|
गत एक वर्ष में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में अच्छे दिन आये हैं जिनका पूर्ण मूल्यांकन अभी संभव नहीं है, परंतु कांग्रेस की शर्मनाक हार के पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आड़ में हिन्दू समाज को भद्दी-भद्दी गालियां-'हिन्दू 'आतंकवाद' हिन्दू 'साम्प्रदायिकता, 'संघ सरकार के प्रत्येक मंत्रालय में घुस गया', देश की समस्त विचारधारा को दो भागों में बांटकर स्वयं को गांधीवादी तथा शेष हिन्दू संगठनों को गोडसेवादी बतलाने, संघ गांधी का हत्यारा संघ फासिस्ट आदि उसकी बौखलाहट, अकुलाहट के साथ उसकी हताशा, निराशा तथा भावी भय को प्रकट करते हैं। प्राय: ये सभी क्षुद्र राजनीतिक हथियार झूठे, बेबुनियाद, तथ्यहीन तथा ब्रिटिश कालीन हो चुके हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये आरोप वे लगा रहे हैं जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने रक्त की एक बूंद भी नहीं दी तथा स्वतंत्रता के पश्चात भी जिनके शरीर पर एक भी खरोंच न लगी। गाल बजाने से या भड़काऊ भाषणों से न ही उनका व्यक्तित्व निखरेगा, न पार्टी का हित, पर राष्ट्र अहित अवश्य होगा। अनेक नकली कांग्रेसियों के लिए, सत्ता भोग के अलावा राष्ट्रभक्ति तथा देशप्रेम की पीड़ा समझना कठिन है।
सन् 1925 ई. में देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हिन्दू सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन के रूप में स्थापित हुआ। इसके संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने भारत के इतिहास, संस्कृति तथा धर्म का गहन अध्ययन तथा लोकमान्य तिलक जैसे तत्कालीन कांग्रेस के महानतम राष्ट्रनेता की प्रेरणा से इसे प्रारंभ किया। स्थापना से पूर्व उन्होंने देश के क्रांतिकारी तथा कांग्रेस के महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया था। गांधीजी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। परंतु न ही उन्हें कांग्रेस के आंदोलन- फिर समझौता फिर शिथिलता की नीति पसंद थी और न ही क्रांतिकारी जीवन जो अधिकतर लुका छिपी में बीत जाता था। अत: वे एक ऐसे संस्कारित हिन्दू संगठन का निर्माण चाहते थे जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हों। शीघ्र ही उनका यह संगठन तीव्रता से प्रगति करता गया। उल्लेखनीय है कि उन्होंने स्वयं असहयोग आंदोलन में भाग लिया था जिसमें उन्हें एक वर्ष की सजा हुई थी।
संघ की प्रगति में देश के तत्कालीन वरिष्ठतम कांग्रेस नेताओं एवं राष्ट्रपुरुषों का सहयोग तथा आशीर्वाद रहा है। कुछ उदाहरण देने उपयुक्त होंगे। संघ की स्थापना के दो वर्ष बाद डॉ. हेडगेवार की नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से भेंट हुई थी जो संघ के विस्तार तथा विकास से बड़े प्रसन्न थे तथा उन्होंने कहा कि संघ भारत के पुनरुज्जीवन का मार्ग बन सकता है। अप्रैल 1929 ई. में कांग्रेस के नेता पंडित मदनमोहन मालवीय, नागपुर की मोहिते का बाड़ा संघ शाखा मेंं गये थे तथा उन्होंने भाषण में कहा था, 'अन्य संस्थाओं के पास बड़ी-बड़ी इमारतें हैं और बहुत से कोष हैं पर तुम्हारे संघ में मनुष्य बल अच्छा है यह देखकर मुझे आनंद हुआ।' दिसम्बर 1934 में महात्मा गांधी वर्धा के निकट लगे संघ शिविर में गये थे। वहां उन्होंने ब्राह्मण, महार, मराठा सबको एक साथ भोजन करते देखा। आसपास के गांवों के किसानों और मजदूरों को भी देखा। गांधीजी ने संघ के स्वयंसेवकों की तरह भगवा ध्वज को प्रणाम किया तथा कहा, 'मैं सचमुच प्रसन्न हूं। इतना प्रभावी दृश्य मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा।' अगले दिन जब हेडगेवार उनसे वर्धा आश्रम मिलने गये तो पुन: कहा, 'डॉक्टर जी अपने चरित्र तथा कार्य की अतुल निष्ठा के बल पर आप अंगीकृत कार्य में निश्चित सफल होंगे।' सरदार पटेल ने संघ की गतिविधियों को निकट से तथा गृहमंत्री के रूप में जांचा था। उनका कथन था कि 'संघ के लोग स्वार्थ के लिए झगड़ने वाले नहीं हैं। वे तो अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने वाले देशभक्त हैं।'
