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तो इंडिया और भारत का अंतर वह भी है, जो देखा और दिखाया जाता है? हाल ही के समय में आपने देखने और दिखाने के एक सबसे सशक्त माध्यम-फिल्मों के क्षेत्र में इस खाई को साफ देखा है। जो फिल्म भारत की अपनी संस्कृति के अनुरूप रही होती है, उससे, भारी सफलता के बावजूद खुद भारत के फिल्म उद्योग को भी अपच होती है, वह फिल्म उद्योग को एक बाहरी और अवांछित जैसा लगता है, वहीं आइडिया ऑफ इंडिया की लकीरों पर चलता फिल्म उद्योग अपनी पीठ बिना बात भी थपथपा लेता है। दशकों से मुंबई में बनने वाली फिल्में पुलिस को फिसड्डी और माफिया को बेहद चतुर-सुजान, लगभग अजेय दिखाती आ रही हैं। बहुत सुविचारित ढंग से, पूर्णत: काल्पनिक फिल्म कथाओं में कुछेक वास्तविक बिन्दु इस प्रकार ढाले गए, ताकि पूरी काल्पनिकता की विश्वसनीयता बढ़ाई जा सके। कुछ अपराधियों का महिमामंडन भी सफलतापूर्वक किया गया। हाल ही में पोर्नोंग्राफी के पक्ष में मीडिया के बड़े वर्ग में इस तरह मुहिम छेड़ी गई, जैसे पोर्नोंग्राफी देश की सुरक्षा जैसा कोई बहुत अहम मामला हो। याकूब मेमन के पक्ष में मीडिया मुहिम, उसके पहले समलैंगिकता के पक्ष में मीडिया मुहिम- एक सिलसिले की तरह चलती जा रही है।
5 अगस्त, 2015 को देश के एक बड़े न्यूज़ चैनल में प्राइम टाइम कार्यक्रम की शुरुआत इन शब्दों के साथ हुई- 'जब तक आतंकवाद का चेहरा नकाब से ढका होता है वो क्रूर तो लगता है, लेकिन जब नकाब हटता है तो उससे भी क्रूर हो जाता है क्योंकि तब आप देख पाते हैं कि कैसे फर्जी मजहबवाद और राष्ट्रवाद के नाम पर नौजवानों को आग में झोंका जा रहा है। आतंकवाद राष्ट्रवाद का चोर रास्ता है।'
खबर यह नहीं रही कि भारत के दो नागरिकों की बहादुरी ने एक दुर्दांत आतंकवादी को धर दबोचा, कैसे खबर यह नहीं रही कि पाकिस्तान की जेहाद फैक्ट्री में कम उम्र के लड़कों को चारे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। खबर क्या रही, कोई नहीं जानता, लेकिन उसकी आड़ में इस चैनल ने आतंकवाद को राष्ट्रवाद का चोर रास्ता कहने की अपनी इच्छा जरूर पूरी कर ली।
कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के रानाघाट में एक 71 वर्षीय नन का बलात्कार हुआ। आव या ताव देखे बिना तुरंत भारत के बहुसंख्यक वर्ग को, उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को बलात्कार का दोषी ठहराने की होड़ मच गई। जब अरोपी गिरफ्तार कर लिए गए, तो पता चला कि चारों आरोपी बांग्लादेशी थे। इसके तुरंत बाद खबर को दबा दिया गया।
आधुनिक मीडिया के पुरोधाओं की सीखी-पढ़ी दृष्टि क्या है? इसके दो स्पष्ट आयाम हैं। एक आर्थिक है- माने जहां से (भी) धन मिले, वही खबर चलाई जाए। दूसरा वैचारिकता के चौराहे से होकर धन के दरवाजे तक पहुंचने का रास्ता। माने मीडिया के इस धन जुटाऊ उद्योग में बने रहने के लिए स्वयं को यथासंभव सेक्युलर, प्रोग्रेसिव, हिन्दू विरोधी व भारत विरोधी प्रस्तुत करना। उन्हें पता था कि वे कोई स्वांग नहीं कर रहे हैं, यकीन कर रहे हैं। आइडिया वाला इंडिया, या इंडिया दैट इज भारत वाला इंडिया अंग्रेजों की ईजाद था, जिसे मैकालेपुत्रों ने अपना लिया। अंग्रेजों ने कोट पेंट, टाई को रोंप कर धोती-लुंगी और पगड़ी जैसी परम्परागत पोशाकों को सिर्फ नष्ट नहीं किया, बल्कि उन्हें मजाक का पात्र बनवा दिया।
कुछ उदाहरणों की चर्चा जरूरी है। भारत में टीवी मीडिया के आने के साथ ही आए रुपर्ट मर्डोक। मर्डोक के धनबल ने इंडिया का समाचारों और विचारों का एजेंडा स्थापित करने की कोशिश की। पोखरण विस्फोटों के मौके पर मर्डोक के टीवी ने इंडिया की जनता को बताने की कोशिश की कि किस तरह भारत की जनता गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, एड्स आदि की पर्यायवाची है (और लिहाजा भारत के पास तो परमाणु बम होना ही नहीं चाहिए)। यहां तक कि जब पाकिस्तान ने अपने पहले से तैयार परमाणु बमों को भारत का बहाना लेकर उजागर किया, तो (भारतीय कहे जाने वाले टीवी) मीडिया ने अपने चुनिंदा विशेषज्ञों को बैठाकर उसे जायज ठहराया, उसके लिए हिन्दू बम को दोषी ठहराया। इन चैनलों ने कभी भी भारत की जनता की राय जानने या दिखाने की कोशिश नहीं की, लेकिन पाकिस्तान में आम लोगों के मुंह से वाजपेयी को बहुत भला-बुरा कहलवाया गया। हर छोटी-बड़ी खबर पर मोदी को झटका लिखने की आदत तो तब तक नहीं छूटी, जब तक भारत की जनता ने फैसला नहीं सुना दिया। गोधरा कांड की रिपोर्टिंग करते हुए इन चैनलों ने पूरी बेशर्मी से मारे गए निर्दोष 58 लोगों को मिलिटेंट हिन्दू कहा। भारत क्या सोचता है, क्या देखता है, उसके लिहाज से खबर क्या है- यह इस इंडिया के मीडिया को कभी नहीं दिखता। वह उनके मूल्यों के विरुद्ध जो है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं किन्तु नारद स्तम्भ के स्थापित नियम के अनुसार उनकी पहचान उजागर नहीं की जा रही है।)
नारद
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