सरदार की बात सुनी होती तो...
May 10, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

सरदार की बात सुनी होती तो…

by
Oct 24, 2016, 12:00 am IST
in Archive
जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल

जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल

FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail
दिंनाक: 24 Oct 2016 17:15:04

-प्रशांत बाजपेई-

आज संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत सरकार जी-तोड़ मेहनत कर रही है। सुरक्षा परिषद के 5 स्थायी सदस्यों में एक चीन (1971 से) भी है, जो कभी दुर्दान्त पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर के पक्ष में अपने वीटो का प्रयोग करता है तो कभी उसी विशेषाधिकार के बल पर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिलने में अड़ंगा लगाता है। विडंबना यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जे. एफ. कैनेडी ने 1956  में भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता थाल में  सजाकर भेंट करनी चाही थी, क्योंकि एशिया में वह कम्युनिस्ट चीन के मुकाबले भारत को मजबूत होते देखना चाहते  थे। लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी वैश्विक गुटनिरपेक्ष नेता की रूमानी छवि के मोहजाल में फंसकर इसे ठुकरा दिया था। इतना ही नहीं, चीन के प्रति दीवानगी की हद तक अंधविश्वास रखने वाले नेहरू ने भारत के स्थान पर चीन को सुरक्षा परिषद में प्रवेश देने की मांग कर डाली। सनद है कि सरदार पटेल ने कई साल पहले नेहरू को चीन पर बिल्कुल भी भरोसा न करने और व्यवहारिकता के साथ अपने देश के हितों की रक्षा करने के लिए कहा था।
अपनी मृत्यु के एक महीने पहले 7 नवंबर, 1950 को सरदार पटेल ने नेहरू को चीन के बारे में आगाह करते हुए पत्र लिखा। इसमें वे लिखते हैं- ”पिछले कुछ महीनों में रूसी रवैये के अतिरिक्त दुनिया में अकेले हम ही हैं जिसने चीन के संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश का समर्थन किया है, और फामोर्सा (ताइवान) के मुद्दे पर अमेरिकी अभिवचन से उसकी (चीन की ) रक्षा की है। अमेरिका-ब्रिटेन के साथ और संयुक्त राष्ट्र में, हमने बातचीत और पत्राचार दोनों में चीन के अधिकारों और भावनाओं  की रक्षा की है, इसके बाद भी चीन द्वारा हम पर संदेह करने से यही स्पष्ट होता है कि चीन हमें शत्रु मानता है। मुझे नहीं लगता कि हम चीन के प्रति इससे अधिक उदारता दिखा सकते हैं।”
कांग्रेसी नेता शशि थरूर ने अपनी किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि संबंधित दस्तावेजों को देखने वाले अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की है। थरूर ने नेहरू द्वारा चीन को यह स्थान दिए जाने की मांग के बारे में भी लिखा है। 11 मार्च, 2015 को लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के अंतरराष्ट्रीय इतिहास विभाग के एंटन हर्डर ने ‘नॉट एट द कॉस्ट ऑफ चाइना’ नामक रिपोर्ट में नेहरू और उनकी  बहन विजय लक्ष्मी पंडित, जो अमेरिका में भारत की राजदूत थीं, के बीच हुए पत्राचार को प्रकाशित किया है, जिसमें नेहरू साफ-साफ लिखते हैं कि भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का इच्छुक नहीं है और चीन को ही यह स्थान
मिलना चाहिए।
जब सरदार ने यह पत्र लिखा, उस समय तिब्बत पर चीन का आक्रमण जारी था। चीन तिब्बत के बारे में कपटपूर्ण बयानबाजी कर रहा था। पटेल तिब्बत की सुरक्षा को भारत की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने लिखा -”मैंने पत्राचार (चीन की सरकार, भारत के राजदूत और प्रधानमंत्री नेहरू के मध्य)  को ध्यान से उदारतापूर्वक पढ़ा, परंतु संतोषजनक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका।  चीन की सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की घोषणा करके हमें धोखा देने का प्रयास किया है। वे हमारे राजदूत के मन में यह बात बिठाने में सफल हो गए हैं कि चीन तिब्बत मामले का शांतिपूर्ण हल चाहता है।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पत्राचार के बीच के समय में चीनी तिब्बत पर भीषण आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं। त्रासदी यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है, परंतु हम उन्हें चीन की कूटनीति और दुष्ट इरादों से बचाने में असफल रहे हैं।”