1940 के दशक में ब्रिटिश सरकार के साथ कुछ कांग्रेसी छुटभैय्यों की संघ की झूठी आलोचना में लीन रहते थे। तब भी ब्रिटिश प्रशासन तथा कुछ कांग्रेसी संघ को साम्प्रदायिक कहते थकते न थे। प्रसिद्ध समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने 1948 में काशी में साम्प्रदायिकता विरोधी सप्ताह का उद्घाटन करते हुए कहा था, 'संघ के स्वयंसेवक की अनुशासनप्रियता, चारित्र्य दृढता तथा प्रेम सचमुच में प्रशंसनीय है। संघ ने समाज के लिए पर्याप्त काम किया है और इसीलिए अब तक टिका हुआ है। कानून से हम उसे बंद नहीं कर सकते।' डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जहां कांग्रेस को जीवनभर अपशब्द कहे, वहां 1935 ई. तथा 1939 ई. वे डॉक्टर हेडगेवार के साथ संघ के शिक्षा वर्ग में गये। 1937 ई. में कत्महाडा में संघ के विजयदशमी पर्व पर आयोजित कार्यक्रम में 600 की कुल संख्या में 100 से अधिक वंचित, पिछड़े वर्ग के स्वयंसेवक थे। उन्हें बड़ा आश्चर्य ही नहीं हुआ बल्कि भविष्य के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ी। उनका श्रीगुरुजी से संबंध था। कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता भगवानदास, के.एम. मुंशी, डॉ. एस. राधाकृष्णन, विनोबा भावे सहित अनेक महापुरुषों का संघ को आशीर्वाद प्राप्त था।
सरकार की कोप दृष्टि
मूलत: सम्प्रदाय शब्द सकारात्मक तथा रचनात्मक है। इसमें किसी भी सम्प्रदाय का समुचित तथा संतुलित विकास निहित है। परंतु साम्प्रदायिकता शब्द 19वीं शताब्दी के मध्यकाल में भारत के ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा गढ़ा गया शब्द है। विशेषकर 1849 ई. में छल-कपट से पंजाब को कंपनी शासन के अन्तर्गत विलय के बाद। अभी तक देश को मुसलमान तथा गैर मुसलमानों में विभाजित कर 'भारत में बांटो और राज करो' की नीति का अनुसरण किया था। परंतु वे प्रारंभ से ही बहुसंख्यक हिन्दुओं की बढ़ती आबादी से परेशान थे। अब उन्होंने हिन्दुओं के विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य टकराव तथा अलगाव का प्रयास किया। लार्ड डलहौजी पंजाब में बढ़ती हुई हिन्दू जनसंख्या से परेशान था। अत: जहां एक ओर पंजाब द्वारा1857 के महासमर में कोई भाग न लेने का झूठा नारा बुलंद किया, वहां दूसरी ओर योजनापूर्वक हिन्दू सिख विभेद बढ़ाया। लेकिन ग्रिफिथ व मैकालिफ ने इसे आगे बढ़ाया। अब हिन्दू को साम्प्रदायिक तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों को भी साम्प्रदायिक कहकर भड़काया। विश्व में कहीं भी तब सम्प्रदाय शब्द तो प्रचलित था, परंतु किसी भी शब्दकोष या विश्वकोष में साम्प्रदायिकता शब्द न था। अत: इसका प्रयोग हिन्दू प्रतिरोध या हिन्दुओं के विरुद्ध दंगों को भड़काने में हुआ तथा यह एक गाली अथवा संकीर्ण चिंतन के रूप में प्रयोग होने लगा। उस समय परस्पर दंगों के लिए 'सेक्ट' शब्द उपयोग होता था।
ब्रिटिश सरकार ने संघ के बढ़ते प्रभाव से कुपित हो संघ को भी इसी दायरे में बांधने के अनेक प्रयत्न किये। तत्कालीन गुप्त दस्तावेज इस पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। भारत में ब्रिटिश सरकार के गृह सचिव ने इसे गंभीरता से लिया। इस संदर्भ में अनेक शब्दकोष टटोले गये। परंतु संघ को साम्प्रदायिक कहने का कोई सुराग नहीं मिला। संघ की शाखाओं में होने वाली ड्रिल (योगाभ्यास) संघ शिक्षा वगार्ें तथा संघ के स्वयंसेवकों के सैनिक वेश पर भी विस्तृत चर्चा हुई तथा उससे उसी जगह स्काउट कैम्प, क्लबों में उपयेाग में आने वाली वेशभूषा देश में चलने वाले अन्य संगठन जैसे आर्य समाज आदि से भी संघ की तुलना की गई परंतु इस आधार पर संघ पर प्रतिबंध या साम्प्रदायिक कहने की जरा भी गुंजाइश न छोड़ी। परंतु संघ ब्रिटिश सरकार की आंख की किरकिरी सदैव बना रहा। वस्तुत : स्थिति तो यह है कि लोकमान्य