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1947 के 15 अगस्त से 2016 के 15 अगस्त तक। 70 साल। बुलंदियों को छूने की तमन्ना रखकर राह पर आगे बढ़ने वाले किसी देश के लिए इतना लंबा अरसा कम नहीं होता। वह हर उस मुकाम को बखूबी पाता है जिसके लिए उसने योजना बनाई होती है, उसके अनुसार नीतियां तय की होती हैं, उन नीतियों के क्रियान्वयन के लिए समर्पित और स्पष्ट सोच वाले कुशल और ईमानदार नौकरशाह नियुक्त किए होते हैं, जनसामान्य को बेवजह कष्ट न हो, ऐसी व्यवस्थाएं की होती हैं, और इन सबसे बढ़कर देश की चिति, भाव और संस्कृति के अनुसार शासन-प्रशासन के मुखिया निर्धारित किए गए हों। इन पैमानों पर आजादी के बाद के भारत को तोलें, तो क्या तस्वीर उभरती है?
बात एक-एक क्षेत्र की करें तो उसे आसानी से समझा जा सकता है। संस्कार रोपण करने वाली शिक्षा पर नजर डालें। क्या नेहरूवादी नीतियों ने शिक्षा को देश के गौरव और चरित्र निर्माण करने की दिशा में संचालित किया? जवाब सोचना न पड़ेगा, क्योंकि एक तटस्थ पर्यवेक्षक यही कह सकता है कि- ना, शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा बनने दिया गया। देश के इतिहास और इतिहास-पुरुषों के तिरस्कार की कीमत पर छद्म सेकुलरों को अंग्रेज मैकाले की साजिशी राह पर बढ़ने की छूट दी गई। परिणाम यह हुआ कि शिवाजी, संभाजी, अहिल्या, गुरु गोबिन्द, बंदा बहादुर, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, नेताजी सुभाष विस्मृत कर दिए गए, और चंगेज, टीपू, औरंगजेब, बाबर जैसों को 'महान' बताया गया। गांधी-नेहरू वंश सर्वत्र हावी हो गया। 'आर्यों के आक्रमण' के झूठ को हवा देकर वोट बटोरे जाते रहे।
यही हाल अर्थतंत्र का बनाया गया। 'सोने की चिडि़या' के पर कतरने में अगर अंग्रेजी हुकूमत सेे कहीं गलती से कोई कसर बची थी तो उसे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों ने और नोच डाला। 'कटोरे वाला देश' बना दिया गया भारत को। धन-बल क्षीण होता गया। कर्जों पर बसर होती गई। समाजवाद के छद्मावरण में पूंजीवाद को हवा दी गई। 'लाइसेंस-कोटा राज' से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का गला घोंटने के सारे प्रपंच रचे गए। 'गरीबी हटाओ' नारे से गरीबी नहीं गई, अलबत्ता गरीब जाने को हो गए। भ्रष्टाचारी अफसरों ने सरकारी महकमों को 'रिश्वत के अड्डों' में बदल दिया। देश का औद्योगिक परिदृश्य बड़े उद्योगों और बड़े पूंजीपतियों के गिर्द भटकता रहा। साम्यवाद के बाने में नेहरूवाद अपने रास्ते से छिटक गया। देश की ताकत की अनदेखी करता रहा।
कुछ ऐसा ही हुआ समाज जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी। स्वतंत्रता के नाम पर अभिव्यक्ति की 'स्वच्छंदता' का खेल खेला गया। साहित्य, रंगमंच, कला, पत्रकारिता या मीडिया, शिक्षा संस्थान बेधड़क होकर देश और इसकी संस्कृति को लांछित करने की हर जुगत भिड़ाते रहे और दिल्ली की सरकारों को 'उन्मुक्तता' की हदें टूटती नजर नहीं आईं। झूठे तथ्यों और भ्रांत धारणाओं ने साहित्य को खेमों में बांट दिया, भारत की बात लिखने वालों को 'साम्प्रदायिक' ठहराने की होड़ लगी रही। पुरस्कार समितियों में 'ऐसों' को न शामिल किया जाता, न सम्मान ही दिया जाता, पुस्तकें तक छपने से रुकवा दी जातीं। देश-तोड़क रचनाओं को तमगे दिए जाते। कला में एकात्मा और सकारात्मकता की उपेक्षा की गई। अमूर्तता के नाम पर विदेशी विचारों और कुंठित अवसादी रचनाओं को मूर्त रूप देने का खेल कला को सर्वहिताय बनने से वंचित करता रहा। यह सब चला, इन्हीं 70 साल में।
साम्यवादियों के तरकश के एक और तीर, एनजीओ ने स्वयंसेवी संगठनों की व्याख्या और चरित्र ही बदल दिया। समाज को कुछ देने की बजाय ये संगठन विदेशों से चंदा बटोरकर अपने ऐशो-आराम पर खर्च करने लगे, फर्जी खाते बनाकर सरकार में बैठे अपने 'हमदर्दों' की मार्फत अरबों के वारे-न्यारे किए जाते रहे। सेकुलर बिरादरी की खास सदस्य तीस्ता सीतलवाड़ के 'सबरंग' ने जिस तरह अकूत पैसा बटोरा और जिस तरह तीस्ता ने उसे अपने ब्रांडेड कपड़े खरीदने और सौंदर्य प्रसाधन खरीदने में खर्चा, उसकी बाबत सीबीआइ ने उनसे पूछताछ की ही है।
70 साल बाद, ग्रह-नक्षत्रों के दिव्य मिलन से अभी पिछले दिनों कश्मीर घाटी में झेलम-सिंधु के तट पर महाकुंभ लगा था। अब आजादी के 70 साल बाद, वक्त गलत हुए को ठीक करने का है, समाधान का है। देश के स्वरूप और आकांक्षाओं की अवहेलना और कब तक होती रहेेगी? कब समझेंगे हम भारत का मन? कब करेंगे गलत बातों की मीमांसा?
हमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की तरह बर्ताव करना ही होगा। व्याधि से मुक्त हुए बिना पूर्ण सौष्ठव प्राप्त नहीं हो सकता।
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