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नेपाल! देवाधिदेव महादेव की धरती। शिव के प्रचंड तेज से ऊर्जित धरा। भगवान पशुपतिनाथ के मंदिर में निरंतर गूंजते शिवमहिम्न स्तोत्र और महामृत्युंजय जाप की उष्मा से धधकते तेजपंुज की मानिंद उत्तुंग हिमालय की गोद में बसे संवैधानिक रूप से दुनिया के एकमात्र हिन्दू देश रहे नेपाल के वासी 25 अप्रैल 2015 का दिन बरसों-बरस भुला नहीं पाएंगे। उस दिन सुबह 11़ 41 पर इस पहाड़ी प्रांतर की जमीन ऐसी तेजी से डगमगाई कि महज 50 सैकेण्ड में देश का भूगोल ही बदल गया। रिक्टर पैमाने पर 7़ 9 की तीव्रता से आए जबरदस्त भूकम्प ने शहरी रिहायशी बस्तियां और कितने ही गांव नेस्तोनाबूद कर दिए। इस देश के प्रतीक रहे प्राचीन मंदिर और मीनारें धराशायी हो गईं। लोग जो हाथ पड़ा, जो साथ पड़ा उसे लेकर छुपने की जगह तलाशने लगे। राजधानी काठमांडू से 80 किलोमीटर दूर लामजंग में केन्द्रित वह भूचाल और उससे हुए जानमाल के नुकसान को लोग अभी समझ पाते उससे पहले एक के बाद एक दो दर्जन से ज्यादा बार धरती कांप उठी। लोगों में खौफ का आलम यह था कि किसी पक्की इमारत के आस-पास भी न जाकर खुले में आसरा लेने की आपाधापी मच गई। सड़कों पर टूटे घरों, होटलों और बाजारों के मलबे के ढेर लग गए, निकलने-बढ़ने की जगह न रही; किसी का हाथ तो किसी का पैर मलबे में फंसा था; किसी का आधा शरीर ही ईंटों के ढेर से झांक रहा था; लोग अपने घर वालों को खोजते फिर रहे थे; अस्पतालों में चीख-पुकार मची थी; बाहर सड़क पर ही मरहम पट्टी की जा रही थी क्योंकि अंदर तिल धरने तक को जगह न थी। उधर नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोईराला थाईलैंड गए हुए थे, आपदा की सुनकर लौटने को हुए तो बैंकाक में अटक गए क्योंकि काठमांडू का हवाई अड्डा बंद कर दिया गया था। भारत ने फौरन पड़ोसी का दर्द महसूस किया और अपनी संवेदना जताई। भूकम्प आए घंटा भर भी नहीं बीता था कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल के राष्ट्रपति रामबरन यादव से फोन पर बात की और कहा कि भारत विपदा की इस घड़ी में हर तरह की मदद को तैयार है। भारत सरकार ने तत्काल नेपाल की मदद के लिए 'ऑपरेशन मैत्री' की घोषणा की। भारतीय वायुसेना और सेना को तैनात किया गया। एनडीआरएफ की 10 टीमों, खाद्य और चिकित्सा सामग्री के साथ वायु सेना के तीन जहाज उसी दिन शाम काठमांडू के हवाई अड्डे पर उतर चुके थे। रात साढ़े दस बजे वायुसेना का एक जहाज काठमांडू में फंसे करीब 55 भारतीयों को लेकर दिल्ली लौटा था। इसके बाद लगातार वायुसेना के जहाज और हेलीकॉप्टर भीतरी इलाकों से भारतीयों को निकालने में जुटे रहे। बताया गया है कि हादसे में फंसे करीब 5500 लोगों को भारत पहंुचाया गया है। कुल 3 लाख से ज्यादा विदेशी सैलानी उस वक्त नेपाल में मौजूद थे। घटना के पांच दिन बाद भी हवाई अड्डों और बस अड्डों पर भारत लौटने वालों की लंबी कतारें देखी जा सकती थीं। भारत के कई युवा नेपाल के कालेजों में पढ़ रहे हैं। उनमें से अधिकांश जो साधन मिला उससे लौटने की आपाधापी में भूखे-प्यासे जुटे रहे। शुभेन्द्र भी उन्हीं में से एक था, उसे भी बड़ी मुश्किल से दिल्ली लौटने का रास्ता मिला। अपने तीन साथियों के