पत्र में आगे वे कहते हैं कि ”उपरोक्त बातों को ध्यान रखते हुए हमें तिब्बत के विलुप्त होने (चीन द्वारा कब्जा करने) और चीन के हमारे दरवाजे तक आ पहुंचने से उत्पन्न नयी परिस्थिति पर विचार करना होगा।  भारत के सम्पूर्ण इतिहास में हमें शायद ही कभी अपने उत्तर-पूर्वी सीमान्त की चिंता करनी पड़ी होगी। हिमालय उत्तर से होने वाले किसी भी संभावित खतरे के लिए अभेद्य दीवार सिद्ध हुआ है। (उत्तर में) हमारे पास मैत्रीपूर्ण तिब्बत था, जिसने हमारे लिए कोई समस्या उत्पन्न नहीं की।  उस समय चीन बंटा  (परस्पर संघर्षशील राज्यों में) हुआ था।  तब उनकी (चीन की) अपनी घरेलू (आंतरिक) समस्याएं थीं, अत: हमें उस ओर से चिंता नहीं करनी पड़ी। 1914 में हमने तिब्बत के साथ समझौता (सीमा समझौता) किया। चीन ने उसका समर्थन नहीं किया। हमने तिब्बत की स्वायत्तता को भविष्य के सह संबंधों के रूप में विस्तृत होते देखा।  हम तो चीन से उक्त (तिब्बत से भारत समझौता) अनुमोदन मात्र चाहते थे। (परंतु) अधिसत्ता की चीन की व्याख्या (हमसे) भिन्न मालूम पड़ती है।”
भारत का तिब्बत  के साथ भूमि समझौता था। अब चीन तिब्बत पर चढ़ आया था।  भारत यदि  आगे बढ़कर तिब्बत पर चीनी हमले का विरोध करता तो अमेरिका और पश्चिमी देश भारत का साथ देने को उत्सुक होते। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू चीन के खिलाफ कठोर कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे। सरदार पटेल भारत की असुरक्षित होती सीमाओं को लेकर चिंतातुर थे। उन्होंने मानो भविष्यवाणी करते हुए लिखा-”हमें समझ लेना चाहिए कि वे (चीन) शीघ्र ही तिब्बत की भारत के साथ हुई तमाम पुरानी संधियों (सीमा संबंधी) को नकार देंगे।  तिब्बत के साथ हुईं जिन संधियों के आधार पर भारत पिछली आधी सदी से सीमान्त संबंधी और वाणिज्यिक व्यवहार करता आया है, वे सारी संधियां (चीन द्वारा) अमान्य कर दी जाएंगी ।…” और यही हुआ भी, जिसकी परिणति 1962 के भारत-चीन युद्ध के रूप में हुई और भारत को अपनी भूमि और वीर सैनिकों के प्राण गंवाने पड़े।
सरदार ने इस युद्ध से 12 साल पहले ही आगामी संकट की चेतावनी दे दी थी। उन्ही के शब्दों में-”चीन की जमीन की भूख और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद पश्चिमी (यूरोपीय) विस्तारवाद और साम्राज्यवाद से अलग है।  चीन ने विचारधारा का आवरण ओढ़ा हुआ है, यह उसे दस गुना अधिक खतरनाक बनाता है।…. निकट का कटु इतिहास हमें बताता है कि कम्युनिज्म साम्राज्यवाद के विरुद्ध कोई ढाल नहीं है, और कम्युनिस्ट साम्राज्यवादियों जितने ही अच्छे या बुरे हैं।  इस सन्दर्भ में चीन की महत्वाकांक्षा न केवल भारत की ओर के हिमालय के ढालों पर कब्जा करने की है, बल्कि उसकी दृष्टि असम तक है।” लेकिन सरदार की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया, ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ के दिवास्वप्नों को तथ्य बनाकर सरकार संसद और देश के सामने परोसती रही। जब रिपोर्ट सामने आई  कि चीन भारत के क्षेत्र (लद्दाख) में सड़क बना रहा है तो भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। सीमा पर चीनी हरकतों को लेकर इस कदर उदासीनता थी कि उस समय गृहमंत्रालय में एक मजाक चलता था, जब किसी अधिकारी को किसी कागज पर कार्रवाई नहीं करनी होती तो वह कहता ‘इसे बॉर्डर फाइल में डाल दो।’
भारत की सीमा पर बढ़ती चीन की सैनिक आक्रामकता का उत्तर देने के लिए पुलिस चौकियां बनवाई गईं (लद्दाख में चीन को रोकने के लिए ऐसी 64 पुलिस चौकियां बनाई गई थीं) जबकि सेना को साजो-सामान और हथियारों से मोहताज रखा गया। रक्षा कारखानों में कॉफी कप-प्लेट और सौन्दर्य प्रसाधन बनवाए जा रहे थे। परिणाम यह हुआ कि जब युद्ध हुआ तो शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान में हमारे जवान सूती कमीज पहनकर पचास साल पुरानी बंदूकों से लड़ रहे थे जिनमें पर्याप्त गोलियां तक नहीं थीं। न खाना था, न पानी, न तंबू थे, न सड़क। पूर्वोत्तर में सेना की कमान नेहरू के करीबी सैन्य अधिकारी को दी गई थी, जिसे एक दिन का भी युद्ध का अनुभव नहीं था (जबकि हमारे लाखों सैनिकों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया था) और जो बहाना बनाकर दिल्ली के अस्पताल में भर्ती होकर वहीं से युद्ध का संचालन कर रहा था।
