससे भी अधिक जब कोई कांग्रेसजन हस्तक्षेप करता है तो उसकी आत्मा में धुकधुकी मचती रहती है। उसे लगता है कि वह जो कुछ कर रहा है वह गलत है, दल के अनुशासन एवं हितों के विरुद्ध है। वह ऐसे कृत्य अपनी दुर्बलता एवं लोभ के कारण करता है।
कम्युनिस्ट भ्रष्टाचार- किन्तु, प्रशासन में हस्तक्षेप करना समस्त कम्युनिस्ट देशों की पूर्व निश्चित नीति है। पार्टी न केवल कम्युनिस्ट सराकरों की मोटी-मोटी नीतियों को निर्धारित करती है, बल्कि दैनिक प्रशासन की देख-रेख और नियंत्रण के लिए स्वयं को अधिकारिणी मानती है। उनके यहां पार्टी सर्वोपरि मानी जाती है।
केरल आंदोलन और भारतीय जनसंघ
(श्री पी. परेमश्वरन) संगठन मंत्री, केरल प्रदेश जनसंघ
केरल ने दूसरी बार इतिहास का निर्माण किया। कम्युनिस्टों को जनतांत्रिक चुनावों के माध्यम से गद्दी पर आसीन कराने के 28 मास के अंदर ही उनकी प्रामाणिकतापूर्वक परीक्षा लेकर केरल की जनता ने उन्हें सत्ता के सिंहासन से नीचे उतार दिया। गत 30 मास के समस्त दृश्य एक चलचित्र के समान तेजी के साथ रोमांचपूर्ण और कितने शिक्षाप्रद थे। केरल के समस्त वर्ग और दृष्टिकोण, समस्त जातियों और सम्प्रदाय, समस्त राजनीतिक पार्टियों और नेता-केवल कम्युनिस्टों को छोड़कर अपनी पुरानी और गहरी शत्रुताओं को भूलकर एक मंच पर एकत्र हो गए। कम्युनिज्म के तेज से उगते हुए अधिनायकवादी खतरे को अंतिम पराजय देने के लिए भारतीय जनसंघ केरल का सबसे तरुण राजनीतिक दल भी कूद पड़ा समरांगण में अपना शहीदी जोश और दृढ़ संकल्प लेकर जो जनसंघ की एकमेव विशेषता है।
जनसंघ ने केरल के संघ में क्या योगदान दिया? सबसे नवीन राजनीतिक दल जनसंघ ने केरल आंदोलन में सम्मिलित होने का क्यों निर्णय लिया? वर्तमान आंदोलन को सफलता के शिखर पर पहुंचाने में वह क्या सहायता प्रदान कर सकता है? और जनसंघ के आंदोलन में सम्मिलित होने से क्या केरल की जनता के मस्तिष्क में कुछ नई आशाएं और अपेक्षाएं जगी हैं? ये इतने उचित प्रशन हैं जो स्वाभाविक ही सामने खड़े हो सकते हैं और उन्हीं का उत्तर देखने का मैं इस छोटे से लेख में प्रयास करूंगा।
सैद्धांतिक विरोध- यद्यपि जनसंघ भौतिक साधनों से अत्यंत सम्पन्न था और स्वाभाविक ही सबसे अधिक असुविधापूर्ण स्थिति में था, तथापि आंदोलन का समर्थन करने के लिए जनसंघ के समक्ष सबसे मजबूत सैद्धांतिक कारण थे।
दिशाबोध
कम हो आय और आवश्यकताओं में अन्तर
''भोग में संयम रहे, तभी सुख मिलेगा। आय सौ रुपए और आवश्यकताएं सवा सौ रुपए की हों तो 25 रुपए का दु:ख ही प्राप्त होगा। आय डेढ़ सौ रुपए तक बढ़ जाए और इस बीच उपभोग दौ सौ रुपए तक चला जाए, तब भी जीवन में दु:ख ही दु:ख होंगे। अत: आय और आवश्यकताओं के बीच का अंतर कम करना आवश्यक है। उसके लिए सीमा में रहकर उपभोग करना चाहिए… उत्पादन-वृद्धि के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ेगी। अधिक पूंजी न हो तो उत्पादन बढ़ ही नहीं सकेगा। उत्पादन एवं उपभोग के बीच में बचत आती है। उपभोग में संयम न हो तो बचत नहीं होगी, पूंजी नहीं होगी और न ही उत्पादन में वृद्धि। उत्पादन में वृद्धि, न्यायोचित वितरण और संयमित उपभोग-तीनों बातों का समग्रता से विचार करने की आवश्यकता है।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-4, पृ. 36)
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