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-फरहत रिज़वी-
एक बार फिर से शायरा बानो की वजह से तलाक का मुद्दा गर्म है। हालांकि यह कोई नया मुद्दा नहीं है। ऐसे कितने मामले देश की विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हैं। शायरा का मामला तो इसलिए सुर्खियों में है क्योंकि उसने इंसाफ के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सवार्ेच्च न्यायालय से गुहार लगाई है। इतना ही नहीं उसने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 के अनुच्छेद -2 की संवैधानिता को भी चुनौती दे डाली है, जिसके अंतर्गत बहु विवाह, तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी प्रथाओं को देश में शरीयत ने मान्यता दी है। याचिका में इन प्रावधानों को महिला विरोधी, मानवाधिकार विरोधी और आपराधिक बताते हुए उन पर रोक लगाने की मांग की गई है। शायरा ने मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 की सार्थकता पर भी सवाल उठाया है। शायरा की इस याचिका से गैर-जिम्मेदार पतियों और उनकी तरफदारी करने वालों की नींद उड़ गई है।
इस्लाम में महिला के पारिवारिक और सामाजिक अधिकारों, आर्थिक सुरक्षा और सम्मान का विशेष ध्यान रखा गया है। शरीयत ने विशेष परिस्थितियों में, जैसे पत्नी बांझ है, अपंग है या दोनों के साथ रहने की कोई संभावना नहीं है, ऐसे में तलाक की इजाजत जरूर दी है, लेकिन हलाला चीजों में अल्लाह ने तलाक को सबसे नापसंदीदा चीज करार दिया है। और यदि तलाक की नौबत आ जाए तो जिस तरह सार्वजनिक तौर पर गवाहों की उपस्थिति में निकाह संपन्न होता है उसी तरह दोनों पक्षों की सहमति से गवाहों की मौजूदगी में तीन तलाक की प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए। एक तलाक के बाद दोनों एक छत के नीचे साथ रहें। यदि शारीरिक संबंध होते हैं तो तलाक खारिज मानी जाएगी। इसी तरह बाकी दो तलाकों की प्रक्रिया होनी जरूरी। तीन महीने का समय दोनों को पुनर्विचार करने के लिए काफी है। इसे 'तलाके अहसन' कहा गया है और यही तरीका कुरान की आयतों में वर्णित है। जहां तक एक बैठक में तीन तलाक का मामला है उसका उल्लेख कुरान में कहीं नहीं है। स्पष्ट हो कि एक बैठक में दिए गए तलाक, जिसे 'तलाके मुगल्लेजा' या 'तलाके बिदअत' कहा गया है, के दुष्परिणामों के कारण ही मुस्लिम महिलाएं सबसे ज्यादा शोषण का शिकार हो रही हैं।
एक तथ्य यह भी है कि मुसलमानों में शिया और अहले हदीस मसलक (विचारधारा) में एक बैठक में तीन तलाक मान्य नहीं है। हनफी फिरके के मानने वालों (ये संख्या में सबसे ज्यादा हैं) में तीन तलाक प्रचलित है। गैर-कुरआनी होने के बावजूद वे इसका इस्तेमाल अपनी सुविधा के लिए धड़ल्ले से करते हैं। अक्सर गुस्से या शराब के नशे में दिए गए तलाक के बाद जब होश आता है तो पुन: पत्नी से संबंध बनाने के लिए पत्नी को हलाला निकाह से गुजरना पड़ता है। दूसरी स्थिति में दूसरी शादी का इच्छुक पुरुष पत्नी से पीछा छुड़ाने के लिए भी तीन तलाक का हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है।
इस समय बड़ा और अहम सवाल है कि कुरान शरीफ में वर्णित तलाके अहसन, जिस पर सभी मुसलमान एकमत हैं, उसे दरकिनार करते हुए मुसलमान गैर-कुरानी तरीके से तलाक क्यों देते हैं? इस कुकर्म को उलेमा और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाएं खत्म करने में क्यों नाकाम सिद्ध हुई हैं? सच बात तो यह है कि इस दिशा में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी मुसलमानों और न्याय प्रक्रिया को मायूस ही किया है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन अप्रैल,1973 में मुसलमानों से संबंधित पारिवारिक मामलों जैसे शादी, तलाक, तीन तलाक, हलाला निकाह, पैतृक संपत्ति में संतान की हिस्सेदारी, वक्फ संपत्ति के विवाद, मदरसा शिक्षा के स्तर में सुधार आदि मसलों को सुलझाने के लिए किया गया था। लेकिन बोर्ड अपनी उपलब्धियों और सुधारात्मक कार्यप्रणाली के लिए कम, अदालतों के आदेशों का विरोध और सरकार पर दबाव बनाने के लिए ज्यादा चर्चा में रहा है। हाल ही में मुस्लिम पॉलिटिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ़ तस्लीम रहमानी ने बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए हैं। बोर्ड की कई महिला सदस्य भी महिला संबंधी मामलों के निर्णयों से असंतुष्ट हैं।
2008 में बोर्ड ने सभी फिरकों के उलेमाओं की सहमति के बाद एक मॉडल निकाहनामा जारी किया था। इसमें तलाकशुदा महिला को आर्थिक, सामाजिक और भावानात्मक सुरक्षा दी गई थी, लेकिन इसे व्यवहार में कम ही लाया गया। अब तो बोर्ड की वेबसाइट से भी मॉडल निकाहनामा गायब है। बोर्ड के प्रवक्ता जफरयाब जीलानी ने सफाई दी थी कि वेबसाइट को अद्यतन करते समय वह तकनीकी कारण से उड़ गया जबकि सूत्र बताते हैं कि बरेलवी विचारधारा के उलेमा, जो तीन तलाक के बड़े पक्षधर हैं, के दबाव में मॉडल निकाहनामा को वेबसाइट से हटाया गया था।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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