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-वी.पी. नंदा-
विदेशों में एचएसएस ने अपने व्यवहार से अर्जित किया है विशिष्ट सम्मान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने के लिए जरूरी है कि इसके गठन के समय के देश के राजनीतिक हालात को समझा जाए। उतना ही जरूरी है संगठन के संस्थापक के बारे में अपनी याद्दाश्त को दुरुस्त करना। हालांकि संगठन की स्थापना की कहानी सब जानते हैं, परंतु संघ के असर और उसकी उपलब्धियों को पुन: समझने के संदर्भ में इसे एक बार फिर से जानने की जरूरत है।
1925 की बात है। गांधी जी और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में देश ब्रिटिश शासन से जूझ रहा था। परंतु नागपुर के एक नागरिक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का कांग्रेस पार्टी की नीतियों एवं नेतृत्व से मोहभंग हो चुका था और इसीलिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से एक नवीन और गैर-पारंपरिक प्रयोग की शुरुआत की। कलकत्ता से उन्होंने डॉक्टरी की शिक्षा ली थी, जिसके बाद वह देश को ब्रिटिश शासन से आजाद कराने का सपना लेकर राजनीति के अखाड़े में आ गए थे।
एक कुशल चिकित्सक की भांति उन्होंने देश की नब्ज पहचानी। गहन ऐतिहासिक समझ के साथ देश के मौजूदा हालात के प्रति उनका नुस्खा सीधा-सरल था-सुप्त पड़े हिंदू समाज को उसकी क्षमता का अहसास कराया जाए ताकि वह उसी अनुसार कार्य करे। इसके लिए उन्होंने युवाओं और बच्चों के लिए 'शाखा' की शुरुआत की, जो कि एक समूह स्थल के तौर पर था, जहां वे खेल, मंत्रणा और विचार-विमर्श के लिए इकट्ठे होते थे। इस प्रक्रिया का लक्ष्य लोगों में आत्मसम्मान का विकास, उच्च नैतिक चरित्र, निष्ठा, देश की सांस्कृतिक धरोहर के प्रति आदर भाव और 'सेवा परमो धर्म:' के अप्रतिम भाव का विकास करना था।
डॉ़ हेडगेवार का यह प्रयोग बेहद सफल रहा। नागपुर के निकटवर्ती क्षेत्रों से शुरू होकर शाखाओं का कार्य देश के कोने-कोने तक फैल गया। शाखा में आने वाले कई युवा प्रचारक बने यानी पूर्णकालिक कार्यकर्ता जिन्होंने देश और मानवता की सेवा हेतु अपने घरेलू जीवन व करियर का त्याग किया।
यह परंपरा अक्षुण्ण चलती रही। प्रचारकों के बलिदान ने समाज को अभूतपूर्व लाभ पहुंचाया। जैसे, हिंदू संस्कृति का पुनरुत्थान स्पष्टत: नजर आ रहा था; संस्कृत का अध्ययन तेजी से बढ़ रहा था एवं योग, आयुर्वेद एवं ध्यान जैसी भारतीय परंपराओं ने लोगों के जीवन पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया था। आज इनका असर दुनियाभर में दिख रहा है। इस असर का ही कारण था कि कुछ वर्ष पहले संयुक्त राज्य अमेरिका की एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपा था 'हम सब हिंदू हैं'। रोजमर्रा की अमेरिकी जीवनशैली में घर कर चुकी भारतीय परंपराएं इसका कारण थीं।
संगठन के व्यापक असर पर बात करने से पहले जरूरी है कि हम इससे जुड़ी भ्रांतियों के बारे में बात कर लें। चूंकि आलोचक इसे एक राष्ट्रवादी अभियान कहते हैं, ऐसा कहते हुए वह इसकी तुलना तत्कालीन यूरोपीय उग्रपंथी राष्ट्रवादी एवं अतिवादी धाराओं से करते हैं। वे विचारधाराएं अधिकांशत: रंगभेदी, शरणार्थी विरोधी, विदेशी विरोधी एवं बहुसंस्कृति व बहुलता विरोधी थीं। 'वसुधैव कुटुम्बकम' की वैचारिक समृद्धि से लैस संघ अन्य मत-पंथों के अनुयायियों का विरोधी हो ही नहीं सकता, यही इसका सच है।
संघ से जुड़कर बचपन से ही मैंने जाना कि हिंदू संस्कृति एवं परंपरा अन्य मत-पंथों जैसे इस्लाम, ईसाइयत व अन्य के प्रति उदारता से भी अधिक का भाव रखती है और इसी के चलते वह बहुलता का भाव पोषित करती है। दरअसल, हिंदू मानस मात्र स्वीकार नहीं बल्कि आदर भाव रखता है। मैंने अपने संपूर्ण जीवन में यही जाना कि 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया' मात्र एक श्लोक नहीं बल्कि जीवन पद्धति है। एक अंतरराष्ट्रीय वकील और कानून का शिक्षक होने के नाते मेरा पूरा जीवन इस सिद्धांत का जीवंत उदाहरण रहा है।
संघ के सामाजिक असर की बात करें तो क्योंकि मैं अमेरिका में रहता रहा हूं और कनाडा, मेक्सिको एवं यूरोप के अनेक देशों में व्याख्यानों आदि के लिए अल्पकालिक आवास भी किया है इसलिए उसी दायरे के अनुसार मैं अपनी बात रखूंगा।
