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अपरान्ह के दो बज रहे होंगे। उत्तर प्रदेश के धार्मिक शहर वृंदावन में तराश मंदिर वृद्ध आवासीय प्रकल्प, गोशाला नगर के एक वृद्धाश्रम के छोटे से कमरे में डॉ. लक्ष्मी गौतम एक वृद्ध महिला को ढाढस बंधा रही हैं कि सब ठीक हो जायेगा। वह वृद्ध महिला लकवे से पीडि़त हैं और उनके अपने ऐसी अवस्था में उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ गए हैं। वह महिला डॉ. गौतम से कहती हैं,''बिटिया तुम आ जाती हो तो मन खुश हो जाता है।'' उनके आने की खबर जैसे ही वृद्धाश्रम में फैलती है दर्जनों बुजुर्ग महिलाएं दौड़कर डॉ. गौतम के आसपास जमा हो जाती हैं। इन्हीं में से एक श्यामली हैं जो कोलकाता के 24 परगना जिले की हैं। वे डॉ. गौतम से लिपट जाती हैं, '' तुम तो हमारा सहारा हो। तुम आती हो तो ऐसा लगता है कि हमारा कोई अपना आ गया है जो हमारी चिंता करता है।''
यह प्रसंग खास इसलिए है क्योंकि जिस समय हम डॉ. गौतम से मिलने गए वह प्रतिदिन की तरह वृद्धाश्रम में थीं। वे हर दिन वृंदावन के वृद्धाश्रमों में जाती हैं, बेसहारा बूढ़ी महिलाओं की समस्याएं सुनती हैं, उनके दु:ख बांटती हैं और जहां तक बन सके, उनकी समस्याएं सुलझाती हैं।
कनकधारा फाउंडेशन की अध्यक्ष डॉ. गौतम वैसे तो वृंदावन के आईओपी कॉलेज में प्रोफेसर हैं, लेकिन वे अपना ज्यादा से ज्यादा समय इस काम के लिए निकालती हैं। उनकी दिनचर्या का एक बड़ा समय इन असहाय महिलाओं के साथ बीतता है। प्र्रतिदिन भोर में 5 बजे उठना, यमुना किनारे परिक्रमा मार्ग का चक्कर लगाना। अगर इस दौरान कोई असहाय महिला दिखती है तो उसे उचित आश्रय पर पहुंचाना जैसे उनका रोज का क्रम है। यह सिलसिला करीब दो दशक से चल रहा है। सड़क पर दिखी बीमार महिला को अस्पताल पहुंचाना, किसी भूखी महिला को खाना देना, पेंशन के कार्ड और राशन कार्ड बनवाना, उनकी दिनचर्या का एक अहम हिस्सा है। वृंदावन के लोग उनके इस सेवाकार्य से अच्छी तरह परिचित हैं। जब भी कोई कहीं किसी लाचार महिला को देखता है तो उनके दरवाजे पर छोड़ जाता है। वृंदावन ऐसी बेसहारा महिलाओं का भारत का सबसे बड़ा आश्रयस्थल है। आंकड़े बताते हैं कि पारिवारिक झगड़ों, पारिवार से छोड़ दिए जाने या विधवा होने के बाद पालन-पोषण करने वाला कोई परिजन न होने से वृंदावन पहु़ंचने वाली खासकर बुजुर्ग महिलाओं की संख्या 10 हजार के आसपास है।
डॉ. गौतम कहती हैं,''मेरे पिताजी तीर्थ पुरोहित परिवार से थे। इसलिए पश्चिम बंगाल की बहुत सी माताएं घर आती थीं। इन्हीं माताओं की गोद में मैं भी पली-बड़ी। उनमें से एक लतिका थीं जिन्हें मैं मां कहकर पुकारती थी। मैं देखती थी कि हमेशा उनके सिर पर बाल नहीं होते थे। सफेद रंग की साड़ी में बड़ी दु:खी रहती थीं। कई बार पिताजी से इस बारे में पूछने की कोशिश करती तो डांट पड़ती थी। बाद में पता चला कि वह विधवा हैं। विवाह के एक वर्ष बाद ही उनके पति का देहांत हो गया था। इसलिए वह श्रंृगार नहीं करती थीं। तभी से मुझे लगता रहा कि इन महिलाओं के लिए कुछ करना चाहिए।'' 1995 में वृंदावन के बांके बिहारी अठखंबा बार्ड से सभासद चुने जाने के बाद उनके काम में और भी गति आई। वे बताती हैं, ''ऐसी बेसहारा माताओं के रुके हुए काम करवाने में मेरे सभासद होने से बड़ी मदद मिली। मेरा प्रयास रहता था कि इनको चिकित्सा सुविधा एवं उनकी जरूरत की दूसरी चीजें मिल जाएं। इस दौरान कुछ समय के लिए बाधा भी आई। लेकिन 2008 के बाद मैंने कभी भी इस कार्य में पीछे मुड़कर नहीं देखा। दिन हो या रात, किसी असहाय महिला की सूचना मिलते ही मैं उसकी मदद के लिए चली जाती हूं।''
