|
जफ्फरनगर दंगों के एक मामले में महिला और बच्चे की हत्या के 10 आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में न्यायालय ने बरी कर दिया। इस फैसले से सपा सरकार के संरक्षण में निर्दोष लोगों को झूठे मामलों में फंसाने की कलई खुल गई। लेकिन मुस्लिम संगठनों के दबाव में आई उत्तर प्रदेश सरकार ने आनन-फानन में पीडि़तों की ओर से पैरवी कर रहे सरकारी अधिवक्ता साजिद राणा को सरकारी पैनल से हटा दिया। आरोपियों को बरी किए जाने फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी भी की जा रही है।
दरअसल मुजफ्फरनगर दंगों के ढाई साल बाद वहां का सच उजागर होने लगा है कि कैसे राज्य सरकार ने एक वर्ग विशेष को प्रसन्न करने के लिए हजारों बेगुनाह नौजवानों को राजनीतिक आधार पर झूठे मामलों में फंसाया। 7 सितंबर 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे पर अतिरिक्त सत्र न्यायालय के फैसले से सामने आई। न्यायाधीश अरविंद कुमार उपाध्याय ने फुगाना थाना क्षेत्र के लांक गांव में एक महिला और 10 वर्षीय एक बालक की हत्या के मामले मंे सभी 10 नामजद आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। दंगों से संबंधित अदालत का यह पहला निर्णय था।
मुजफ्फनगर के नंगला मंदौड में कवाल कांड को लेकर 7 सितंबर 2013 को हुई महापंचायत से लौटते ग्रामीणों पर सुनियोजित ढंग से हमले हुए थे जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद पूरे जिले मंे दंगा भड़क उठा। 8 सितंबर 2013 को फुगाना क्षेत्र के गांव लाक में गुस्साए लोगों द्वारा की गई हिंसा और आगजनी के दौरान इकबाल के 10 वर्षीय बेटे आस मोहम्मद और वहीद की 30 वर्षीय बीवी सराजो की मौत हो गई और एक महिला रमजानो घायल हुई थी। मृत बच्चे के पिता इकबाल की ओर से फुगाना थाने में लांक निवासी 14 लोगों के खिलाफ हत्या, आगजनी, बलवे की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।
एसआईसी (विशेष जांच प्रकोष्ठ) ने जांच के बाद 13 आरोपियोें के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी। पुलिस ने कुलदीप पुत्र ओम सिंह, भारत, नीरज, सतेंद्र, मोनू पुत्र सुभाष, देवेंद्र उर्फ काना, प्रताप, अंकित, श्रवण, विनय पुत्र सूबा एवं संजय को गिरफ्तार कर जेल भेजा था। लेकिन अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश उपाध्याय की अदालत ने संजय को छोड़कर बाकी सभी को दोषमुक्त करते हुए बरी कर दिया। 8 फरवरी को मुजफ्फरनगर के मुस्लिम नेता मौलाना मोहम्मद जाकिर और जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द के जिलाध्यक्ष ने जिलाधिकारी निखिल चंद्र शुक्ला से शासकीय अधिवक्ता साजिद राणा को हटाए जाने और न्यायालय के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देने की मांग की। इसके तुरंत बाद ही राणा को हटा दिया गया। शुक्ला ने फोन पर बताया कि मुजफ्फनगर दंगा मामले में शासन की ओर से चार वकीलों का एक पैनल बनाया गया था जिसमें से एक राणा 19 जनवरी, 2015 से सरकारी पक्षकार के तौर पर करीब कई मामलों की पैरवी कर रहे थे। उनका प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा था। कुछ आरोपियों को जमानत मिलने पर उन्होंने ऊपरी अदालत में अपील तक नहीं की। ल्ल सुरेन्द्र सिंघल
यह था मामला
7 सितम्बर, 2013 को मुजफ्फरनगर में महापंचायत से लौटते हिन्दुओं पर मजहबी उन्मादियों द्वारा सुनियोजित तरीके से हमला किया गया था। इस कवाल कांड से अगले दिन 8 सितम्बर को लांक गांव में भड़की हिंसा और आगजनी में 30 वर्षीय महिला सराजो और 10 वर्षीय आस मोहम्मद की मौत हो गई थी, एक अन्य महिला रमजानो घायल हुई थी। थाना फुगाना में मृतक बच्चे के पिता इकबाल ने 13 लोगों, जबकि सराजो के पति वहीद ने आठ लोगों के विरुद्ध मामला दर्ज करवाया था। घटना के बाद उ. प्र. शासन के आदेश पर विशेष जांच प्रकोष्ठ ने 13 आरोपियों के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किया था। पुलिस ने कुलदीप, भारत, नीरज, सतेन्द्र, मोनू, देवेन्द्र, प्रताप, अंकित, श्रवण, विनय और संजय को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था।
हम ने दंगे के बाद सपा सरकार के दबाव में काम कर रहे पुलिस-प्रशासन की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई पर कहा था कि अखिलेश सरकार बेगुनाहों के खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करवा रही है।
-डॉ. संजीव बालियान
केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री और सांसद मुजफ्फरनगर
मुजफ्फरनगर मामले में आया न्यायालय का फैसला उत्तर प्रदेश सरकार के लिए आईना है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बरी हुए निर्दोष लोगों से माफी मांगनी चाहिए।
-सुरेश राणा
विधायक, थानाभवन, शामली
टिप्पणियाँ