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यह भारतीय राजनीति की नई लहर है। देश की सबसे पुरानी पार्टी की भयानक छीजन दिखाते, अपवित्र गठबंधनों की धज्जियां उड़ाते और राजनीति के नए राष्ट्रीय स्वर का जयघोष उठाते पांच राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजे भारतीय राजनीति में गहरा और स्थायी फर्क पैदा करने वाले हैं। चीजें चौंकाऊ रह सकती हैं, यह विशेषज्ञ भी मान रहे थे लेकिन स्थितियां इस स्तर तक बदलेंगी कि स्थापित राजनीति के धुर्रे बिखर जाएं, यह किसी ने नहीं सोचा था।
असम में भाजपा की उठान मामूली नहीं है, डेढ़ दशक की सियासी हनक इस जनादेश ने रौंद डाली है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल का फैलाव रोकने के लिए वाम-कांग्रेस जैसे दो घोर राजनीतिक शत्रुओं ने हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया, लेकिन हुआ क्या? पिछले विधानसभा चुनाव में ममता ने वामपंथ का गढ़ ढहा दिया था। इस बार शत्रुओं के प्रति कोई 'ममता' न रखने वाले वामपंथी विचार की तर्ज पर विरोधियों को उसी भाषा में जवाब देते हुए तृणमूल ने अपना दबदबा और बढ़ा लिया। तमिलनाडु में एआइएडीएमके की सत्ता का बना रहना भी कम चमत्कारिक नहीं है। जयललिता की वापसी तीन दशक से जारी सत्ता की अदला-बदली की परिपाटी तोड़ने वाली है।
राज्य राजनीति की नई परिभाषा और अलग समझ की जरूरत पैदा करते इन नतीजों का अगुआ असम है। लेकिन इसके साथ ही अन्य राज्यों खासकर तमिलनाडु और प. बंगाल के नतीजे राजनीति से परे कुछ और विश्लेषण की मांग करते हैं। प. बंगाल चुनाव के दौरान एक खास वर्ग के तुष्टीकरण की और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के उपद्रव को नजरदांज करने वाला तृणमूल कांग्रेस का चश्मा कौन-सा है? कहा जा सकता है कि बंगाल में ममता वामपंथ को उसी के हथियारों से परास्त करते हुए कहीं आगे बढ़ गई हैं। लेकिन सवाल है कि क्या शासन और राजतंत्र को किसी खास वोट बैंक के हितों का बंधक बनाया जा सकता है?
महान गणितज्ञ रामानुजन की जमीन से भी कुछ ऐसी ही चिंताजनक खबरें मिलीं। तमिलनाडु में सत्ता के समीकरण मतदाताओं में मिक्सर ग्राइंडर बांटकर बैठाए जा रहे थे! राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को ललचाने की होड़ इतनी तेज थी कि चुनाव आयोग को अरावकुरिचि और तंजावुर विधानसभाओं का मतदान टालना पड़ा। यह भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के स्तर का स्खलन नहीं तो और क्या है?
जिस बंगाल का नाम लेने भर से रोमांच हो आता हो, भारत के बलिदानी क्रांतिकारियों की उस भूमि पर राजनैतिक बदल के बाद भी क्या तुष्टीकरण को पोसने की कहानियां ही निकलेंगी? इसरो जैसी संस्था से लेकर विश्व के तमाम शीर्ष ज्ञान मंचों पर जिस राज्य से निकली प्रतिभाओं की तूती बोलती हो, वहां की जनता के राजनैतिक निर्णय कितने ठोस माने जाएंगे?
ऐसे में क्षेत्रीय अस्मिता के लिए राष्ट्रीय स्वर से कदमताल करता असम अलग उदाहरण लाया है। सितारों की चमक, लालच में मतों की लुढ़क-पुढ़क असम चुनाव में नहीं दिखी। इसकी बजाय राजनीतिक भ्रष्टाचार के अंत, क्षेत्र के विकास और घुसपैठियों की समस्या जैसे गंभीर मुद्दों पर लोगों ने एकजुट होकर मन बनाया।
बहरहाल, पांचों राज्य विधानसभाओं के परिणाम और विभिन्न दलों को प्राप्त सीट संख्या से भी ज्यादा जिस बात का उल्लेख जरूरी है वह है एक विशेष राजनीतिक दल और उसकी नीतियों के प्रति मतदाताओं का बढ़ता रुझान।
निश्चित ही इन नतीजों के बाद भाजपा को छोड़कर, राष्ट्रीय दल की मान्यता रखने वाले अन्य दलों के लिए चिंताएं गहरी हैं। भारतीय राजनीति में नए राष्ट्रीय ध्रुव को ज्यादा मजबूती मिलना लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छा है। क्षेत्रीय दलों का उभार भी कोई बुरी बात नहीं किन्तु बड़े-पुराने दलों की बुरी आदतों को पकड़ना और मतदाताओं को बांटने या बहकाने की उन्हीं राहों पर बढ़ना देश के लिए हितकारी नहीं।
अनुकूलता की नई स्थितियां भाजपा के लिए आनंद से ज्यादा कर्तव्यबोध लेकर आई हैं ऐसा मानना चाहिए। क्योंकि यह स्थापित राजनीति से पैदा ऊब ही है जो भाजपा के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोल रही है।
इन परिणामों को राज्यों की आकांक्षाओं के राष्ट्रीय उभार के तौर पर देखा जाना जाहिए। राजनीति की जमी-जमाई रीत को उलटने वाली यह लोकतांत्रिक उठापटक उन चेहरों की खोज है जो दिया गया काम पूरा करने का दम रखते हैं, तलाश पूरी होगी तो भारतीय राजनीति और उजली होकर उभरेगी।
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