बूढ़ी, असहाय महिलाओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बहुत बदलाव नहीं आया है, हालांकि महिलाओं की सेवा के कई कार्य इस धर्म-नगरी में चल रहे हैं। डॉ. गौतम एक मार्मिक उदाहरण देती हैं,''एक दिन एक फोन आया, पता लगा कि यमुना के पास एक वृद्ध महिला बेसुध पड़ी है, उसके तन पर एक भी वस्त्र नहीं है। ऐसा नहीं कि वहां लोग नहीं थे, लेकिन किसी ने उसे उठाने की जरूरत नहीं समझी। लोग सिर्फ तमाशा देख रहे थे। खबर मिलते ही मैं तत्काल वहां जा पहुंची। मुझसे उसकी हालत देखी नहीं गई। मैं उसे उठाकरअस्पताल ले गई, जहां उसका इलाज कराकर उसे वृद्धाश्रम में भिजवाया।''
डॉ. गौतम को मध्यरात्रि में भी किसी असहाय महिला के अस्वस्थ या परेशानी में होने की सूचना मिलती तो वे दौड़ी चली जाती हैं। वे अभी तक करीब 1,000 महिलाओं को समझा-बुझाकर उन्हें फिर से उनके परिवार का हिस्सा बना चुकी हैं और सैकड़ो वृद्ध महिलाओं को सम्मानपूवर्क जीवन जीने के लिए आश्रय स्थल उपलब्ध करा चुकी हैं। इस सेवाकार्य के लिए उन्हें 2014 में राष्ट्रपति की ओर से नारी शक्ति पुरस्कार मिला। दूसरे ढेरों पुरस्कारों से भी वे सम्मानित की जा चुकी हैं। वे बताती हैंं,''वृंदावन में करीब 4,000 से अधिक असहाय विधवा महिलाएं हैं, जो बाहरी राज्यों से आई हैं। मैं अभी भी पाती हूं कि बहुत सी माताएं दवाई के अभाव में भिक्षा मांगती हैं। मैं जितना उनके लिए कर सकती हूं करती हूं, पर शायद यह कम है।''
दो दशक की इस यात्रा में आई कठिनाइयों पर वे कहती हैं,''चारदीवारी से लांघकर और लीक से हटकर जब कोई महिला काम करती है तो परेशानियां तो आती ही हैं। लेकिन कहीं न कहीं इसमें एक मौका छिपा होता है और उसे ही हमें पहचानना होता है। जैसे महिला होकर श्मशान पर जाना और किसी लावारिस महिला का अंतिम संस्कार कराना एक चुनौती ही है। मैंने इसे निभाया। लोग इसका विरोध करते तो मैं उनसे यहीकहती कि 'तो फिर आप यह काम कीजिए!' तब आलोचना करने वाले चुप हो जाते।
डॉ. गौतम मानती हैं कि यदि महिलाओं की स्थिति सुधारनी है तो उसकी शुरुआत कन्या भू्रण हत्या रोकने से की जानी चाहिए। साथ ही बेटी को अधिक-से अधिक शिक्षित किया जाना चाहिए। वे कहती हैं, ''मां-बाप जिस दिन से बेटियों को बोझ समझना बंद कर देंगे, बराबर का हक देने लगेंगे, उस दिन से परिस्थितियां बदल जाएंगी।''
हरियाणा के झज्जर जिले के दीघल गांव में जन्मी और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की प्रो. डॉ. संतोष दहिया का संघर्ष अनोखा है। यह वही राज्य है जो महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के बर्ताव के लिए देश-दुनिया में एक स्याह तस्वीर पेश करता है। लेकिन अब… ऐसा नहीं है। कुछ समय पहले तक जिस देहरी पर महिलाओं की परछाई नहीं पहुंच पाती थी और लड़कियों के जन्म और जिंदा रहने के फैसले मदार्ें पर निर्भर रहते थे। आज वहीं दहिया दमदारी के साथ महिलाओं की आवाज बुलंद करती हैं। कोख में बेटियों की हिफाजत से लेकर घूंघट के पीछे छिपे बेबस लबों को वे आवाज देती हैं। वे खाप में बैठकर महिलाओं के मुद्दे को बड़ी शिद्दत के साथ सुनती हैं। इससे पहले संतोष दहिया का संघर्ष अनोखा है। यह वही राज्य है जो महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के बर्ताव के लिए देश-दुनिया में एक स्याह तस्वीर पेश करता है। लेकिन अब… ऐसा नहीं है। कुछ समय पहले तक जिस देहरी पर महिलाओं की