तिलक की भांति, डॉ. हेडगेवार युवावस्था से ही मध्य भारत के गुप्तचरों की निगाह में चढ़ गये थे। उनकी हिस्ट्री शीट' बनाये जाने लगी थी जिसका क्रमांक 114 था, 1930 ई. में पहली बार नागपुर के डीसी श्री चन्दूुलाल त्रिवेदी को जो स्वतंत्रता के पश्चात पंजाब के गवर्नर बने, को संघ के बारे में जानकारी देने को कहा गया था, जिसमें उसने अपनी रपट में डॉ. हेडगेवार के भाषण के अंश 'हिन्दुस्तान हिन्दुओं का उद्धरित' किए। संघ के बढ़ते हुए प्रभाव से सरकार ने 1943-44 में देश में लगे हुए 11 संघ शिक्षा वर्गों की गुप्त रूप से जांच पड़ताल की थी परंतु उन्हें कही भी संघ को साम्प्रदायिक कहने का कोई आधार न मिला। बल्कि इसके विपरीत संघ को छुआछूत दूर करने वाला, हिन्दुओं में एकता तथा स्वतंत्रता के लिए प्राणोत्सर्ग हेतु कटिबद्ध बताया। 1945 में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या 10,000 आंकी गई। प्रसिद्ध विद्वान प्रो. कूपलैंड के अनुसार लॉर्ड बेवेल ने 1946 की शिमला कांफ्रेंस में हिन्दुओं के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए किसी भी हिन्दू संगठन को निमंत्रण न दिया। सरकार के संघ विरोधी रूप को देखकर पंजाब सरकार के गवर्नर जॉकिन्स तथा प्रीमियर खिज हयात खां ने 24 जनवरी, 1947 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। परंतु परिस्थितियों को भांपते हुए पांच दिन के बाद भारत के मंत्री पैट्रिक लारेंस तथा भारत के गवर्नर जनरल लार्ड बेवेल ने तुरंत प्रतिबंध वापस लेने को कहा तथा फटकार लगाई। इससे पूर्व 1946 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने साम्प्रदायिकता के आधार पर राज्यों का गठन, हिन्दुओं तथा मुसलमानों की अदलाबदली तथा पाकिस्तान के निर्माण की मांग का जबरदस्त विरोध किया। देश के दुर्भाग्य की बात है कि साम्प्रदायिकता के झूठे आधार पर संघ को गाली देने वाली कांग्रेस ने, साम्प्रदायिकता के आधार पर ही राजसत्ता के चस्के में भारत का विभाजन स्वीकार किया। पंजाब के दयाल सिंह बेदी ने कहा, 'विचित्र संयोग है कि मोतीलाल नेहरू ने मुम्बई को सिंध से अलग किया। उसके पुत्र ने सिंध को शेष भारत से ही अलग कर दिया।' संघ तथा हिन्दू शक्ति के बढ़ते प्रभाव को विद्वानों ने अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस को ही भारत की राजसत्ता सौंपने का मुख्य कारण माना है इसके अलावा तीन अन्य कारण- कांग्रेस के अलावा अन्य किसी दल द्वारा विभाजन को न मानना, अन्य दलों द्वारा भारतीय संविधान सभा के द्वारा देशव्यापी चुनाव की मांग तथा अन्य दलों द्वारा ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अधीन 'डोमिनियन स्टेटस' की बात स्वीकार न करना बताया है।
राजसत्ता की भूखी कांग्रेस
अंग्रेज ह्यूम द्वारा स्थापित कांग्रेस पहले बीस वर्षों तक (1885-1905 ई.) अंग्रेज राज भक्ति की दीवानी रही। 1937 ई. में भारत के सात प्रांतों में सरकारें स्थापित हो जाने से राजसत्ता के चस्के तथा उसकी प्राप्ति के लिए हर तरह के हथकण्डे अपनाने लगी। महात्मा गांधी ने अपने वांग्मय में कांग्रेस के तत्कालीन भ्रष्ट शासन की कटु आलोचना की। संघ को साम्प्रदायिक तथा अन्य अपशब्द कहने का अधिकार पं. नेहरू को ब्रिटिश विरासत से मिला। पं. नेहरू को न हिन्दू धर्म से कोई लगाव था, न हिन्दुत्व से। उन्हें धर्म, ईश्वर, आत्मा आदि शब्दों से चिढ़ होती तथा मुसलमानों को वे अपने ज्यादा निकट मानते थे। स्वतंत्रता के पूर्व ही उन्होंने संघ को साम्प्रदायिक कहना प्रारंभ कर दिया था। मुस्लिम लीग ने 1937 की कांग्रेस की विजयों के साथ ही, प्रांतों में कांग्रेसी राज को भी हिन्दू राज कहना प्रारंभ कर दिया था, नेहरू ऐसा कहलाना जरा भी पसंद न करते थे। 1932 ई. में नेहरू ने अपने एक पत्र में महमूद गजनवी के कृत्यों की प्रशंसा की थी जिसमें भारत के मार्क्सवादी भी उनके निकट आ गये थे। वे भी संघ विरोध में उनके सहायक बन गए थे।
