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जिस समय अमेरिका में एक सिरफिरा किसी क्लब में 'पतित काफिरों' को निशाना बनाने की योजनाओं में लगा था, उस समय उसी देश में बर्नी सेंडर्स ने एक ऐसा हमला किया जिसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई।
यह हमला 'क्लिंटन' पर था।
सेंडर्स ने 5 जून को क्लिंटन फाउंडेशन को मिलने वाले संदिग्ध और आपत्तिजनक चंदे की जमकर खबर ली थी, ऑरलैंडो में हमला 13 जून को हुआ। अमेरिका के राष्ट्रपति पद की डेमोक्रेट उम्मीदवारी के लिए आखिरी समय तक हिलेरी क्लिंटन के सामने डटे रहने वाले बर्नी सेंडर्स, क्लिंटन दंपती की गैर-सरकारी संस्था 'क्लिंटन फाउंडेशन' को अरब देशों के तानाशाहों से भारी-भरकम आर्थिक मदद मिलने पर चिंता जता रहे थे। फ्रांस और अमेरिका में हुए ताजा हमलों के बाद लोग हिलेरी क्लिंटन के रिपब्लिकन विरोधी डोनाल्ड ट्रंप के अतिरेकी बयानों की बजाय बर्नी द्वारा जताई गई चिंताओं के संदर्भ गंभीरता से जोड़ रहे हैं। एक ओर मुसलमानों को लेकर अप्रिय होने की हद तक कड़वी टिप्पणी करने वाले ट्रंप हैं और दूसरी ओर किसी देश के नीति निर्माताओं तक सेंध लगाने वाले 'मजहबी' देशों के दखल और दबदबे पर उंगली उठाते बर्नी… दोनों अलग-अलग राजनीतिक दलों से हैं, लेकिन उनके उठाए प्रश्नों ने लोगों को एक खास दिशा में सोचने पर मजबूर कर दिया है। तेल के बूते जिनकी तूती पूरी दुनिया में बोलती रही, वहाबी विचारधाराओं के उन सरपरस्तों ने विश्व राजनीति में किन-किन रास्तों से और कितनी गहरी सेंध लगाई है?
अमेरिकी राजनीति को एक ओर रख दें तब भी आज दुनिया के सामने यह साफ है कि इस्लामी आतंकवाद कोई आसमान से टपकी चीज नहीं है बल्कि इस हिंसक उन्माद के बीज सऊदी अरब, कतर और ओमान में पोसी और दुनियाभर में फैलाई गई जहरीली वहाबी विचारधारा से फूटे हैं। जगह-जगह राजनीतिक धूप-छांह और खाद-पानी अलग-अलग रहा हो सकता है मगर एशिया, अफ्रीका, यूरोप…सब जगह इस्लामी आतंक के विचार को मजबूत करने का काम अरब जगत ने अपनी तेल की दौलत और छिपी या उजागर गुटबंदियों के बल पर किया है। आईएस, अल-कायदा, बोको हराम, लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान, अल शबाब… आतंक की ये शाखाएं दुनिया में कहीं दिखें, इनकी जड़ अरब का वहाबी प्रसार ही तो है। और आज इन आतंकियों के निशाने पर क्या है? पश्चिमी दुनिया, भारत, इस्रायल और अंतत: पूरी मानवता! आज दुनिया मानवता के विरुद्ध इस उन्मादी लामबंदी का इलाज ढूंढ रही है। कई तरीके सुझाए और आजमाए जा रहे हैं।
पहला तरीका है डोनाल्ड ट्रंप का। उनकी नजर में इस्लामी आतंक से अमेरिका को बचाने का सीधा तरीका मुसलमानों को अमेरिका में घुसने ही न देना है।
दूसरा तरीका हिलेरी क्लिंटन का है जो इस्लामी कट्टरवाद को सिर्फ आईएस जैसे आतंकी जत्थों तक सीमित समस्या मानती हैं और 'रेडिकल इस्लाम' के जिक्र से भी हिचकती हैं।
सबसे बड़े पूंजीवादी देश के इन दो तरीकों के सामने तीसरा तरीका साम्यवादी 'सौदागर' चीन का है, जिसने रमजान के दौरान साम्यवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं, नौकरशाहों और छात्र आदि वगार्ें के रोजे रखने पर ही रोक लगा दी है। तीनों तरीके अलग-अलग लोगों को ठीक लग सकते हैं लेकिन सच यह है कि इस्लामी आतंक की समस्या का हल खोजने की दृष्टि से इनमें से कोई भी पूरी तरह कारगर नहीं हो सकता।
ट्रम्प के अतिरेकी विचार, हिलेरी का अतिशय ढुलमुल रवैया या लोगों की स्वतंत्रता पर चीन का साम्यवादी चाबुक… यह सब इस्लामी उन्माद का फौरी-सतही इलाज ढूंढने या उससे आंखें मूंदे रहने के उपाय हो सकते हैं। किन्तु ये उपाय सोशल मीडिया से लेकर घरों और शिक्षण संस्थानों तक युवाओं को बरगलाती-बढ़ती हिंसक कबाइली सोच का कारगर तोड़ नहीं हो सकते। दुनिया को वहाबी उन्माद से लड़ने के लिए हथियार, प्रशासनिक फैसलों और न्यायालयों की जितनी जरूरत होगी, वह होगी ही। किन्तु यह लड़ाई गोलियों और फैसलों से ज्यादा वैचारिक है। यह युद्ध उनींदे, अनमने ढंग से नहीं लड़ा जा सकता। अब शानदार युवाओं को बर्बर आतंकियों में बदलने वाले विचार से पूरी ताकत से टकराने और प्रसुप्त लोगों को झकझोरकर जगाने का समय है। मानवता को आहत करने वाली मान्यताओं को ध्वस्त करने का समय है। यह काम अकेले राजनीति के बस का नहीं है, उसके भरोसे छोड़ा भी नहीं जा सकता।
प्रगतिशील विचारों की हत्या करने निकली उन्मादी टोलियां जब युवा इंजीनियर, डॉक्टरों, मेधावी छात्रों के मनो-मस्तिष्क में विष की खेती करने निकली हों तो कोई सोता कैसे रह सकता है? तुष्टीकरण से पुष्टीकरण प्राप्त करते जत्थे सोने का ढोंग कर सकते हैं परंतु समाज नहीं सो सकता। उसे जागना होगा। क्योंकि सोते रहे तो सिर्फ मनुष्य नहीं, पूरी मानवता मारी जाएगी।
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