साथ वह दिल्ली तो पहंुच गया पर उसकी आंखों में खौफ का वह मंजर बार-बार उभर आता है। (देखें, बॉक्स) इधर भारत में असम से दिल्ली तक भी तेज झटके महसूस किए गए। बिहार, उत्तर प्रदेश, प़ बंगाल में भी जान-माल का काफी नुकसान हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने विशेष बैठक करके स्थिति आंकी और जहां जितना काम जरूरी था, उसका आदेश तुरंत जारी किया। हालात की गंभीरता इसी बात से आंकी जा सकती है कि भूकम्प आने के चार दिन बाद तक लोग अपने घरों को छोड़ मैदानों में तंबू तानकर रहे थे।
काठमांडू का स्वयंभूनाथ मंदिर, राजमहल के कई हिस्से और ऐतिहासिक धरहरा मीनार पलक झपकते जमींदोज हो गए। ऐसे प्राचीन प्रतीकों को ढहते देखकर काठमांडूवासी बेहद आहत थे। धरहरा की वह मीनार 1832 में बनाई गई थी जो देश की एक पहचान बन गई थी। काठमांडू के अलावा भूकम्प ने भक्तपुर, रसुआ, नुवाकोट, धाधिंग, सिंधुपाल चौक आदि जिलों के गांव के गांव मलबे के ढेर में तब्दील कर दिए। शुरुआती आकलन नेपाल में मरने वालों की संख्या 5000 से ज्यादा और घायलों की 10 हजार से ज्यादा बताते हैं। भारत में करीब 70 लोगों की जानें गईं हैं और सैकड़ों घायल हुए हैं। केन्द्र सरकार ने मृतकों के परिजनों को कुल 6 लाख रु. की राहत राशि देने की घोषणा की है।
नेपाल से लगातार आतीं चिंताजनक खबरों के आलोक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सक्रिय हो गए। उन्होंने भारत में स्थानीय स्तर पर लोगों को राहत पहंुचाने को कमर कस ली तो उधर नेपाल में हिन्दू स्वयंसेवक संघ के करीब 350 कार्यकर्ता काठमांडू और दूसरे प्रभावित इलाकों में समाज जीवन को फिर से व्यवस्थित करने में हाथ बंटाने लगे। लोगों को भोजन-पानी और दूसरी राहत सामग्री पहंुचाने की व्यवस्था की गई। रा. स्व. संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने स्वयं काठमांडू पहंुचकर राहत कायार्ें का मार्गदर्शन किया। संघ के विश्व विभाग के संयोजक श्री श्याम परांडे ने पांचजन्य को बताया कि सेवा इंटरनेशनल (भारत) नेपाल में राहत कायार्ें में पूरी तरह संलग्न है। यह संस्था हिन्दू स्वयंसेवक संघ, नेपाल, प्राज्ञिक विद्यार्थी परिशद, नेपाल, जनकल्याण प्रतिष्ठान और अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर भूकम्प राहत अभियान में सहयोग कर रही है। संस्था के 200 से ज्यादा स्थानीय कार्यकर्ता लोगों को राहत सामग्री वितरित कर रहे हैं। उधर राष्ट्रीय सेवा भारती, सेवा इंटरनेशनल, आस्ट्रेलिया सहित अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों ने नेपाल को फिर से सबल, सक्षम बनाने के लिए आपदा की इस घड़ी को मिलकर दूर करने का बीड़ा उठाया है। अपीलें जारी की गई हैं कि समाज का समर्थ वर्ग राहत के काम में मदद दे।