संघ द्वारा अपने स्वयंसेवकों को दिए जाने वाले मूल्यों से प्रेरणा लेकर अन्य कई देशों में भी वहां के नियम एवं कानूनों के अंतर्गत ऐसे संगठनों की नींव रखी गई है। अमेरिका में हिंदू स्वयंसेवक संघ (एचएसएस) नामक संगठन में कई स्वयंसेवी कार्य करते हैं। ऐसे संगठनों से जुड़े सेवाभावी जन समाज के कमजोर एवं हाशिये पर पड़े वर्ग की सेवा करते हैं। वे उनके नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा करने के साथ-साथ उनके आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के प्रति भी सचेत करते हैं। भारत में भी संघ कार्य से प्रेरित होकर, ऐसी कई संस्थाएं अन्य समानधर्मी संगठनों एवं लोगों के साथ मिलकर कार्य करती हैं। उन्होंने संस्कृति, शिक्षा, व्यवसाय, धर्म एवं अध्यात्म आदि क्षेत्रों में लोगों को नेतृत्व प्रदान करने का कार्य किया है।
सौभाग्यवश, अमेरिका में मौजूद भारतीय, और मैं समझता हूं, दुनियाभर में फैले भारतीय मूल के लोग भारत की प्रगति को लेकर खासी रुचि दिखाते हैं और इस बारे में अपना अंशदान भी करते हैं। किसी का नाम नहीं लूंगा क्योंकि यह जगजाहिर है कि आईआईटी स्नातकों ने अमेरिका में आईटी उद्योग पर अपना गहरा असर छोड़ा है। इसी तरह अन्य विश्वविद्यालयों के स्नातकों ने भी चिकित्सा, कानून एवं व्यवसाय जगत में अपनी धाक जमाई है।
इतना ही नहीं, वे राजनीति के अखाड़े में भी पहुंचे हैं। हालिया राष्ट्रीय चुनावों में, अमेरिका में पहले भारतीय-अमेरिकी सीनेटर का चुनाव हुआ है एवं हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्ज में भी चार भारतीय पहुंचे हैं। इससे भारतीय मूल के राजनीतिज्ञों पर सबका ध्यान गया है। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में भी अमेरिका में मौजूद भारतीय अपने प्रोफेशनल करियर्स के चरम पर हैं। वे विश्वविद्यालयों के अध्यक्ष, नगर प्रधान, डीन एवं देश भर में प्रोफेसरों के पदों पर कार्य कर रहे हैं।
अमेरिका में भारतीय-अमेरिकियों को आमतौर पर आदर्श अल्पसंख्यक वर्ग कहा जाता है। खास बात यह है कि भारत एवं भारतीय-अमेरिकी लोगों के महत्व को लेकर दोनों दल-डेमोक्रेट्स एवं रिपब्लिकन-एक समान विचार रखते हैं। नागरिक परमाणु संधि ऐसा ही एक मुद्दा है। भारतीय-अमेरिकियों ने ही सुनिश्चित किया था कि अमेरिकी कांग्रेस इस संधि को स्वीकार करे, इसीलिए उन्होंने एक स्वर में इसके पक्ष में आवाज उठाई थी। यहां यह बताना भी जरूरी है कि इन सभी कायार्ें में एचएसएस के कार्यकर्ता अक्सर आगे रहे हैं और कई बार उन्होंने ही गतिविधियों का नेतृत्व किया है।
अमेरिका में एचएसएस की कुछ विशेष गतिविधियों की बात करें तो वहां रक्षाबंधन पर्व प्रतिवर्ष मनाया जाता है जिस दौरान उच्चाधिकारियों, पड़ोसियों एवं मित्रों को राखी बंधवाने के लिए बुलाया जाता है; छात्र अपनी कक्षाओं में गुरु वंदना भी करते हैं। विश्व हिंदू परिषद प्रतिवर्ष दो बैठकों में वहां के हिंदू पुजारियों एवं मंदिर प्रमुखों को बुलाती है। एचएसएस द्वारा एक नई शुरुआत की गई है-'कुटुम्ब प्रबोधन'। इसके अलावा, इस वर्ष दिवाली डाक टिकट जारी करने के लिए एचएसएस ने मित्रों एवं परिवारजनों के साथ एक हस्ताक्षर अभियान की भी शुरुआत की थी। दरअसल, एचएसएस द्वारा अमेरिका में की जाने वाली अनगिनत गतिविधियों की इतनी संक्षिप्त जानकारी नाकाफी दिखती है। अन्य देशों में भी ऐसी ही गतिविधियां संपन्न की जाती हैं। केन्या और ब्रिटेन जैसे स्थानों में कार्य अमेरिका की अपेक्षा कहीं लंबे समय से चल रहा है, समाज पर असर कहीं गहरा और व्यापक पड़ा है। इन कायार्ें के लिए प्रेरणा संघ से ही आई है। इस उम्मीद के साथ कि आधुनिक अशांत दुनिया में डॉ़ हेडगेवार का शांति और सौहार्द का संदेश नई दिशा लेकर आएगा, संघ द्वारा प्रेरित संगठन दुनियाभर में एक शांतिपूर्ण एवं समृद्ध मानवजति का विकास और उसे विस्तार देने में सफल हो सकेंगे।
लेखक डेनवर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफेसर एवं अमेरिका में हिन्दू स्वयंसेवक संघ के संघचालक हैं
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