|
पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 जनवरी ,1968 के अंक में प्रकाशित प्रफुल्लबाला बख्शी का आलेख:-
-प्रफुल्लबाला बख्शी
''मातृभूमि के लिए कष्ट सहना और प्राणोत्सर्ग कर सकना केवल पुरुष के ही अधिकार की बात नहीं है, हम नारियां भी इसकी पूरी दक्षता और योग्यता रखती हैं और हमें भी इसका अधिकार होना चाहिए''—ये थे एक भारतीय नारी के उद्गार, जब 'आनन्द मठ' के संन्यासी नेता सत्यानंद ने स्त्रियों के भी क्रांति व्रत में दीक्षित हो सकने के विषय में संदेह प्रकट किया था।
भारतीय सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन—अर्थात् विप्लवियों के आंदोलन का श्रीगणेश हुआ महाराष्ट्र में, जब चाफेकर-बंधुओं ने पूना के मजिस्ट्रेट मिस्टर रेण्ड को गोली मारी। बाद में क्रांतिकारी आंदोलन दक्षिण भारत में कुछ स्तब्ध सा हो गया, पश्चात बंगाल में पनपा और फिर सारे उत्तर भारत में फैल गया।
बंगाल में फैलने का प्रधान कारण यह था कि 19वीं सदी में अंग्रेजी शिक्षा विस्तार से पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति के साथ भारतीय विचारधारा के संघर्ष में बंगाली भाषा साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, साथ ही साहित्य क्षेत्र में भारतीय राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण भी, और इस तरह 20वीं सदी के शुरू से ही वहां क्रांतिकारी आंदोलन ने जड़ पकड़ ली। स्वामी विवेकानंद तथा उनकी आइरिश शिष्य बहन निवेदिता भी इसके अनेक कारणों में से एक थे।
बंगाल की वह अज्ञातनामा बहन
क्रांतिकारी दल की प्रवृत्ति-परिवार तथा स्त्री की तरफ बहुत कुछ आनंदमठ के राजनीतिक संन्यासियों के ढंग की ही बनी और इसमें स्त्रियों के लिए कोई स्थान नहीं समझा जाता था। लेकिन क्रांतिकारियों के घरों में उनकी बहनें तथा माताएं विप्लवियों के कामों में सहायता देती रहीं। पुलिस द्वारा तलाशी के अवसर पर अक्सर ऐसा देखा गया कि मां-बहनों ने कागजात तथा पिस्तौलों को पुलिस की नजर से हटाया। वे फरार क्रांतिकारियों को घरों में आश्रय देती रहीं, जिससे आंदोलन को बल मिलता रहा। और फिर एक दिन 1917 या 1918 में बंगाल में एक महिला को अस्त्र-कानून में दो साल की सजा हुई, जिनका नाम-पता आज किसी को भी मालूम नहीं है।
पिस्तौल किसने दी थी
काकोरी केस के बाद बनारस के सी.आई.डी. डिप्टी सुपरिटेन्डेंट रायबहादुर जतीन्द्रनाथ बनर्जी पर दिन-दहाड़े चौराहे पर गोली चलाई गयी थी। गोली चलाने वाले ने रायबहादुर को सड़क पर रोका और चिल्लाकर कहा था— लीजिए, काकोरी केस का इनाम तो लेते जाइये। और आमने-सामने पिस्तौल चलायी थी। दो गोलियां लगने पर भी रायबहादुर मरे नहीं थे। मारने वाले मणीन्द्रकुमार बनर्जी ऐन मौके पर पकड़े गये थे और उन्हें दस साल की सजा हुई थी। बख्शी जी ने मुझे बताया कि मणीन्द्र के साथ फतेहगढ़ सेंट्रल जेल में मुलाकात होने पर और पूछने पर कि उस काम के लिए किसने प्रेरणा दी थी तथा मणीन्द्र को किसने दल में भर्ती किया था तथा पिस्तौल भी किसने दी थी। मणीन्द्र ने उन्हें बताया था कि यह सब काम सुवर्ण दीदी के द्वारा हुआ था तथा पिस्तौल भी उन्होंने ही दी थी। इस पर बख्शी जी के आश्चर्य का पारावार न रहा था। सुवर्णलता क्रांतिकारी दल में सक्रिय न थीं। वह बाल-विधवा लड़की काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ती थी जिससे चिट्ठी-पत्री के लिए सहायता ली गई थी। बंगाल के अनुशीलन दल तथा दल के अन्य लोगों से जो पत्र बख्शीजी के पास आते थे, उनके लिफाफे पर सुवर्णलता देवी का नाम-पता लिखा होता था, और उसे बिना खोले सुवर्णलता बख्शीजी को दे देती थी। अश्फाक उल्ला खां के पास भी क्रांतिकारियों के इस पोस्टबाक्स का पता था और फरारी के दिनों में वे बख्शीजी को ढूंढते हुए एक बार सुवर्ण दीदी से मिले थे।