इस वक्त नेपाल में महामारी का खतरा मंडरा रहा है। तंबुओं में अस्थायी शिविर बनाकर रह रहे लोगों के पास बुनियादी जरूरत की चीजें नहीं हैं। गंदगी फैलती जा रही है। समस्या के व्याप को देखकर स्थानीय प्रशासन के हाथ-पैर ढीले पड़ रहे हैं, लेकिन राहतकर्मी दिन-रात एक करके जितना बन पड़ता है उतना कर रहे हैं। पशुपतिनाथ मंदिर के पास बागमती नदी के किनारे अंतिम दाह के लिए शवों का तांता बंधा हुआ है। खड्ग बहादुर, जंग बहादुर थापा, सुमित्रा देवी, किशनलाल, शेर सिंह, सुभाष कुमाऱ.़….और न जाने कितनों को अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार के लिए घंटों इंतजार करना पड़ रहा था। किसी की तीन साल की बच्ची सफेद चादर में लिपटी थी तो किसी का 16 साल का बेटा, किसी की वृद्घा मां की मृत्यु हुई थी तो कोई अपनी पत्नी के दाह के लिए आया था। गुमसुम आंखों से सब एक दूसरे को निहार रहे थे। कौन किसको ढाढस बंधाता! वक्त ने अचानक ऐसा रौद्र रूप दिखाया था कि सबकी दुनिया ही उलट-पुलट गई थी।
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए गईं दिल्ली की 49 साल की पर्वतारोही रेणु फोतेदार ने हिमालय की चोटियों पर ही आखिरी सांस ली। भूकम्प के कारण हुए हिमस्खलन में उनकी मौत हो गई। वे ही नहीं, उनके अलावा हिमालय में पर्वतारोहण के लिए गए कुल 18 पर्वतारोही हिमस्खलन के शिकार हुए। उनके शवों को वहां से भारतीय सेना के जवानों ने निकाला। 1934 के बाद नेपाल में इतने भीषण पैमाने पर आए भूकम्प के फौरन बाद जिस तरह भारत ने मदद का हाथ बढ़ाया उसकी तमाम देशों ने दिल खोलकर तारीफ की है। बाद में अमरीका, चीन ने विमानों से राहत सामग्री पहंुचाई। लेकिन भारत सरकार के कुशल संयोजन और समन्वय से सभी अभिभूत थे। आपदा में मारे जाने वालों के लिए तय डेढ़ लाख रु. की राहत राशि अब बढ़ाकर चार लाख कर दी गई है और प्रधानमंत्री राहत कोष के दो लाख मिलाकर मरने वालों के परिजनों को कुल छह लाख रु. की मदद की घोषणा पहले ही की जा चुकी है। मोदी सरकार ने अप्रैल के शुरुआती हफ्ते में यमन में ऑपरेशन राहत के जरिए पांच हजार से ज्यादा भारतीयों और डेढ़ सौ से ज्यादा विदेशी नागरिकों को युद्ध में फंसे उस देश से सुरक्षित निकाला था तो अब उतरते अप्रैल में ऑपरेशन मैत्री के तहत पांच हजार से ज्यादा भारतीयों को नेपाल से सुरक्षित निकाला है। सरकार के शीर्ष अधिकारी और केन्द्रीय मंत्रिमंडल के बीच लगातार मंत्रणा चली और लगभग रोजाना विशेष बैठकों में ताजा स्थिति पर विचार किया गया। सरकार की ओर से मीडिया को नेपाल के हालात की बराबर जानकारी दी जाती रही थी। विदेश सचिव पी. जयशंकर ने खुद पत्रकारों को यह जानकारी दी थी।
नेपाल में पिछले करीब 10-12 वर्ष से जिस तरह की राजनीतिक अस्थिरता रही है, राजनीतिक दलों की रस्साकशी में देश का समाज-जीवन प्रभावित रहा है, माओवादियों ने चीन के पुचकारने में आकर नेपाल को पिछड़ा बनाए रखा और वहां की चुनी हुई संविधान सभा किसी तरह भी प्रभावी नहीं हो पा रही है; ऐसे में नेपाल में इस भीषण भूकम्प ने देश को बुरी तरह झकझोर दिया है। भारत और नेपाल के बीच प्राचीन काल से सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। वहां माओवादी चाहे कितना भी भारत विरोधी दुष्प्रचार करें, संबंधों की गर्मजोशी उस समय फिर देखने में आई थी जब प्रधानमंत्री मोदी नेपाल गए थे और वहां के नागरिकों ने सड़कों पर घंटों खड़े रहकर उनका स्वागत किया था। नेपाल की संसद में दिया मोदी का भाषण इन्हीं संबंधों को नई ऊर्जा देने वाला साबित हुआ था। नेपाल पर आए इस संकट से उसे उबारने में भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, न ही वह छोड़ेगा।