वल्लभ भाई पटेल आगामी भूसामरिक और कूटनीतिक गठजोड़ों को आकार लेते देख रहे थे। 1965 में सामने आए चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ की संभावना सरदार के इन शब्दों में तलाशी जा सकती है ”इस प्रकार पूर्व से अब दो खतरे हैं-कम्युनिस्ट और साम्राज्यवाद।  जबकि हमारे पश्चिम और पूर्व में (तत्कालीन पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान) खतरे पहले से ही हैं, तब उत्तर और उत्तरपूर्व में ये नया खतरा खड़ा हो गया है।”
अगली पंक्तियों में सरदार की दूरदर्शिता और अचूक भविष्य-दृष्टि की झलक मिलती है। ये वे चेतावनियां थीं जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। इस चूक का भुगतान देश ने किया।
वे लिखते हैं -”बर्मा को लेकर भी चीन की महती आकांक्षाएं हैं।  बर्मा के साथ तो ‘मैकमोहन रेखा’ भी नहीं है, जिसके आधार पर संधि की संभावना तलाशी जा सके।” आज बर्मा के चप्पे-चप्पे पर चीन की छाप है। उनकी अगली चेतावनी जो अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई, वह इस प्रकार है-
”मैं तुम्हारा ध्यान संकट अभिमुख उत्तरी और उत्तर पूर्वी सीमांतों की ओर भी दिलाना चाहता हूं। इसमें नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के जनजातीय इलाके शामिल हैं। संचार संपर्क की दृष्टि से वे कमजोर बिंदु हैं। अविरल सुरक्षा रेखा का वहां अभाव है। वहां घुसपैठ की लगभग असीमित संभावनाएं हैं। पुलिस सुरक्षा व्यवस्था बहुत थोड़े से मार्गों, दर्रों तक सीमित हैं, उस पर से हमारी सीमा चौकियों में सुरक्षा कर्मियों की कमी है। इन क्षेत्रों से हमारा निकट आत्मीय संपर्क  भी नहीं है।”
आज भारत दशकों से असम और नागालैंड में उग्रवाद की समस्या से जूझ रहा है। समस्या को घातक बनाने में विदेशी मिशनरियों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। देश की सुरक्षा और अखंडता से जुड़े इस मामले को  छद्म सेकुलरिज्म के चलते बरसों तक उपेक्षित किया गया। सरदार पटेल ने बेबाकी से लिखा था कि-”पिछले तीन वर्षों में हम नागा लोगों अथवा असम की पहाड़ी जनजातियों से कोई उल्लेखनीय संवाद नहीं कर पाए हैं। यूरोपीय मिशनरियां व अन्य आगंतुक उनके संपर्क में रही हैं, जिनका भारत और भारतीयों  के प्रति कोई सद्भाव कतई नहीं रहा है।”
सरदार पटेल ने 565 रियासतों का भारत में विलय करवाया। एक कश्मीर के मामले को नेहरू ने अपने हाथ में रखा। कश्मीर आज तक प्रश्न बना हुआ है। इसी दौरान हैदराबाद का निजाम भी कश्मीर की राह पर था , लेकिन सरदार ने उसकी एक न चलने दी। 22,000 सैनिक और 2 लाख सशस्त्र रजाकारों के दम पर निजाम भारत को चुनौती दे रहा था। पाकिस्तान उसका साथ देने और उसके पक्ष में अपनी वायुसेना को उतारने का इरादा बना रहा था। खूंखार जिहादी रजाकार हजारों स्थानीय हिंदुओं का कत्लेआम कर चुके थे। प्रतिदिन सैकड़ों बलात्कार हो रहे थे। उधर नेहरू आंतरिक बैठकों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की व्याख्याएं करके कर्तव्य की इतिश्री कर रहे थे, और निजाम से निपटने के लिए सेना को भेजने के लिए तैयार नहीं थे। सरदार खीझ चुके थे। आखिर में हुआ यह कि एक सुबह नेहरू को अचानक जानकारी मिली कि भारत की सेनाएँ निजाम के हत्यारे लश्कर को पछाड़ती हुई हैदराबाद में प्रवेश कर रही हैं। हड़बड़ाकर उन्होंने पटेल को फोन लगाया तो घरवालों ने बताया कि ‘उनका स्वास्थ्य खराब है, और फिलहाल बात नहीं हो सकेगी।’ इस तरह हैदराबाद को बचा लिया गया।
इन सब बातों का विचार करें, सरदार का वह पत्र पढ़ें, तो ख्याल आता है कि यदि वे देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो क्या भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा देते? क्या तिब्बत के लिए कुछ भी न करते? क्या 1962 में चीनियों के सामने हमारी सेना बिना तैयारी के खड़ी होती? यदि हमने अपने हितों की शुरू से ही रक्षा की होती, यदि भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता, तो चीन और पाकिस्तान हमसे उलझने आते? सरदार कश्मीर के मामले को कैसे संभालते? क्या वे देश की राजनीति में वंशवाद को पनपने देते? क्या होता यदि वे कुछ साल और जीवित रहते? क्या होता यदि जिम्मेदार लोगों ने सरदार की बात सुनी होती?