परछाई नहीं पहुंच पाती थी और लड़कियों के जन्म और जिंदा रहने के फैसले मदार्ें पर निर्भर रहते थे। आज वहीं दहिया दमदारी के साथ महिलाओं की आवाज बुलंद करती हैं। कोख में बेटियों की हिफाजत से लेकर घूंघट के पीछे छिपे बेबस लबों को वे आवाज देती हैं। वे खाप में बैठकर महिलाओं के मुद्दे को बड़ी शिद्दत के साथ सुनती हैं। इससे पहलेे शायद ही किसी महिला ने खाप में पुरुषों के बीच बैठकर उनके सामने बैठने का साहस शायद ही किया होगा, लेकिन दहिया ऐसा करती हैं। वे सर्वजात सर्वखाप के महिला प्रकोष्ठ की राष्ट्रीय महिला अध्यक्ष हैं।
डॉ. दहिया कहती हैं,''मैंने बचपन से यहां महिलाओं के लिए संकुचित मानसिकता देखी है और इसे स्वयं सहन किया है। मैं राज्य स्तर की तैराक थी लेकिन यहां के परिवेश और तैराकी के लिए पहनने वाले कपड़ों की वजह से मुझे इसे छोड़ना पड़ा। मैंने घुटने नहीं टेके। दूसरे पारंपरिक खेलों में भाग लेकर अपने गांव और प्रदेश का नाम रोशन किया।'' कन्या भू्रण हत्या के लिए देश में कुख्यात हरियाणा में दहिया ने बेटी बचाओ का एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया है। डॉ. दहिया का सबसे अधिक ध्यान कन्या भू्रण हत्या रोकने पर है। वे इसके लिए राज्य में दूर-दराज के गांवों तक जाती हैं। ग्रामीण महिलाओं, छात्र-छात्राओं और पंचायतों के बुजुगार्ें से मिलती हैं और उन सबको अपने परिवारों में कन्या भू्रण हत्या न करने की शपथ दिलाती हैं। कन्या भ्रूण हत्या न करने के शपथ पत्र पर वे अब तक हजारों लोगों के हस्ताक्षर करवा कर चुकी हैं। इस अभियान के तहत हाल ही में उन्होंने मुजादपुर गांव को गोद लिया है जहां 2013-14 में 1,000 लड़कों पर 273 लड़कियां पैदा हुईं थी। डॉ. दहिया परदा प्रथा समाप्त करने के लिए 'हमारा बाणा, परदामुक्त हरियाणा' अभियान भी चला रही हैं। इसके लिए उन्हें समय-समय पर अनेक पुरस्कार भी मिले हैं।
रोशनी मुखर्जी बंगलुरू में रहती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने भौतिक विज्ञान से एमएससी की है। वे ६६६.ी७ंेाीं१.ूङ्मे नाम से एक वेबसाइट चलाती हैं। इसके तहत कक्षा 6 से 12 तक के छात्रों को मुफ्त में शिक्षा देती हैं। ऑनलाइन शिक्षा देने का उनका यह सिलसिला जुलाई, 2011 से चल़ रहा है। दिल्ली विश्व विद्यालय में शिक्षा पूरी करने के बाद वे बंगलुरू आ गई। यहां उन्होंने एक आईटी कंपनी में छह वर्ष तक नौकरी की। लेकिन वे सिर्फ नौकरी कर संतुष्ट नहीं थीं। उन्हें हमेशा लगता था कि एक शिक्षक किसी के जीवन में जितना परिवर्तन ला सकता है, उतना और कोई नहीं ला सकता। उन्होंने विचार कर तय किया कि इंटरनेट जरूरतमंद छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का उपयोगी माध्यम बन सकता है। आइटी सेक्टर में काम करने के कारण वे इंटरनेट की ताकत को अच्छी तरह से जानती थीं। उन्हें पता था कि इसके माध्यम से वे लाखों लोगों तक जुड़ सकती है और उनकी मदद कर सकती हैं। वे बताती हैंं,'' मेरे घर में हर दिन काम करने के लिए एक महिला आती थी और शिकायत भरे अंदाज में कहती कि मैं जहां रहती हूं वहां के स्कूल में अच्छी पढ़ाई नहीं होती जिससे मेरा बच्चा पढ़ाई में कमजोर है। मैंने उसकी आंखों में अपने बच्चे के लिए एक सपना देखा। उसकी पीड़ा ने मुझे भीतर तक कचोट दिया। लेकिन मैं ऊहापोह में थी क्योंकि मैं पूरे समय नौकरी करती थी और इतना समय नहीं मिल पाता था कि घर-घर जाकर फिर अन्य किसी तरीके से कुछ नया कर सकूं।''
