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शक्ति सिन्हा
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी द्वारा अफगानिस्तान में शान्ति बहाली में मदद के लिए पाकिस्तान और चीन को गुहार लगाना बहुत से लोगों को हैरान कर गया था। उनकी हाल ही में पाकिस्तान के प्रति तीखी टिप्पणी किसी के लिए भी आश्चर्य की तरह नहीं होनी चाहिए। अपनी टिप्पणी में उन्होंने पाकिस्तान को 'युद्ध के संदेश' भेजने और आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को पोसने, खासकर फिदायीन पैदा करने और बम बनाने के शिविरों को पहले जितना ही सक्रिय बताया था। खासकर आम नागरिकों को निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा इस साल बढ़ती दिखी है। संयुक्त राष्ट्र ने इसे नागरिक मौतों की निगरानी शुरू करने के बाद से सबसे खराब साल बताया है। अफगान सुरक्षा बल, खासकर यहां-वहां चौकियों पर तैनात सैनिकों की हत्याओं में काफी बढ़ोत्तरी देखी गई है लेकिन राष्ट्रपति गनी को परेशान करने वाले थे 7 अगस्त को काबुल में एक के बाद एक हुए बम हमले जिनमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए। काबुल हवाई अड्डे के प्रवेश द्वार पर 10 अगस्त को हुए हमले में 5 लोग मारे गए थे। इन हमलों से पूरे अफगानिस्तान में आक्रोश की लहर फैल गई है।
इन हमलों ने गनी की शांति निर्माण करने की कोशिशों को ठेस पहंुचाई है और अब उनके पास कोई विकल्प नहीं दिखता है। हालांकि उनकी इस नादान सोच की अफगानिस्तान में कई लोगों ने भर्त्सना की थी कि पाकिस्तान शांति बहाली में मदद कर सकता है। मेरा मानना है कि गनी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने कम से कम यह तो समझा कि पाकिस्तानी सेना को जोड़े बिना अफगानिस्तान में शांति नहीं हो सकती। 2001 के बाद बिना पाकिस्तानी सेना की सक्रिय मदद के तालिबान में लड़ने की कुव्वत नहीं हो पाती। पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पनाह, पैसा, प्रशिक्षण और गोला बारूद दिए थे।
केवल चीनी ही पाकिस्तानी सेना पर थोड़ी पकड़ रखते हैं क्योंकि यह उनका एक वास्तविक रणनीतिक सहयोगी है। चीन चाहता ही है कि पाकिस्तान अपने पड़ोस में भारत को परेशान करता रहे। अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो जाता तो उसके पाकिस्तान के स्थायित्व पर गंभीर परिणाम होते। स्थानीय जिहादी बेकाबू होते जाते। इसलिए अफगान शांति प्रक्रिया में चीन को एक सक्रिय भागीदार बनाना सही कदम था। सवाल उठता है कि फिर यह रणनीति काम क्यों नहीं आई? अफगानिस्तान को शांति नसीब क्यों नहीं हुई और तालिबानी हिंसा का स्तर ऊपर क्यों उठ गया?