भाभी दीदी
लाहौर केस तथा दिल्ली षड्यंत्र केस में सरदार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के साथी के रूप में भाभी तथा दीदी के नाम से दो क्रांतिकारी महिलाएं बड़ी प्रसिद्ध हुईं। यही भाभी हुतात्मा क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी हैं। भगवती चरण वोहरा उस जमाने में एक विद्वान तथा बुद्धिवादी क्रांतिकारी थे। प्रतिभा के साथ उनमें गजब का साहस था। भुसावल बम केस के दौरान एक बैरिस्टर बनकर बम केस के अभियुक्त भगवानदास माहौर तथा सदाशिव राव मलकापुरकर से जेल में जाकर मिले थे। भगवतीचरण ने ही अपनी पत्नी श्रीमती दुर्गा देवी तथा उनकी सहेली श्रीमती सुशीला बहन को क्रांतिकारी दल में कर्मठ बनाया था।
1929 के दिसम्बर मास में लाहौर में पंजाब केसरी लाला लाजपतराय लाठियों से पीटे गए थे। घातक चोटों के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उसका बदला क्रांतिकारियों ने लिया। उस लाठीकांड के एक सूत्रधार मिस्टर सांडर्स को गोली मार दी गई। उसके बाद अंग्रेज पुलिस अधिकारी ने लाहौर शहर को ऐसे घेर रखा था कि सांडर्स का वध करने वाले शहर से निकलने न पायें। उस घेरे के अंदर से सरदार भगतसिंह ने बड़े ही नाटकीय ढंग से लाहौर से कलकत्ता की यात्रा की थी। उस यात्रा की मुख्य कर्णधार श्रीमती दुर्गादेवी ही थीं। लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान जब भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त को छुड़ाने की योजना चल रही थी—निश्चित तारीख के कुछ दिन पूर्व ही रावी के किनारे बम-विस्फोट से भगवतीचरण चल बसे थे। वह तारीख आई, जब उस गंभीर विषाद और उदासी के वातावरण में क्रांतिकारी युवकगण भगत और दत्त को छुड़ाने के लिए चले और वे एक दूसरे से विदा लेने लगे। इसका कुछ पता न था कि कौन जिंदा लौटेगा और कौन वहां गोली का शिकार बनेगा। उस अवसर पर सुशील दीदी ने अपनी अंगुली चीरकर और उस रक्तारक्त अंगुली से सबके माथे पर खून का टीका लगाया था तथा विजय-कामना की थी।
शांति घोष और सुनीति चौधरी
1931 चटगांव अस्त्रागार कांड, खान बहादुर अहसानुल्ला का वध, ढाका में पुलिस इंस्पेक्टर जनरल लोमैन का कत्ल तथा ढाक के पुलिस सुपरिटेंडेंट हडसन को दिनदहाड़े गोली मारी जाने तथा अन्य क्रांतिकारी कार्यों से अंग्रेज सरकार पागल सी हो गई थी। समस्त पूर्वी बंगाल में 15 से लेकर 45 साल तक के हर एक हिंदू को शिनाख्त के लिए एक परिचयपत्र हमेशा साथ रखना पड़ता था। उस परिचयपत्र में फोटे के साथ ही अपना नाम, पिता का नाम, पता, गांव, डाकखाना आदि सब कुछ दर्ज रहता था। किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा मांगने पर उसे दिखाना पड़ता था। यह एहतियात इसलिए बरती जाती थी, ताकि फरार क्रांतिकारी एक गांव से दूसरे गांव आ जा न सकें, उनका एक जिले से दूसरे जिले में आवागमन रुक जाए। उन दिनों गांव की हर स्कूली इमारत में अंग्रेज फौज टिकी थी। सारा पूर्वी बंगाल सैनिकों से भरा था। फिर भी वहां त्रिपुरा जिला के मजिस्ट्रेट मि. स्टीवेंस को गोली मार देने का निश्चय क्रांतिकारी दल ने किया था। स्टीवेंस जिले के हेड क्वार्टर कुमिला शहर में डबल कांटेदार तारों से घिरे बंगले में रहता था जहां सशस्त्र पहरा रहता था। वह सुरक्षित बंगला छोड़कर स्टीवेंस कहीं जाता नहीं था। जिम्मेदार सरकारी कर्मचारी को छोड़कर कोई भी आदमी बिना तलाशी दिए उसके बंगले में नहीं जा सकता था। समस्या थी, उसे गोली कैसे मारी जाए?