अंतत: उन्होंने 2011 में ६६६.ी७ंेाीं१.ूङ्मे नामक अपना वेब पोर्टल शुरू कर दिया। वे दिनभर दफ्तर में काम करतीं और रात में अपने पोर्टल और यूट्यूब चैनल पर सामग्री अपलोड करतीं। वे कहती हैं, ''यह समय मेरे लिए बेहद कठिन था। दोनों काम एक साथ नहीं हो पा रहे थे। इसलिए मैंने 2014 में नौकरी छोड़ दी और पूरे समय अपनी वेबसाइट पर काम करने लगी।'' उन्होंने अब तक 5,000 से ज्यादा शैक्षणिक वीडियो बनाये हैं जिनमें भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और गणित की सभी थ्योरियों को आसान तरीके से समझाया गया है। हर रोज हजारों जरूरतमंद विद्यार्थी उनके वेब पोर्टल पर विजिट करते हैं, वे पहले वीडियो देखते हैं, फिर सवाल पूछते हैं, नोट्स लेते हैं, आखिर में एक परीक्षा देते हैं और उससे स्वयं का आकलन करते हैं। रोशनी गर्व से कहती हैं, ''आज मेरे यू-ट्यूब चैनल पर करीब 1 लाख से ज्यादा विद्यार्थी जुड़े हैं।'' रोशनी के इस कार्य को देखते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने हाल ही में उन्हें देश की 100 प्रभावशाली महिलाओं में चुना था।
भोपाल के बरखेड़ी अब्दुल्ला पंचायत की युवा सरपंच भक्ति शर्मा की कहानी दूसरों से हटकर है। हाल ही में भक्ति को अपने गांव के विकास और उसके स्वरूप को बदलने के लिए देश की 100 सबसे प्रभावशाली महिलाओं में से चुना गया और गणतंत्र दिवस से पहले 22 जनवरी को राष्ट्रपति ने उन्हें उनके प्रभावी काम के लिए सम्मानित किया। शांत और सौम्य भक्ति अपने गांव की सरपंच हैं। समूचे गांव की वे लाड़ली हैं। अपने गांव और माटी में काम करने की ललक के चलते वे अमेरिका से लौट आईं। उनकी ललक का परिणाम भी दिख रहा है। अब गांव की सूरत बदल गई है। जिस गांव में कभी पीने के पानी का संकट होता था आज वहां यह संकट लगभग दूर हो चुका है। जहां ठीक से चलने के लिए सड़कें नहीं थीं वहां सड़कें बन गईं हैं। अमेरिका से लौटने और अपने गांव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें अपने पिता की एक सीख से मिली। वे बताती हैं,'' मैंने भोपाल के ही नूतन कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एमए किया। मेरा आधा परिवार पहले से ही अमेरिका में था। मैं भी अमेरिका चली गई। लेकिन कहीं यह जरूर लगता था कि मेरे गांव के लोग मुसीबतें झेलते हैं और हम सुख का जीवन जी रहे हैं क्योंकि हम साधनसंपन्न हैं। मन इससे बहुत व्यथित होता था। इसी दौरान मेरे पिताजी ने मुझसे एक बात कही, उन्होंने कहा, ''कभी हरे नोटों के पीछे नहीं भागना।'' पिता की इस बात ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। अंंतत: एक दिन उन्होेंने निर्णय ले ही लिया कि उन्हें अमेरिका में नहीं रहना और अपने लोगों के लिए कुछ करने के लिए गांव लौटना है। उन्हें अमेरिका में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अच्छे पैकेज ऑफर कर रही थीं लेकिन अपने लोगों के लिए काम करने को वे गांव लौट आईं। भक्ति जब अपने गांव लौटी तो गंाव की पंचायत के सरपंच का चुनाव होना था। सरपंच की वह सीट महिला सामान्य सीट थी। गांव के लोगों को लगा कि भक्ति उनमें सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं। सो, उन लोगों ने भक्ति से सरपंच पद की प्रत्याशी बनने का अनुरोध किया। वे चुनाव की राजनीति में पड़ने के लिए गांव नहीं लौटी थीं। लेकिन गांववालों का पक्का मानना था कि भक्ति ही हैं जो गांव का विकास बेहतर ढंग से कर सकती हैं। आखिरकार भक्ति सरपंच चुनाव लड़ने को राजी हो गईं। जैसी उम्मीद थी, नतीजा उनके पक्ष में रहा।'' भक्ति गंभीर मुद्रा में