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सूर्य प्रकाश सेमवाल
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सारे विश्व में अपनी शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने यूनियन जैक फहराया लेकिन नेपाल ऐसा देश और टिहरी ऐसी रियासत थी जहां ब्रिटिश ध्वज नहीं लहरा पाया। 1815 में अस्तित्व में आये टिहरी को राजा सुदर्शन शाह ने बसाया था। देश की आजादी के बाद समूचे रजवाड़ों के भारत गणराज्य में विलय के क्रम में लगभग 2 वर्ष बाद 1 अगस्त 1949 को टिहरी भारत देश का लोकतांत्रिक हिस्सा बना। आज देश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में गिने जाने वाले टिहरी ने देश और दुनिया को कई नायक दिए हैं। टिहरी के मुक्तिनायक कहे जाने वाले श्रीदेव सुमन का यह जन्मशताब्दी वर्ष है जो स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर, मुखर आन्दोलनकारी और माटी के सच्चे सपूत थे। जिन्होंने देश के स्वाधीनता समर में प्रभावी भूमिका निभाने के साथ-साथ तानाशाहपूर्ण राजशाही के विरुद्घ व्यापक जनांदोलन चलाये। अनेक यातनाओं और अमानवीय यंत्रणाओं को झेलने के साथ 84 दिनों की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद प्राणोत्सर्ग करने वाले श्रीदेव सुमन इतिहास पुरुष थे।
बालक श्रीदत्त बडोनी का जन्म वैद्य पिता श्री हरिराम बडोनी और संस्कारी माता श्रीमती तारादेवी के घर 25 मई 1916 को टिहरी जिले की बमुंड पट्टी के जौल गाँव में हुआ था। 1919 में इस क्षेत्र में फैली हैजे की महामारी में रोगियों के इलाज व सेवा करते हुए वैद्य पिता 36 वर्ष की आयु में दिवंगत हो गए। माँ तारादेवी ने बेटे को चंबा और टिहरी में माध्यमिक कक्षा तक पढ़ाया। ़पिता से सेवा और समर्पण का भाव और माँ से जीवटता व संघर्ष की प्रेरणा लेकर इस प्रतिभाशाली भारत मां के लाल ने मात्र 14 वर्ष की उम्र में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रेरणा से 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लिया और पहली बार 15 दिन की जेल हुई। इसके बाद श्रीदत्त के श्रीदेव सुमन होने की गाथा शुरू हुई। देश को अंग्रेजों से आजादी और टिहरी को राजशाही के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का संकल्प मन में लिए श्रीदेव सुमन ने 1932 में हिन्दू नेशनल स्कूल में शिक्षण कार्य करने के साथ आगे की शिक्षा जारी रखते हुए हिंदी साहित्य में भूषण, प्रभाकर, विशारद और साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त की। 1938 में सुमन स्वाधीनता सेनानी काका कालेलकर और शिक्षाविद जाकिर हुसैन के संपर्क में आये। उन्होंने हर मंच पर टिहरी में राजतन्त्र द्वारा जारी नागरिक अधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया। इसी श्रृंखला में फरवरी 1939 में पं. जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में लुधियाना में हुए अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद के सम्मेलन में सुमन को पर्वतीय क्षेत्र के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया गया जहां उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता और राजा की जनविरोधी नीतियों से मुक्ति का आह्वान किया। सुमन बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे-क्रांतिकारी, शिक्षक, रचनाकार, पत्रकार, आन्दोलनकर्ता, हिंदीसेवी और सच्चे राष्ट्रभक्त। 1937 में उन्होंने सुमन सौरभ नामक काव्य संग्रह रचा जिसमें उनकी रचनात्मक प्रतिभा दिखती है सामुदायिक व सांस्कृतिक एकता के पक्षधर सुमन ने इसी वर्ष दिल्ली में गढ़देश सेवा संघ की स्थापना की जो बाद में हिमालय सेवा संघ के रूप में हिमालयी सरोकारों का मंच बना। इसी क्रम में उन्होंने बनारस में हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की। वे पत्रकारिता के भी सिरमौर रहे, उन्होंने जहां स्वतंत्रता सेनानी भाई परमानंद के हिन्दू पत्र में काम किया वहीं धर्मराज्य, राष्ट्रमत और कर्मभूमि जैसे पत्रों के अतिरिक्त दर्जनों भूमिगत पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादन सहयोग किया। 1942 में प्रजामंडल आन्दोलन की सफलता के लिए जब बापू का आशीर्वाद लेने सुमन वर्धा गये तो वहीं से उन्हे राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग का सुअवसर मिला। वर्धा में उन्होंने कुछ समय तक राष्ट्रभाषा प्रचार कार्यालय में हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य किया। अगस्त 1942 को श्रीदेव सुमन भारत छोड़ो आन्दोलन में शामिल हुए और 29 अगस्त को उन्हें देवप्रयाग में गिरफ्तार किया गया। पहले 10 दिन ऋषिकेश जेल में, बाद में ढाई माह देहरादून जेल और फिर सवा एक साल तक उन्हें आगरा जेल में नजरबंद रखा गया। 19 नवम्बर 1943 को जेल से रिहा होने के बाद सुमन फिर टिहरी की उन्मुक्त राजशाही के विरुद्घ व्यापक जनांदोलन में जुट गए। राजदरबार से कई प्रलोभन मिले लेकिन स्वाभिमानी जननायक सुमन ने समूची प्रजा की शिक्षा और मुक्ति की मांग की। ़27 दिसम्बर 1943 को उन्होंने राजदरबार में जबरन घुसकर जनता की मांग रखने का निश्चय किया। लाहौर, दिल्ली, बनारस और देहरादून से लेकर पहाड़ की कंदराओं में प्रतिरोध के नायक के रूप में श्रीदेव सुमन की नेतृत्व क्षमता और लोकप्रियता से चिंतित होकर शासक वर्ग ने राजद्रोह का आरोप लगाते हुए श्रीदेव सुमन को 30 दिसम्बर 1943 को बागी घोषित कर दिया और इसके बाद 31 जनवरी 1944 को 2 वर्ष की जेल की सजा सुना दी। जेल में उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं। 3 मई 1944 को श्री सुमन ने राजदरबार की आज्ञा पर जेल प्रशासन द्वारा किये जा रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ अनिश्चितकालीन ऐतिहासिक भूख हड़ताल शुरू की जो पूरे 84 दिनों तक चलीं। 11 जुलाई को उनकी स्थिति एकदम बदतर हो गई। फिर भी राजशाही के दमन का डटकर विरोध करते हुए 25 जुलाई 1944 को भारतमाता का यह लाल और टिहरी का मुक्तिनायक आततायी तंत्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। उनकी मृत देह को भिलंगना नदी में फेंक कर अमानवीय शासन तंत्र ने अमानुषिकता का परिचय दिया। आततायी शासन के विरुद्ध और संस्कृति व भाषा की रक्षा के लिए श्रीदेव सुमन का संघर्ष आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।
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