14 दिसम्बर के दिन दो बंगाली लड़कियां वहां पहुंच ही गईं। बाहरी फाटक के संतरी ने पूछा-क्या चाहती हो? उत्तर में लड़कियों ने कहा कि वे जिला कलेक्टर से मिलना चाहती हैं। लड़कियों की तीन मील की एक तैराकी प्रतियोगिता का कार्यक्रम है। जिला मजिस्ट्रेट के पास उस सिलसिले में दरख्वास्त देकर सहायता मांगने आई हैं कि उस निश्चित तिथि तथा समय पर उस तीन मील क्षेत्र में कोई स्टीमर, जहाज, मोटरबोट आदि न आए-जाए। संतरी को एक लड़की ने दरख्वास्त दिखाई।
संतरी ने फोन पर बात की। बताया कि लड़कियां स्कूली हैं या नाबालिग हैं। हुक्म मिलने पर वे आगे बढ़ीं। कांटेदार तार वाला गलियारा पार करके बंगले पर आईं, जहां उन्हें सीआईडी इंस्पेक्टर मिला। उसने भी पूछताछ की और बरामदे में बैठाया। जिला कलेक्टर दरख्वास्त हाथ में लेकर कमरे के भीतर से बाहर बरामदे में आ गया। वस्तुत: वह मजिस्ट्रेट कैदखाने सरीखे बंगले में बंद रहा करता था। बाहर से दो लड़कियां आई हैं, यह जानकर उन्हें देखने चला आया। उसने कहा-यह काम पुलिस कप्तान करेगा, तुम लोग उसके पास जाओ। उत्तर में लड़कियों ने सुझाया-इस दरख्वास्त के ऊपर आप 'फारवर्डिड टू सुपरिटेडंेट ऑफ पुलिस' लिख दीजिये। हम उन्हीं के पास चली जाएंगी।
जिला मजिस्ट्रेट ने ठीक है, कह कर वह कागज मेज पर रखा और लिखने लगा। तब तक दोनों लड़कियों ने छिपाई हुई पिस्तौल निकाल ली और दोनों ने पांच सेकेंड में पांच-पांच करके यानी दस गोलियां चला दीं। मजिस्ट्रेट का शरीर छलनी होकर ढेर हो गया। ये दोनों स्कूली लड़कियां थीं-शांति घोष और सुनीति चौधरी। अवयस्क लड़कियां-सिर्फ पन्द्रह साल, साढ़े पन्द्रह साल उम्र की। इतनी कम उम्र के कारण उन्हें फांसी नहीं हुई। आजन्म कालेपानी की सजा मिली।
जिला मजिस्ट्रेट के वध के एक महीने बाद एक पत्र अखबारों में प्रकाशित हुआ। वह मि. स्टीवेंस का पत्र था जिसे उसने अपने बड़े भाई को लिखा था जो कि मद्रास प्रांत में कमिश्नर थे। उस भाई ने अखबारों में वह पत्र भेज दिया था। पत्र में और बातों के साथ इस आशय की बातें थीं-''मैं जिला मजिस्ट्रेट हूं। पूरा जिला फौज के कब्जे में जकड़ा हुआ है और इधर क्रांतिकारी मुझे मारने के लिए घूम रहे हैं। मैं कभी बाहर नहीं जाता। काफी सावधानी बरतता हूं। दीवार की आड़ में ही टहलता हूं। लेकिन इस पर भी कोई गारंटी नहीं है कि मैं बच जाऊं।''
टिप्पणियाँ