पहली बात तो यह है कि पाकिस्तानी सेना किसी स्वतंत्र अफगान राज्य की स्थापना और उसका काम काज चलने देना गवारा नहीं कर सकती, क्योंकि जाहिर है ऐसा राज्य किसी की कठपुतली तो नहीं बन पाएगा या अपनी धरती को आतंकवादियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह नहीं बनने देगा। वह जानती है कि भारत का अफगानिस्तान को लेकर कोई छुपा एजेंडा नहीं है, और कि इसकी विकास तथा मानवीय सहायता अफगानिस्तान के स्थायित्व में मदद देने के लिए है। इसके अलावा, एक बहुरंगी, लोकतांत्रिक अफगानिस्तान उस सैन्य सत्ता के लिए खतरा बन सकता है जो कि पाकिस्तान को उसकी सेना ने बना लिया है। भारत-अफगानिस्तान धुरी द्वारा घिर जाने के उसके डर के हौव्वे के पीछे पाकिस्तानी सेना की असली मंशा थी डर से ध्यान हटाना। अफगानिस्तान ने 1965 और 1971 युद्धों में अपनी निष्पक्षता बनाए रखी थी और ऐसा कोई सबूत नहीं है कि भारत-अफगानिस्तान संबंधों में कोई तीसरा देश अपना वजूद रखता है।
दूसरी बात, दोनों सेनाओं के बीच संबंधों की शुरुआत, गुप्तचर एजेंसियों के बीच समझौते, अफगानिस्तान में सक्रिय पाक विरोधी गुटों पर कार्रवाई करने आदि सहित पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाने की राष्ट्रपति गनी की साहसिक पहल के जवाब में पाकिस्तान सेना ने अपने रणनीतिक मुनाफे को छोड़ने की कोई मंशा नहीं जताई थी। यह तो उसके बाद था जब राष्ट्रपति गनी ने भारत से सुरक्षा-संबंधी सहायता लेने की अपने पूर्ववर्ती की विनती को ठुकरा दिया था। अब भारत अफगानिस्तान में पूरी तरह हाशिये पर दिखता है। जिहादी आतंकवादियों को भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ सैनिकों के तौर पर उतारना पाकिस्तानी सेना का पसंदीदा हथियार है और वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं है। गनी के साथ सहमत होना तो बस उसकी रणनीति थी, असली मंशा तो शांति लाने और हालात सुधारने में गनी की नाकामयाबी के जरिए गनी और सीधे अफगान राज्य की छिछालेदरी करना थी, परोक्ष रूप से यह दिखाना था कि अफगान राज्य भले ढह जाए, अमरीका अफगानिस्तान को बचाने नहीं आएगा। भारत को हाशिये पर रखना इस योजना का हिस्सा था।
तीसरी बात, और वह बात कि जिसका भारत, अमरीका और चीन तक को संज्ञान लेना चाहिए। तालिबान को खड़ा करने और पोसने के बावजूद पाकिस्तानी सेना उनको नियंत्रित नहीं कर सकती। ऐसी खबरे हैं कि तालिबान नेतृत्व और उनके परिवारों को पाकिस्तान में 'संरक्षित हिरासत' में रखा गया है ताकि कहीं वे स्वतंत्र रूप से हरकत में न आ जाएं। तालिबान का दूसरे नम्बर का नेता रहे मुल्ला बरादर ने तो राष्ट्रपति करजई की सुलह की कोशिशों पर जरा हरकत ही की थी और फिर उसने खुद को जेल में पाया जहां वह किसी से बात तक नहीं कर सकता। संदेश साफ था-अफगानी अफगानियों से बात करेंगे तो सिर्फ पाकिस्तानी सेना के मार्फत। कई पर्यवेक्षकों को यह जानकर हैरानी थी कि कुछ तालिबानी नेताओं ने पाकिस्तान-चीन प्रायोजित शांति वार्ताओं का खुला विरोध किया था। मुल्ला उमर की मौत की खबर सामने आते ही तालिबानी नेतृत्व को लेकर हुई जद्दोजहद और पाकिस्तानी सेना के पंसदीदा सिराजुद्दीन हक्कानी को तालिबान का उपनेता बनाना दर्शाता है कि चीजें नियंत्रण में नहीं हैं। और यह तथ्य कि मुल्ला की मौत के 2 साल बाद तक इस खबर को छुपाया गया, अन्यथा उग्रवाद बिखर जाता, इसने पाकिस्तानी सेना के उस दावे को संदेह के घेरे में ला दिया कि वे शंाति बहाल करवा सकते हैं। खतरा यह है कि पाकिस्तानी सेना द्वारा पैदा की गई जिहादियों की फौज अपने लबादे उतारकर हिंसा और आतंकी कार्रवाइयों को बढ़ा सकती है जिससे पाकिस्तान राज्य की जड़ें हिल सकती हैं। तब दुनिया बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए किसी तरफ देखेगी?
(लेखक दिल्ली के प्रमुख सचिव रहे हैं और अफगानिस्तान-पाकिस्तान मामलों के अध्येता हैं।)
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