सर्वविदित है कि पं. नेहरू कांग्रेस संगठन के चुनाव के विपरीत 1929, 1936, 1937 तथा 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, तथा 1946 ई. में गांधीजी की कृपा से कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री बने थे वे इस सर्वोच्च पद को किसी भी प्रकार गवाना न चाहते थे। उन्होंने भारत में मिश्रित संस्कृति, मिलीजुली राष्ट्र की बातें 1932 से ही कहनी शुरू की हुई थीं। 20 फरवरी 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉर्ड ऐटली की भारत में सत्ता हस्तांतरण की घोषणा ने भारत में हड़कंप तथा सनसनी फैला दी थी पर पं. नेहरू इस घोषणा से संतुष्ट थे। पंजाब के अनेक हिन्दू तथा सिख नेताओं ने आगामी तूफान से होने वाली भयंकर हानि की बात भी की। नेहरू जी के कांग्रेस गुट के अलावा, सामान्यत: भारत विभाजन की कटु विरोधी थी। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता के तुरंत बाद कांग्रेस को समाप्त कर कांग्रेसियों को लोक सेवा करने का आह्वान किया था परंतु राजसत्ता का भूखा कोई भी नेता उनकी बात सुनने को तैयार न था। इसी बीच विभाजन के कारण एक करोड़ चालीस लाख लोगों की आबादी की अदलाबदली हुई थी। पंजाब में विस्थापितों को बसाने में संघ की भूमिका सर्वोपरि थी।
पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव, सभी प्रशासक तथा समाचार पत्र संघ की प्रशंसा करने में कोई कसर न रख रहे थे, नेहरू गुट इससे सशंकित तथा भौंचक्का था। तरह-तरह की फैली अफवाहों ने भी उनके गुट को भयभीत कर दिया था। एक झूठी अफवाह यह फैली कि पंजाब में शीघ्र संघ राज्य स्थापित हो जाएगा। दूसरी अफवाह फैली कि दिल्ली में पं. नेहरू को हराया जाएगा, अफवाहें पाकिस्तान के अखबारों तक में छपीं। अत: संघ पर साम्प्रदायिकता का तमगा लगाकर प्रतिबंध की योजना बनी। कांग्रेस प्लान के अनुसार यह प्रतिबंध नवम्बर 1947 के अंतिम सप्ताह में लगना था। तत्कालीन भारत के प्रमुख समाचार पत्रों- द ट्रिब्यून, द टाईम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन, सिविल एण्ड मिलिट्री गजट के साथ पाकिस्तान के डॉन ने इसके बारे में लिखा। एक विद्वान लेखक के अनुसार नेहरू-पटेल के प्रथम टकराव का यही कारण था (देखें, के.एल. पंजाबी, द इनडोमीटेबल सरदार, पृ. 162) पं. नेहरू ने इस आशय के पत्र भी लिखे थे। पर योजना समय से पूर्व बनी। दुर्भाग्य से 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या कर दी गई, राष्ट्रीय शोक के बीच ही नेहरू गुट को प्रतिबंध लगाने का सुअवसर लगा। अत: फरवरी में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। अनेक संगठनों ने इसका विरोध किया। देवदास गांधी ने भी संघ को दोषी नहीं माना। आखिर संघ ने राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आंदोलन किया तथा 22 जुलाई 1948 को सरकार ने बिना शर्त प्रतिबंध हटा दिया।
परंतु जब-जब चुनाव हुए, नेहरू तथा उनके परिवार की सरकारों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ संघ को साम्प्रदायिक कहने की माला जपी। जहां श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल में हजारों स्वयंसेवकों को जेल में बंद कर उनकी आवाज बंद करनी चाही वहां सोनिया गांधी की सरकार ने मुस्लिमों को अनेक सुविधाएं देकर उन्हें रिझाना तथा संघ को दबाना चाहा। अब तो कुछ समाजवादी नेताओं ने जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्रदेव एवं डॉ. राममनोहर लोहिया के वियारों को तजकर, अपना 'कॉमन एजेंडा' भाजपा हराओ बनाया है। कांग्रेस ने इसमें सहयोग देते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक अवसवादिता का घृणित उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। सभी नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि विष बेल बोने से अंबुफल नहीं चखा जा सकता। हम सभी श्रेष्ठ भाव रखकर देश को उन्नत व सबल बनाएं। – डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
टिप्पणियाँ