क्यों आते हैं इस क्षेत्र में भूकंप
हिमालय की तलहटी में बसे नेपाल में भूकंप आते रहते हैं। इसके चलते नेपाल को दुनिया के सर्वाधिक भूकंप संभावित इलाकों में से एक माना जाता है। सवाल यह है कि नेपाल में इतने भूकंप क्यों आते हैं। नेपाल में आए इस भूकंप ने पिछले 80 वर्ष में मध्य हिमालय क्षेत्र को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। विशेषज्ञों के अनुसार इस क्षेत्र में इंडियन प्लेट (भारतीय भूगर्भीय परत) यूरेशियन प्लेट के नीचे दबती जा रही है और इससे हिमालय ऊपर उठता जा रहा है। यह प्लेट हर साल यूरेशियन प्लेट के 5 सेंटीमीटर नीचे जा रही है। इससे वहां के चट्टानों के ढांचे में तनाव पैदा हो रहा है। यह तनाव जब चट्टानों की बर्दाश्त के बाहर हो जाता है तो भूकंप आता है। भारत हर साल करीब 47 मिलीमीटर खिसककर मध्य एशिया की तरफ बढ़ रहा है।
पीडि़तों की सहायता हेतु विहिप की तीन स्तरीय योजना
नेपाल और भारत के जो बच्चे इस भूकंप में अनाथ हुए हैं, उन का प्रबंध विश्व हिन्दू परिषद प्रेम से करेगी। इन बच्चों की देखभाल में जिन्हें सहयोग करना हो, वे अवश्य संपर्क करें। इस भूकंप में जिन के घर गिरे हैं, उन में से ज्यादातर घर विश्व हिन्दू परिषद बनवाकर देगी। इस हेतु आपदाग्रस्त क्षेत्रों में से कुछ गांव गोद लेकर उनको िऊर से खड़ा करने का कार्य जल्द से जल्द पूरा किया जाएगा। गृह निर्माण या इससे सम्बंधित जो कंपनियां या सहृदय व्यक्ति जरूरतमंदों के घर बनाने में सहायता करना चाहते हैं, वे अवश्य आगे आएं।
हिन्दुओं के श्रद्घास्थानों को पुन: खड़ा करना हम सभी का दायित्व है। प्राचीन स्थानों की सैर कराना, यह नेपाल की अधिकतर जनता की आजीविका भी थी। विश्व हिन्दू परिषद मंदिरों के पुनर्निर्माण हेतु हर संभव सहायता करेगी। हमारा आवाहन है कि भारत और विदेशों के बड़े मंदिर प्रतिष्ठान एक-एक मंदिर केवल सहायता हेतु 'गोद' लें और इस पुण्य कार्य में आगे आएं।
सहायता राशि 'विश्व हिन्दू परिषद' के नाम चेक/अथवा ड्राफ्ट द्वारा (दिल्ली में भुगतान हेतु) बनवाकर विश्व हिन्दू परिषद के ओरियण्टल बैंक ऑफ कामर्स, बसंतलोक शाखा के खाता संख्या 04072010017250 (कऋरउ-डफइउ0100407) में सीधे जमा करा सकते हैं। विश्व हिदू परिषद ढअठ-अअअळश् 0222ऊ है।
यदि दानदाता आयकर अधिनियम की धारा 80-ॠ की सुविधा चाहते हैं तो सहायता राशि चेक/बैंक ड्राफ्ट 'भारत कल्याण प्रतिष्ठान' के नाम नई दिल्ली के किसी भी बैंक में भुगतान हेतु बनाया जायेगा। भारत कल्याण प्रतिष्ठान के ओरियण्टल बैंक ऑफ कामर्स, बसंत लोक, नई दिल्ली शाखा के खाता संख्या 04072010019960 (कऋरउ-डफइउ0100407) में सहायता राशि सीधे भी जमा करा सकते हैं।
आपबीती
'चारों तरफ बदहवासी, चीख-पुकार'
20 साल के शुभेन्द्र को अभी काठमांडू स्थित नेपाल मेडिकल कालेज में एमबीबीएस में दाखिला लिए कुछ ही महीने हुए हैं। सब कुछ मजे में चल रहा था। पढ़ना और दोस्तों के साथ मस्ती करना। कोई कष्ट था ही नहीं। लेकिन 25 अप्रैल की सुबह 11़ 41 बजे और उसके बाद लगातार तीन दिनों तक उसके साथ जो घटा उसकी याद आज भी रात में शुभेन्द्र को सोने नहीं देती। हालांकि आज वह दिल्ली में अपने घर लौट आया है। उस दर्दनाक याद से उबरते शुभेन्द्र भारद्वाज से हमने 25 अप्रैल की उस दुखदायी घड़ी के बारे में पूछा तो उसने बताया, 'सुबह 11.41 बजे भूकम्प आया तब मैं हॉस्टल में अपने कमरे में था। लगा जैसे पूरी बिल्डिंग कांप रही हो, नीचे फर्श झनझना रहा था। मैं समझ गया, ये भूकम्प था। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ भागकर बाहर मैदान में आया तो देखा, हमारी बाउंड्री वॉल टूट कर गिर रही है। सामने की बिल्डिंग हिलती दिखाई दी। काफी देर तक यही हड़कम्प मचा रहा, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। दिल जोरों से धड़क रहा था। ऐसा दर्दनाक और डरावना नजारा पहले कभी नहीं देखा था।' शुभेन्द्र की आवाज में उस घड़ी का दर्द महसूस हो रहा था।
इधर कालेज के उप प्राचार्य ने घायलों और मरने वालों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सभी छात्रों से हॉस्टल खाली करके छुट्टी पर अपने घर चले जाने को कह दिया। दिल्ली के तीन और साथियों के साथ शुभेन्द्र ने भी हालात ठीक होने तक घर लौटने का फैसला किया। जाहिर है उसके माता-पिता भी बेहद चिंतित थे। लेकिन दिल्ली की राह इतनी आसान नहीं रही। शुभेन्द्र ने बताया-'हम चार जन फौरन हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गए; हमने सुना था कि भारत सरकार ने हमारे लिए कुछ इंतजाम किया है सो दिल्ली पहंुचने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। लेकिन हवाई अड्डे तक का 15-20 मिनट का रास्ता उस वक्त बेहद लंबा लगा। चारों तरफ भाग-दौड़ और चीख-पुकार मची थी। बिजली के खंबे गिरे पड़े थे; घर, दफ्तर, दुकान, मॉल़.़. सब ईंटों के ढेर बन गए थे। दिल की धड़कनें तेज हो गईं। हम मेडिकल के स्टूडेंट्स थे सो फर्स्ट एड तो दे ही सकते थे, इसलिए जहां जितना बन पड़ा, रुककर मदद की। लेकिन उधर हवाई जहाज का वक्त हो रहा था। हवाई अड्डे पहंुचकर देखा, निजी कंपनी वाले दिल्ली के लिए 40 हजार तक किराया मांग रहे थे। हवाई अड्डे पर आपाधापी मची थी, दुकानों पर खाने-पीने का सामान नहीं था। पानी की एक बोतल 150 रु में मिल रही थी। कोई लाइन में खड़े नहीं रहना चाहता था, लाइन तोड़कर लोग सीधे हवाई जहाज में पहंुचने को उतावले थे। वहां मदद के लिए जो एकाध अफसर था भी तो उससे भीड़ संभल नहीं रही थी। 28 की शाम तक हम हवाई अड्डे पर और आस-पास भटकते रहे। दूतावास के भी अधिकारी कोई खास मदद नहीं कर पा रहे थे। उड़ानें रद्द होने से और हाय-तौबा मची थी। हम ही जानते हैं कैसे भूखे-प्यासे रहकर हमने वे तीन दिन गुजारे। आखिरकार हमें 28 अप्रैल की शाम होते तक ही हवाई जहाज में बैठना नसीब हुआ और शाम 6़ 30 पर दिल्ली हवाई अड्डे पहंुचे।'
शुभेन्द्र कभी घर से बाहर नहीं रहा था और अब जब पढ़ने के लिए पहली बार हॉस्टल में रहने गया तो कुदरत ने ऐसा कहर बरपाया कि उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। वह नेपाल से आने वाली हर खबर पर नजर रख रहा है और मरने वालों की बढ़ती संख्या देखकर दुखी है। हालात सुधरने पर वह फिर काठमांडू लौटेगा; पर उस वक्त उस शहर की सूरत वैसी नहीं होगी जैसी उसे तब दिखी थी जब कुछ महीने पहले उसने वहां दाखिला लेने के बाद पहली बार कदम रखा था। – आलोक गोस्वामी
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