कहती हैं ''सरपंच बनने के बाद मेरी परीक्षा शुरू हुई। मेरी जिम्मेदारियां अचानक बढ़ गईं, लेकिन मेरे पास एक मौका आया था और शायद इसी मौके के चलते मैं अपने लोगों और अपने गांव और वहां के लोगों के लिए कुछ ऐसा कर सकती थी जिससेे उनकी जिंदगी में सकारात्मक बदलाव आए।'' सरपंच का पदभार संभालते ही भक्ति ने गांव की बुनियादी जरूरतों पर ध्यान दिया, ''मैंने हर घर में शौचालय बनाने की रूपरेखा तय की। आज गांव के अधिकतर घरों में शौचालय बन चुके हैं। साथ ही पीने के पानी की समस्या भी सुलझ गई है।'' मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की 'बेटी बचाओ योजना' के अंतर्गत भक्ति अपना दो महीने का मानदेय उस महिला को देती हैं जो बेटी को जन्म देती है। साथ ही उस बेटी के नाम से अपने ग्राम पंचायत में एक पेड़ भी लगाती हैं। भक्ति को अभी सरपंच बने एक साल ही हुआ है, लेकिन उन्होंने इतने कम समय में ही अपने गांव की तस्वीर बदलने का कारनामा कर दिखाया है। दरअसल, महिलाओं में परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए अपने बलबूते कुछ करने की गजब की क्षमता है। आज महिलाएं हर उस काम में सहभागिता कर रही हैं जहां उनके सक्रिय होने की पहले कल्पना भी नहीं की जाती थी।
डॉ. लक्ष्मी गौतम, 53 वर्ष
अध्यक्ष, कनकधारा फाउंडेशन, वृंदावन, (उ.प्र.)
यदि वृंदावन में आज असहाय वृद्ध महिलाएं सम्मान का जीवन जी रही हैं तो इसका श्रेय डॉ. लक्ष्मी गौतम को जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास में गोल्ड मेडलिस्ट और वृंदावन के आईओपी कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. गौतम असहाय वृद्ध महिलाओं की सहारा हैं। वृंदावन के समान्य से लेकर विशिष्ट तक सभी लोग उनके इस सेवाभाव का सम्मान करते हैं।
डॉ. संतोष दहिया, 45 वर्ष
प्रोफेसर, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा
दहिया आज हरियाणा में किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। जिस देहरी पर महिलाओं की परछाई तक नहीं पहुंच पाती थी वहां उन्होंने उन की आवाज बुलंद की है। कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिए उन्होंने गांव-गांव में अभियान चला रखा है और वे राज्य भर में हजारों लोगों को भू्रण हत्या न करने की शपथ दिला चुकी हैं। देश की 100 सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची में शामिल।
रोशनी मुखर्जी, 29 वर्ष
संचालक, एक्जामफीयर डॉट कॉम, बंगलुरू (कर्नाटक)
दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से एमएससी (फिजिक्स) की डिग्री लेने वाली रोशनी मुखर्जी कक्षा 6 से 12 तक के छात्रों को अपने एजुकेशन पोर्टल के माध्यम से मुफ्त में शिक्षा देती हैं। उनके वेब पोर्टल पर 1,10,000 से भी ज्यादा लोग जुड़ चुके हैं, जो हर दिन उसपर विजिट करते हैं हैं, वीडियो देखते हैं और सवालों के उत्तर पाते हैं।
भक्ति शर्मा, 26 वर्ष
सरपंच, बरखेड़ी अब्दुल्ला पंचायत, भोपाल (म.प्र.)
एक वर्ष के भीतर अगर भोपाल का यह गांव आज चमचमाता है तो इसके पीछे भक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। वे गांव की लाड़ली और दुलारी बिटिया बन चुकी हैं। अपनी माटी और लोगों के लिए काम करने की ललक उन्हें अमेरिका से खींच लाती है और वे भी पूरे मन के साथ काम करती हैं और समाज के सामने एक मिसाल पेश करती हैं। देश की 100 सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची में।
अश्वनी मिश्र
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