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शौर्य गाथा : अदम्य साहसी वीर बालक बाजी

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Aug 8, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2016 15:07:27

नाम—बाजी राउत। जन्म वर्ष—1926। जन्म स्थान—ओडिशा के ढंेकनाल जिले का नीलकंठपुर गांव। बाजी राउत जैसे वीर बालक के बारे में देश में बहुत कम लोग ही जानते होंगे। इस छोटी—सी उम्र में इस बालक ने जिस अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया, उसकी सराहना किये बिना कोई नहीं रह सकता।
बाजी राउत के पिता का नाम हरी राउत था। बाजी अपने घर की पांचवीं सन्तान थे। वह छोटी उम्र में कुशल नाविक की भांति नाव चलाता था। मछली पकड़ना उसने अपने पिता से सीखा था और यही उसके परिवार का व्यवसाय भी था। लेकिन जैसे ही वह कुछ जानने और समझने लायक हुआ, पिता का आश्रय उसके सिर से उठ गया। इसी समय अंगुल, ढेंकनाल और आस-पास के क्षेत्रों में अंग्रेजों का विरोध तेजी से हो रहा था। कई आन्दोलनों ने मोर्चा संभाल रखा था। इस समय बाजी की उम्र महज 12 वर्ष ही थी। उसके अंदर इस छोटी—सी ही उम्र में अपनी माटी और देशप्रेम की ललक जाग चुकी थी। अग्रेजों की दमनकारी नीतियों ने उसके मन को झकझोरा और वह भी गढ़जात आन्दोलन में शामिल होकर अंग्रेजी सरकार का विरोध करने लगा।  पहले से ही अंग्रेजों के प्रति उसके मन में गुस्सा भरा हुआ था।
अचानक एक दिन बाजी अपनी नाव से मछली पकड़ रहा था। इसी दौरान कुछ अंग्रेज सिपाही आए और उससे कड़क आवाज में ब्राह्मणी नदी पार कराने को कहा। अंग्रेज ग्रामीणों की हत्या करके भाग रहे थे, इसलिए सिपाहियों को किसी दूसरे स्थान पर जाना अत्यधिक जरूरी था। पर 12 साल के नन्हे से बालक ने उनकी एक न सुनी और ले जाने के लिए मना कर दिया। उसने बार-बार कहने के बाद भी अंग्रेजों की एक न मानी। यह बात अंग्रेज सिपाहियों को बहुत अखरी। इस छोटे से बालक का इस तरह का व्यवहार देखकर वे दंग थे, क्योंकि उनके लिए यह व्यवहार नया था। तमतमाये अंग्रेजों ने इस छोटे से वीर बालक पर अपनी बंदूक से गोली चला दी। गोली बाजी का सीना चीरते हुए निकल गई। उसके शरीर से रक्त की तेज धार निकली और वह नाव में ही गिर गया था। यह अभागा दिन था 11नवम्बर,1938 का जब इस छोटे से बालक ने अपने प्राण त्याग दिये। 12 साल के नन्हे से बच्चे के मन में देशभक्ति का जो जज्बा भरा था, उसको देखकर अंग्रेज भी हतप्रभ थे। क्योंकि उन्होंने तो अपनी कड़क आवाज से अच्छे-अच्छों को डराया था, पर 12 साल का बाजी न तो उनसे डरा और न ही भागा, बल्कि दृढ़ता से उनका मुकाबला किया। अंग्रेज सिपाही उसकी वीरता और देशभक्ति का आकलन नहीं कर पा रहे थे। बाजी के मन में देशभक्ति की भावना कूटकर भरी थी जिसका परिणाम यह निकला उसने बलिदान देना स्वीकार किया पर अंग्रेजों के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया।
 कटक के खाननगर के श्मशान में  इस वीर बालक को मुखानि दी गई। एक कवि ने इस भावपूर्ण घटना पर लिखा—बंधु यह चिता नहीं है, यह देश का अंधेरा मिटाने की मुक्ति की मशाल है।''वहीं कवि कालिंदी चरण पाणिग्रही ने लिखा,''आओ लक्षन, आओ नट, रघु, हुरुसी प्रधान, बजाओ तुरी, बजाओ बिगुल, मरा नहीं है, मरा नहीं है, बारह साल का बाजिया मरा नहीं…।''
आज भी नीलकंठपुर के लोग 11 सितंबर को बाजी की याद में एक सभा करके उसके बलिदान को याद करते हैं। आज भी यह गांव विकास की आस में है। स्वतंत्रता के इतने दिन बाद भी यहां न पीने का पानी है और न ही यहां अस्पताल। पढ़ने के लिए स्कूल भी नहीं है। गांव में 30 परिवार रहते हैं। उनमें से एक बाजी राऊ त का परिवार भी है। बाजी के भाई नट राउत के चार बेटे हैं। नट और उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका है। बाजी के परिवार के लोग मजदूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। यहां विकास के नाम पर अभी भी अंधियारा है। चारों ओर नदी-नालों  की घेराबंदी है।
दक्षिण में जहां ब्राह्मणी,उत्तर-पुरब में पांड्रा नाल ,पश्चिम में रंगमटिआ नाल से घिरा हुआ है। चिकित्सा सुविधा न होने के चलते आस-पास के कई छोटे-छोटे मजरों के लोग इन नदी-नालों को पार करके पास के अस्पताल पहुंचते हैं। कई बार तो इस चक्कर में लोगों की जान तक चली जाती है। वहीं गांव के बच्चों को पास के मंदार हाई स्कूल जाने हेतु नदी पार करके जाना पड़ता है। यानी जान पर खेलकर पढ़ाई होती है। ग्राम समिति के सदस्य सुधाकर इस पूरी दशा पर कहते हैं, ''गांव में इतनी असुविधा है पर सब कुछ जानने के बाद भी कोई नहीं सुनता। 1952 में यहां भयंकर बाढ़ आई थी। जिसने यहां सब तहस-नहस कर दिया। बह्मपुर, प्रचंद्पुर सहित कई गांव ब्राह्मणी नदी  में समा गए। कुछ साल के बाद गढ़जात आंदोलन के प्रमुख हरि मल्लिक, लक्षन मल्लिक, रघु मल्लिक, और गुरि परिवार के साथ ही बाजी राउत के बड़े  भाई  नट राउत अपना घर छोड़कर एकताली पंचायत  के नीलकंठपुर गांव में बस गए, तब से सब यहीं रह रहे हैं।
बहरहाल वीर बालक बाजी राउत के परिवार के लोग आज भी कठिन परिस्थितियों में गुजर-बसर करने पर मजबूर हंै। उनका परिवार मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित है। आजादी के 70 वर्ष हो चुके हैं फिर भी इस गांव के लोग विकास से अछूते हैं। इनकी आस कब पूरी होगी, सरकार कब जागेगी, बाजी राउत जैसे वीर सेनानियों को कब याद करेगी, अभी यह प्रश्न भविष्य के गर्त में है।    -पंचानन अग्रवाल

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