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

Operation Sindoor

सेना सीमा पर लड़ रही, आप घर में आराम चाहते हैं: जानिए किस पर भड़के चीफ जस्टिस

India opposes IMF funding to pakistan

पाकिस्तान को IMF ने दिया 1 बिलियन डॉलर कर्ज, भारत ने किया विरोध, वोटिंग से क्यों बनाई दूरी?

आलोक कुमार

‘सुरक्षा और विकास के लिए एकजुट हो हिन्दू समाज’

प्रतीकात्मक तस्वीर

PIB fact check: पाकिस्तान का भारत के हिमालय क्षेत्र में 3 IAF जेट क्रैश होने का दावा फर्जी

Gujarat Blackout

भारत-पाक के मध्य तनावपूर्ण स्थिति के बीच गुजरात के सीमावर्ती गांवों में ब्लैकआउट

S-400 difence System

Fact check: पाकिस्तान का एस-400 को नष्ट करने का दावा फर्जी, जानें क्या है पूरा सच

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

Operation Sindoor

सेना सीमा पर लड़ रही, आप घर में आराम चाहते हैं: जानिए किस पर भड़के चीफ जस्टिस

India opposes IMF funding to pakistan

पाकिस्तान को IMF ने दिया 1 बिलियन डॉलर कर्ज, भारत ने किया विरोध, वोटिंग से क्यों बनाई दूरी?

आलोक कुमार

‘सुरक्षा और विकास के लिए एकजुट हो हिन्दू समाज’

प्रतीकात्मक तस्वीर

PIB fact check: पाकिस्तान का भारत के हिमालय क्षेत्र में 3 IAF जेट क्रैश होने का दावा फर्जी

Gujarat Blackout

भारत-पाक के मध्य तनावपूर्ण स्थिति के बीच गुजरात के सीमावर्ती गांवों में ब्लैकआउट

S-400 difence System

Fact check: पाकिस्तान का एस-400 को नष्ट करने का दावा फर्जी, जानें क्या है पूरा सच

India And Pakistan economic growth

भारत-पाकिस्तान: आर्थिक प्रगति और आतंकवाद के बीच का अंतर

कुसुम

सदैव बनी रहेगी कुसुम की ‘सुगंध’

#पाकिस्तान : अकड़ मांगे इलाज

प्रतीकात्मक तस्वीर

भारतीय वायुसेना की महिला पायलट के पाकिस्तान में पकड़े जाने की बात झूठी, PIB फैक्ट चेक में खुलासा

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies