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सूरज और जुगनुओं का फर्क

by
May 16, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 May 2015 13:58:40

 

शिवानन्द द्विवेदी
राष्ट्र, संस्कृति एवं भारत-भूमि के परम्परागत मूल्य जैसे शब्दों एवं विचारों से जिन्हें सदा से ही चिढ़ रही है, वे राष्ट्रकवि दिनकर से भी चिढ़ते हैं। ये कौन लोग हैं, इसकी शिनाख्त हो चुकी है और अक्सर होती रहती है। दिनकर का लेखन किसी एक विधा तक सीमित न होकर समग्र था। वे राष्ट्रीयता के स्वरों को काव्य एवं गद्य दोनों ही विधाओं में मुखरता से उठाते रहे हैं। लेकिन देश में सत्तर के दशक के बाद बौद्धिक घोटालेबाजों की ऐसी चौकड़ी बनती गयी जिसने दिनकर जैसे 'साहित्य के सूर्य' तक को अपने प्रलापी प्रपंचों के जरिये हाशिये पर लाने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी। दिनकर के साहित्य सृजन से प्रत्यक्ष टकराना इतना दुरूह था कि उन्होंने दिनकर के साहित्य के बराबर साहित्य लिखने की बजाय, साहित्य के मापदंड बदलने की बौद्धिक घोटालेबाजी का षड्यंत्र रच दिया दिनकर पर जितना लिखा जाना चाहिए, क्या उतना लिखा गया है? क्या दिनकर का वास्तविक मूल्यांकन हुआ है? आज ये सवाल बेजा नही हैं। उनके काव्य से टकराना मुश्किल इसलिए था, क्योंकि उनके काव्य-कौशल में अनोखी धार थी। छंदबद्ध पंक्तियों के साथ-साथ कथ्य एवं तथ्य दोनों को समाहित करते हुए लय, ताल एवं धार के साथ काव्य में वे अपनी बात कहते थे। समाज की तत्कालीन परिस्थितियों से जुड़ी एक ही समस्या को दिनकर किस ढंग से कहते थे और उनके समकालीन कोई अन्य राष्ट्र एवं संस्कृति जैसे शब्दों से दूरी बनाकर चलने वाली विचारधारा का कवि कैसे कहता है, यह समझना कोई 'राकेट साइंस' समझने जैसा कठिन नहीं है। मार्क्सवादी विचारधारा को ताउम्र ढोने वाले प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता जनविरोधी सरकार के विरोध में कैसे लिखी जाती है, और इसी समस्या को राष्ट्रकवि दिनकर किस ढंग से उठाते हैं, ये दोनों नजीरें कुछ यों समझी जा सकती हैं-
केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी पुस्तक 'कहें केदार खरी खरी' में लिखा है़.़
मानव से मानव शोषित है,
अत:आज हम हंसते-हंसते
नई शपथ यह ग्रहण करेंगे
जनवादी सरकार करेंगे।
सरकार के प्रति जनता के इसी असंतोष को दिनकर कुछ यों कहते हैं-
सदियों की बुझी, ठंडी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
उठो समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन करो खाली कि जनता आती है।
इसमें कोई शक नहीं कि दोनों दो धारा के कवि हो सकते हैं। दोनों की शैली भी अलग हो सकती है। छंद एवं तुक का मिजाज भी अलग-अलग हो सकता है। यह भी कोई बड़ी बात नही कि कोई अतुकांत कविता लिखे अथवा छंदबद्ध लिखे। अतुकांत कविता का भी अपना सौन्दर्य होता है। दिनकर ने भी अपने खंडकाव्यों में अतुकांत लिखा है। मगर अतुकांत काव्य लिखने के नाम पर अगर भाव, कथ्य, लय की धारा का गला घोंटा जाय तो इसे भला साहित्य के मापदंडों पर कैसे उचित ठहरा देंगे? काव्य केवल कथ्य की मांग नहीं करता, वरन् वह भाव, लय एवं सतत् बहती धारा की भांति भी होता है। दिनकर के अतुकांत काव्य की एक नजीर रखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अतुकांत काव्य में भी कितने अनुशासित एवं प्रवीण थे। उनकी अतुकांत रचना में भी भाव एवं सतत् लय का अभाव कहीं नहीं दिखता है।
अपने प्रबंध-काव्य कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं,
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त औषधि के सिवा उपचार क्या
शमित होगा यह नही मिष्ठान्य से।
अब अगर प्रगतिशील कविता के नाम पर ज्ञानपीठ से सम्मानित केदारनाथ सिंह की एक अतुकांत रचना देखें तो वे भी दिनकर के सामने लोक की समझ के अनुरूप काव्य लिखने के मामले में कहीं नहीं ठहरते हैं। प्रगतिशील धारा के केदारनाथ सिंह ने 'कथाओं से भरे इस देश में' लिखा है-
कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूं
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में।
साहित्य एवं कविता में रुचि रखने वाले एक आम पाठक के नजरिये से अगर दिनकर बनाम अन्य का मूल्यांकन करें, तो पहला मापदंड यही तय होना चाहिए कि कौन कवि अथवा लेखक आम लोक की बात को आम लोक के मिजाज में लिखता है। यह सवाल इसलिए क्योंकि कविता अथवा साहित्य किसके लिए लिखा जा रहा है? तुक-ताल और लय-छंद से मुक्त कविता के माध्यम से क्या बताने अथवा पढ़वाने की कोशिश की जा रही है? क्या कारण है कि हिंदी में कालजयी रचनायें रची जानी बंद हो गयीं और अब देश का युवा 'हाफ-गर्लफ्रेंड' को खरीदने में रुचि दिखाने लगा है? क्या आज के कवियों में ओज और तेज प्रस्फुटित करने वाली कविताओं को लिखने का कौशल नहीं है, अथवा वे वाकई नहीं चाहते कि साहित्य की पहुंच लोक तक हो भी?
कविता में देश की युवा पीढ़ी को उद्वेलित करने वाले स्वर मर चुके हैं और कविता महज साहित्यकारों की गोल-चौकड़ी की बौद्धिक जुगाली का साधन मात्र बनकर रह गयी है। हिंदी साहित्य के इस हश्र का दोषी हर वह लेखक अथवा साहित्यकार है, जो आज स्थापित है। साहित्य में हुआ यह बौद्धिक घोटाला इंदिरा गांधी के समय ही शुरू हो गया था। यह वह दौर था जब तमाम साहित्यकारों ने सरकार के आगे समर्पण कर दिया। रोष, विरोध एवं उद्वेलित करने वाले दिनकर जैसे कवि इंदिरा गांधी की तानाशाह सरकार के लिए हमेशा खतरा रहते, लिहाजा इंदिरा गांधी ने साहित्य जगत को अपने चंगुल में करने का काम किया और तब बहुत सारे साहित्यकार नतमस्तक भी हुए होंगे। यहीं से दिनकर पर हमला शुरू होता है और हमले का उपकरण बनाया जाता है छंदमुक्त कविता को। सरकारी पैसे पर यह दुष्प्रचार फैलाने का ठेका तब एक स्थापित लेखक संघ ने लिया और यह दुष्प्रचार किया कि अगर आप छन्दयुक्त कविता लिखते हैं, तो इसका मतलब ये कि आप सिर्फ मंचीय कवि होने तक सीमित हैं। दिनकर के सामाजिक चिन्तन एवं राष्ट्रवादी धारणा को महज मंचीय कवि तक साबित करने की भर सक कोशिश की गयी और अभी भी की जा रही है।
उभरते आलोचक अनंत विजय अपने लेख में लिखते हैं, 'जिस तरह से हिंदी में एक खास तरह की विचारधारा वाली कविता का दौर शुरू हुआ और मार्क्सवादी आलोचकों ने उसको जिस तरह से उठाया उसने कविता का बड़ा नुकसान किया। मार्क्सवादी आलोचकों ने खास विचारधारा वाली कविता को श्रेष्ठ साबित करने के लिए छंद में कविता लिखने वालों को मंचीय कवि कहकर मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। पूरे हिंदी साहित्य में ऐसा परिदृश्य निर्मित कर दिया गया कि अगर आप छंदबद्ध कविता करते हैं और मंच पर सुर में कविता पाठ करते हैं तो आप प्रतिष्ठित कवि या गंभीर कवि नहीं हैं। उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि इस दुष्प्रचार का नतीजा यह हुआ कि आगे आने वाली पीढ़ी ने छंद वाली कविता लिखना बंद कर दिया और ऐसे मंच पर जाना बंद कर दिया।
हालांकि साहित्य जगत में दिनकर इतने बड़े हस्ताक्षर हैं कि उनके नाम पर सीधा प्रहार न तो किसी प्रगतिशील के बूते की बात रही और न ही किसी विरोधी ने ही इतना जोखिम लिया होगा। लेकिन दिनकर की ओज भरी, लोक से सीधे जुड़ने वाली शैली को खारिज करने की भरसक कोशिश की गयी है। वर्तमान के तमाम साहित्यिक दिग्गजों को भी उसी परम्परा को बढ़ाने वाला कवि कहा जा सकता है।
रचनाकर्म का उद्देश्य ये होना चाहिए कि वह सामान्य जन की समझ में आये और सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करे। रचनाकर्म ऐसा नही होना चाहिए कि सामान्य जन के लिए अबूझ पहेली बनकर साहित्यकारों की चौकड़ी के विमर्श तक सिमट कर रह जाय। दिनकर को लेकर केवल प्रगतिशील ही नहीं बल्कि नब्बे के दशक के बाद उभरे वंचित वर्ग के साहित्यकारों ने भी उनको खारिज ही किया है। जबकि सच्चाई ये है कि अपनी काव्य-कृतियों में दिनकर ने हाशिये के समाज की अभिव्यक्ति को किसी भी कथित वंचित साहित्यकार से ज्यादा उठाया है। दिनकर ने रूढि़वादी जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने खंड-काव्य 'परशुराम की
प्रतीक्षा' में लिखा है-
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।
आज 'दलित साहित्य' के नाम पर भी छन्दमुक्त कविता का प्रचलन चल पड़ा है, जिसकी पहुंच न तो 'दलित समाज' तक है और न हो सकती है। अगर वाकई किसी शोषित, 'दलित' अथवा पीडि़त की आवाज साहित्य में काव्य के माध्यम से देखने की लालसा है, तो दिनकर यहां भी उसी शैली में उपस्थित मिलते हैं। 'दलित' साहित्य की चौकड़ी ने दिनकर को इसलिए खारिज किया होगा क्योंकि वे 'दलितों' की बात तो करते थे, लेकिन खुद 'दलित' नही थे। 'दलित' साहित्य की नई प्रथा ने यह साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है कि 'दलित साहित्य लिखने के लिए दलित होना भी अनिवार्य है।' हालांकि यह तर्क चल नहीं पाया और यहां भी दिनकर किसी भी 'दलित' साहित्य के पुरोधा से ज्यादा बेबाक लेखन करते नजर आते हैं। अगर ईमानदारी से मूल्यांकन हो तो 'दलित' उत्थान की किसी भी कृति से बड़ी कृति दिनकर द्वारा 'कर्ण' को केंद्र में रखकर लिखी गयी 'रश्मिरथी' है। दिनकर यहां भी जाति-व्यवस्था पर अपनी लेखनी में कुछ यों लिखते हैं-
जाति-जाति रटते जिनकी पूंजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूं जाति, जाति हैं ये मेरे भुज-दंड।
दिनकर का काव्य-कौशल का दायरा जितना व्यापक है, गद्य में भी वह उतना ही बड़ा है। लेकिन हाशिये पर धकेलने की साजिशों ने दिनकर के गद्य का मूल्यांकन भी नहीं होने दिया। 'संस्कृति के चार अध्याय' निबंध संग्रह के अलावा दिनकर की पच्चीस और गद्य रचनाएं हैं। दिनकर का समग्र मूल्यांकन करें तो एक दिनकर के अन्दर न जाने कितने दिनकर नजर आयेंगे। मगर दुर्भाग्य ये है कि दिनकर का मूल्यांकन कभी इतने व्यापक अथोंर् में हुआ ही नहीं है। कोई दिनकर को 'दिग्भ्रमित कवि' कहता है तो कोई 'सरकारी कवि'। जबकि सचाई यही है कि दिनकर ने हमेशा समाज के लिए कविता की है। दिनकर का वितान इतना विस्तृत है कि उनका मूल्यांकन भी दो बिन्दुओं पर किया जाना जरूरी है।
पहला, साहित्य में दिनकर एवं दूसरा दिनकर का साहित्य। अगर वास्तविक मूल्यांकन हुआ होता तो इसमें कोई शक नहीं कि साहित्य में दिनकर की स्थिति सूर्य जैसी होती और दिनकर का साहित्य भारतीय समाज एवं राष्ट्र का सच्चा प्रतिबिम्ब होता। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने तो यह स्वीकार किया है कि दिनकर साहित्य में सूर्य जैसे थे। फिर सवाल वही है कि अगर दिनकर साहित्य के सूर्य हैं तो वर्तमान कवियों की धारा भटकाने का बौद्धिक अपराध कौन रहा है? दिनकर की शैली को खारिज कर समाज से कटी हुई नई शैली को ईजाद करने वाले कवियों की फसल किसने तैयार की है और कर रहा है और साहित्य की उर्वर जमीन से उपयोगी फसल की बजाय ये घास-फूस क्यों पैदा हो रहे हैं, ये सवाल भी आलोचकों और स्थापितों से पूछे जाने चाहिए। फिलहाल इस सवाल पर वर्तमान धारा के साहित्यकारों पर दिनकर की ही लिखी एक पंक्ति सटीक बैठती है-
यह गहन प्रश्न, कैसे रहस्य समझायें?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहां खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

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