अपनी बात-सिंधु और सरस्वती का संगम
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अपनी बात-सिंधु और सरस्वती का संगम

by
Jun 6, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2016 12:09:35

पहली बात यह कि आर्य भारत में बाहर से आए, दूसरी बात यह कि वे 2400 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व के कालखंड में भारत आए, तीसरी बात यह कि उन्होंने उत्तर भारत की द्रविड़ सभ्यता (दक्षिण में महाराष्ट्र तक फैली, सिन्धु घाटी सभ्यता) को नष्ट करने का काम किया… किन्तु चौथी और अंतिम बात यह कि उपरोक्त सारे झूठ एक-एक कर पकड़े जा चुके हैं।

पहले औपनिवेशिक और फिर राजनैतिक कारणों से इतिहास को खास दिशा में मोड़ने वालों पर सवाल उठते रहे, जब-तब किरकिरी भी हुई लेकिन साक्ष्यों की ताजा चोट सबसे जबरदस्त है। हरियाणा के राखीगढ़ी और भिराणा में सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के पुख्ता प्रमाण मिलने के बाद आदि मानव के अफ्रीकी उद्भव से लेकर आयार्ें के भारत पर हमले तक के सिद्धांत एकाएक धसक गए हैं।
भारत में इतिहास के नाम पर बिछाई गई बारूदी सुरंगों के यह सूत्र ऐसे थे जिन्होंने समाज में विद्वेष-वैमनस्य की खाई को और चौड़ा करने का ही काम किया।
दिलचस्प बात यह कि औपनिवेशिक इतिहासकारों और बाहर से आकर एकाएक भारतविद् (इंडोलॉजिस्ट) के तौर पर स्थापित हुए व्याख्याकारों का यह सिलसिला किसी 'रिले रेस' सरीखा है। क्या यह विशुद्ध संयोग है कि ब्रिटिश राजशाही से शक्ति के हस्तांतरण के साथ ही इतिहास की भ्रामक और राजनीतिक रूप से समाजघाती व्याख्याओं का जुआ न केवल भारतीय कंधों पर आ गया बल्कि सत्ता का प्रश्रय प्राप्त वामपंथी इतिहासकारों द्वारा इसे खुशी-खुशी ढोया भी जाने लगा।
सवाल है, इतिहास का भी कोई दक्षिण और वाम होता है क्या? यदि कहा जाता है कि ज्ञान का हर सूत्र पश्चिम से खोजने और जोड़ने की चाह ने ही सभ्यताओं के संदिग्ध उद्गम और इन्हें काल्पनिक संघषार्ें के खांचे में कसने-देखने का काम किया, तो इस बात में दम है। आर्य-द्रविड़ संघर्ष की परिभाषा को आगे बढ़ाने-जमाने का मामला इस नजर से और दिलचस्प है कि यहां अटपटे और स्वार्थपरक तकार्ें का निवेश पूंजीवाद ने किया और वामपंथी-समाजवादी बुद्धिजीवियों ने इसे अंखुए का पेड़ बनाने के लिए दिन-रात मजूरी की, पसीना बहाया।
दरअसल, यह हितों का असामान्य साझापन था जिसमें सच और भारत के हित के लिए गुंजाइश नहीं थी। ज्ञान परंपरा और आर्य शुद्धता पर 'हिटलरी' दावे की सनक और भारत में आर्य-द्रविड़ संघर्ष के सिद्धांत को पोसते हुए 'बांटो और राज करो' की चाल…यह सब क्या था? एक ही समय में एक काल्पनिक सिद्धांत देश और पूरी दुनिया को बुरी तरह मथ रहा था।
निर्विवाद रूप से वेद विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ हैं। संस्कृत ऋचाएं यदि इतिहास में हिब्रू के हिज्जों से पीछे जाती हैं तो, यहूदियों को किनारे करते हुए सबसे समझदार पुरखों पर ईसाई दावा कैसे हो?
-भारत के लोग यदि अपनी परंपरा और पुरखों को, इस मातृभूमि को एक मानते हुए ब्रिटिश राजशाही (या बाद की लोकतंात्रिक व्यवस्था में वंशवाद के विरुद्ध) एकजुट रहे तो, उस प्रबल जनशक्ति का प्रतिकार कैसे हो?
इन डरावने सवालों का जवाब एक काल्पनिक सिद्धांत में खोजा गया। यह तथ्य है कि इतिहास की भारतीय पाठ्यपुस्तकों में आयार्ें द्वारा भारत पर आक्रमण का सिद्धांत अंग्रेजों द्वारा जोड़ा गया था। और यह भी कि जिन श्रीमान फ्रेडरिक मैक्समूलर ने वेद को, 'आर्य मानव का पहला शब्द', कहा, वे खुद कभी भारत नहीं आए। उन्हें संस्कृत सिखाने वाले अलेक्जेंडर हेमिल्टन ने खुद कभी संस्कृत नहीं सीखी थी। और मैक्समूलर वेदों का अनुवाद स्वाध्याय के लिए नहीं बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए तत्कालीन दरों के मुकाबले चार गुना वेतन पर कर रहे थे।
बारीकी से देखें तो यह साफ तौर पर दोहरे हितों से जुड़ा सीधा मामला था। शायद इसीलिए इतिहास की मैक्समूलर व्याख्या के भी दो पक्ष उभरते हैं। पहला-आर्य श्रेष्ठ थे, गोरे थे, ज्ञान से परिपूर्ण थे और ज्ञान भारत का नहीं था, आर्य बाहर से आए थे…। दूसरा- जिस तरह हम बाहर से आए हैं, गोरे हैं, श्रेष्ठ हैं, ज्ञानी हैं।
जाहिर है, प्रमाणों से परे, कल्पनाओं पर आधारित एक ऐसा सिद्धांत जो समाज को संघर्ष की तरफ ठेलता हो, राजनीति की राह आसान करता हो, 1947 के बाद की राजसत्ताओं का भी दुलारा रहा तो अचरज नहीं करना चाहिए।
द्रविड़-आर्य, उत्तर-दक्षिण, दलित-ब्राह्मण, हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाएं… इस देश के समाज को बांटने-लड़ाने के कितने षड्यंत्र इस एक हवाई सिद्धांत की आड़ में खड़े किए जाते रहे। इस देश में एक ऐसे संघर्ष को सच बताता सिद्धांत जिसे खुद इस देश के लोग नहीं जानते। ऐसा भीषण, रक्तरंजित टकराव जिसका और जिसकी वजहों का उल्लेख मात्र भी किसी भारतीय ग्रंथ में नहीं है? सदियों दबाए सच की खुदाई शुरू करें तो विसंगतियों और विरोधाभासों की पूरी शृंखलाएं खुलती जाती हैं।
बहरहाल, राखीगढ़ी के साक्ष्य-संकेत बता रहे हैं कि विकृति और विस्मृतीकरण की तमाम कोशिशें के बाद भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का इतिहास राख नहीं हुआ। भले ऊपरी तौर पर निर्जीव लगे किन्तु जमीन के नीचे वह सरस्वती के साथ-साथ, आस-पास सांसें लेता रहा है। सिन्धु के तार सरस्वती से जा जुड़े हैं।
जय आदिबद्री, जय सोमनाथ।

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