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छह दिन तक 19,500 फीट की ऊंचाई पर 25-30 फीट बर्फ के भीतर दबे रहे लांसनायक हनुमंतथप्पा को जीवित निकाले जाने की खुशी अस्थायी साबित हुई, मगर इस बीच इस बंजर बर्फीली चोटी को सैन्य मोर्चा बनाए रखने को लेकर चल रही बहस को फिर से बल मिल गया। इस जगह को आर्कटिक की तरह 'नो मैंस लैंड' मानने और भारत तथा पाकिस्तानी सेना की आपसी सहमति से वास्तविक नियंत्रण रेखा को नीचे लाने के पैरोकार तर्क देते हैं कि दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में इतने लोगों की जान को खतरे में डालकर आभासी युद्ध लड़ा जा रहा है। वे सियाचिन के कम सामरिक महत्व वाला स्थान होने का भी हवाला देते हैं (जो गलत है)। तो फिर हकीकत क्या है? जनता और नीतियां बनाने वालों को सच बताने का यह सही समय है कि हम सियाचिन में क्यों हैं, इसका क्या आधार है और हम उस जगह को क्यों नहीं छोड़ सकतेे? वैसे ज्यादातर लोग जानते हैं, फिर भी यह दोहराना उचित है कि 1972 में शिमला समझौते के बाद नक्शे पर एन.जे. 9842 तक नियंत्रण रेखा निर्धारित की गई थी। साथ ही इसके उत्तर में पड़ने वाले इलाके को इंसानों के रहने के लिहाज से सुरक्षित नहीं मानते हुए अचिन्हित ही छोड़ दिया गया था। 1978 में देखा गया कि पाकिस्तान सियाचिन क्षेत्र के लिए पर्वतारोही अभियान चला रहा है और यदि इसे रोका नहीं गया तो यह क्षेत्र सीधे पाकिस्तान के कब्जे में चला जाएगा। आखिरकार 1984 में भारतीय सेना ने सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण कर लिया। इस कब्जे से जुड़े तथ्य उल्लेखनीय हैं। प्रथमत: प्रतिकूल परिस्थितियों में इतने ऊंचे बर्फीले ग्लेशियर, जहां इंसान का रह पाना संभव नहीं था, पर फतह पाना और टिके रहना हमारी सेना का एक हैरतअंगेज कारनामा था। भारतीय सेना को यहां से हटाने के लिए पाकिस्तान ने कई कोशिशें कीं, पाकिस्तानी नाकामियों की ये कहानियां भारतीय सेना की शौर्य गाथाओं का हिस्सा हैं। हमने 76 किलोमीटर लंबे ग्लेशियर पर कब्जा करके वहां अपना सैन्य तंत्र खड़ा किया, रक्षात्मक मोर्चा बनाया, तोपखाना तथा हवाई रक्षा प्रणाली स्थापित की। वहां बर्फ ढकी चोटियों के बीच अपनी स्थिति को मजबूत बनाया। यह सब हमने 15,000 से 17,000 फीट की ऊंचाई पर किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि हम पश्चिम की तरफ गए जहां विभिन्न उप ग्लेशियरों के साथ-साथ एक मुख्य ग्लेशियर है, वहां साल्टोरो रिज के सभी दरार्ें पर अपना प्रभुत्व और नियंत्रण स्थापित किया।
अगर पाकिस्तान सियाचिन को पाना चाहता है तो यह जरूरी है कि हमें उसे इन सभी दर्रों और ढलानों से हटाना होगा। उनमें से एक है बिलाफोन्ड ला पास का दक्षिणी दर्रा, जिसे सोनम कहा जाता है। उसकी चोटी है बाना पोस्ट। 1987 में इस चोटी पर कब्जा किया था परमवीर चक्र विजेता 8 जम्मू-कश्मीर लाइट इन्फेंटरी के नायब सूबेदार (मानद कैप्टन) बाना सिंह ने। ये सोनम ही है जहां अभी हिमस्खलन हुआ था। सोनम को कब्जे में न लेने का मतलब बाना पर भी कब्जा नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि बिलाफोंडला की ढलानों पर पाकिस्तान का झंडा फहराएगा। अगर ऐसा होता है तो हमारी सियाचिन ग्लेशियर में टिकने की संभावना काफी कम हो जाएगी। यानी, साल्टोरो रिज के इस इलाके पर अपना कब्जा जरूरी है। अन्यथा निचले इलाके में दुश्मन द्वारा हमला करने की स्थिति में हमें काफी नुकसान उठाना पड़ेगा और पाकिस्तान बेहतर स्थिति में होगा।
इस क्षेत्र का भारत एवं पाकिस्तान दोनों के लिए रणनीतिक महत्व समझना जरूरी है। यह पाकिस्तान को गिलगित-बाल्टिस्तान होते हुए चीन से जोड़ने और स्वात तक पसरने में मदद करेगा। यदि हम साल्टोरो छोड़ देते हैं तो हम सियाचिन ग्लेशियर के निचले इलाकों पर नियंत्रण नहीं रख पाएंगे। इससे नुब्रा घाटी में हमारी सेना की तैनाती खतरे में पड़ सकती है। तब लेह घाटी में हमारी अगली असली सुरक्षा पंक्ति लद्दाख श्रृंखला होगी, जहां न गहरी पकड़ बन सकेगी और न ही अदल-बदलकर मोर्चे लेने की ज्यादा छूट होगी।
भारत और पाकिस्तान की सेनाएं हटाने की हिमायत करने वालों का कहना है कि सीमा पर वास्तविक स्थिति को नक्शे में चिन्हित करते हुए दोनों पक्ष मोचार्ें की ऊंचाई घटाने पर सहमति बना लें ताकि भविष्य में किसी भी विवाद से बचा जा सके। पहली बात पाकिस्तान साल्टोरो रिज में हमारी सेना की तैनाती से इनकार करता है क्योंकि आधिकारिक रूप से उसने अपनी जनता को यह नहीं बताया है कि वह सियाचिन ग्लेशियर के आसपास भी नहीं है। पिछले 30 सालों में पाकिस्तान वहां कदम भी नही रख सका है। हम पाकिस्तान पर भरोसा करने का जोखिम नहीं ले सकते। सारी बातों को छोड़कर हाल की गतिविधियों पर नजर डालें। गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में 'चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा' अवैध तरीके से बनाया जा रहा है, जिस पर हमने दावा किया भी है। यह हमारा इलाका है।
सियाचिन और नुब्रा घाटी पर नियंत्रण रखकर हम ऐसी स्थिति में हैं कि हम शक्सगाम घाटी पर नजर रख सकते हैं। सियाचिन ग्लेशियर सेक्टर में जवानों की मौत हमेशा चिंता का विषय रहेगा, लेकिन यह महत्वपूर्ण सामरिक ठिकाना है। इस मामले में कोई रियायत, कोई किफायत नहीं। हमारे अफसरों और जवानों को हर साजो- सामान बेहतरीन देना होगा ताकि हम सियाचिन के सबसे अहम सामरिक मोर्चे पर पाकिस्तान से हमेशा आगे रहें।
(लेखक 15 कार्प्स के कमांडर रहे हैं। उनकी यूनिट सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात थी। वर्तमान में वे विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन समेत विभिन्न संस्थाओं से जुड़े हैं।) -लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.)सैयद अता हसनैन
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