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गुरु के सान्निध्य में प्रतिदिन आनन्द, शान्ति और ज्ञान का एक नया अनुभव होता था… मेरे गुरु श्री युक्तेश्वरजी स्वभाव से मितभाषी, स्पष्टवादी और पूर्णत: आडम्बररहित थे। उनके विचारों में न तो कहीं अस्पष्टता का लवलेश था, न स्वप्निलता का ही कोई अंश। उनके पांव जमीन पर दृढ़ थे, मस्तक स्वर्ग की शान्ति में स्थिर था। व्यावहारिक स्वभाव के लोग उन्हें अच्छे लगते थे। वे कहते थे- 'साधुता का अर्थ भोंदूपन या अकर्मण्यता नहीं है। ईश्वरानुभूतियां किसी को अक्षम नहीं बनातीं। चरित्र-बल की सक्रिय अभिव्यक्ति तीक्ष्णतम बुद्धि को विकसित करती है।'
श्री युक्तेश्वरजी का अंतर्ज्ञान अन्तर्भेदी था। ऊपर-ऊपर कोई चाहे जो भी कह रहा हो, वे प्राय: उसके अव्यक्त विचारों का उत्तर देते थे… मैं विश्वासपूर्वक यह कह सकता हूं कि श्री युक्तेश्वरजी भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय गुरु होते यदि उनकी वाणी इतनी स्पष्ट न होती।
ईश्वरत्व में मनुष्यत्व के विलयन में श्री युक्तेश्वरजी ने कोई दुर्लंघ्य बाधा नहीं पाई। बाद में मेरी समझ में आया कि केवल मनुष्य की आध्यात्मिक प्रयासहीनता के अलावा ऐसी कोई बाधा नहीं होती।
मानो स्वर्ग मिल गया…
'गुरुजी, आज आपको अकेले देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।'
कुछ फलों और गुलाब पुष्पों की सुगंध से महक रही टोकरी हाथ में लिए मैं अभी-अभी श्रीरामपुर आश्रम पहुंचा ही था। श्री युक्तेश्वरजी ने दीन भाव से मेरी ओर देखा।
'तुम्हारा प्रश्न क्या है?' गुरुदेव कमरे में नजर दौड़ा रहे थे मानो बच निकलने का कोई रास्ता ढूंढ रहे हों।
'गुरुजी मैं हाईस्कूल का एक युवा विद्यार्थी था जब आपके पास आया था। अब मैं प्रौढ़ हो गया हूं, यहां तक कि मेरे एक-दो बाल भी अब सफेद हो गए हैं। आपने हमारे मिलन के प्रथम क्षण से लेकर अब तक सदा ही अपने मूक प्रेम की वर्षा मुझ पर की है। पर क्या आपके ध्यान में यह बात आयी कि केवल उस पहले दिन ही आपके मुख से निकला था, 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं।' मैं याचना भरी दृष्टि से उनकी ओर देख रहा था।
गुरुदेव ने अपनी दृष्टि झुका ली। 'योगानन्द, मूक हृदय की गहराइयों में सुरक्षित बैठी प्रगाढ़ प्रेम की भावनाओं को क्या भावशून्य शब्दों में प्रकट करना आवश्यक है?'
'गुरुजी, मैं जानता हूं कि आपको मुझसे बेहद प्यार है, फिर भी मेरे नश्वर कान आपके मुख से उन शब्दों को सुनने के लिए तरसते हैं।'
'जैसी तुम्हारी इच्छा। अपने वैवाहिक जीवन में मुझे एक पुत्र की चाह थी, ताकि मैं उसे योगमार्ग की शिक्षा दे सकूं। परन्तु जब तुम मेरे जीवन में आए, तब मैं सन्तुष्ट हो गया। तुममें मुझे मेरा बेटा मिल गया।' श्री युक्तेश्वरजी की आंखों में दो स्पष्ट अश्रुबिंदु छलक आए। 'योगानन्द, मुझे सदा ही तुमसे प्यार रहा है, और सदा ही रहेगा।'
'आपके इन शब्दों ने मेरे लिए स्वर्ग के सारे द्वार खोल दिए हैं।' मुझे ऐसा लगा मानो मेरे हृदय पर से एक भारी बोझ हट गया हो, जैसे उनके शब्दों से वह बोझ सदा के लिए पिछलकर बह गया हो। मैं जानता था कि वे आत्मस्थ हैं और भावुकता के लिए उनके स्वभाव में कोई स्थान नहीं था, फिर भी उनकी खामोशी का अर्थ मैं समझ नहीं पाता था। कभी-कभी मुझे लगता था कि उन्हें संतुष्ट करने में मैं विफल हुआ था। उनके विलक्षण स्वभाव को पूरी तरह पहचानना कठिन था। उनका स्वभाव गम्भीर, स्थिर और बाह्य जगत के लिए अनधिगम्य था, जिसके सारे मूल्यों को कब के पीछे छोड़कर वह आगे बढ़ गए थे। ल्ल
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