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नेहरू या कहें कांग्रेस की दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान क्या भूमिका रही? नेताजी अचानक विमान दुर्घटना में कैसे 'मारे' गए? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब देश चाहता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के असली हाव-भाव, आचार-विचार और कथनी-करनी को आज कौन नहीं जानता। इंटरनेट के युग में इस सचाई से पर्दे हट चुके हैं, परतें उघड़ चुकी हैं कि नेहरू दरअसल सिर्फ विदेशों में सिले और इस्त्री कराए जाने वाले लिबास के अलावा कहीं से भी भारत की माटी के नहीं थे, न ही अपनी अंतरंग मंडली में वैसे दिखना-कहलाना चाहते थे। लार्ड माउंटबेटन और एडविना से उनकी नजदीकियों के सिर्फ चर्चे ही नहीं हैं, बल्कि तमाम ऐसे चित्र आज उपलब्ध हैं जो उनकी उस अंतरंगता की गर्मजोशी को उजागर करते हैं। ऐसे अंग्रेजी हाव-भाव वाले नेहरू को 1935 से 1945 के बीच जिस राष्ट्रभक्त और सही मायनों में देश-दुनिया में स्वतंत्रता की अलख जगाने वाले से प्रतिद्वंद्विता का भय लगता था, वे थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस। बोस का कांग्रेस अध्यक्ष पद पर होना नेहरू को जरा नहीं सुहाया था। गांधी जी के साथ उनकी जाने क्या मंत्रणा हुई कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कांग्रेस को अंग्रेजों के सहायक गुट जैसा बना दिया गया। ब्रिटिश-भक्त नेहरू ने उस दौरान परोक्ष रूप से अंग्रेजों का पक्ष लेने की वकालत की थी, हालांकि सुभाष बोस ने साफ कहा था कि दूसरा विश्वयुद्ध साम्राज्यवादी चौसर से उपजा है अत: हमें किसी पक्ष में खड़े न होकर तटस्थ भूमिका अपनानी चाहिए। 9 से 17 सितम्बर 1939 को वर्धा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी ने मित्र राष्ट्रों के प्रति सहानुभूति जताई थी। कांग्रेस ने कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाया, लिहाजा यह निष्क्रियता अंग्रेजों की सहायक साबित हुई। अ्रंग्रेजों को नेताजी से भय था, इसलिए वे बराबर उनकी और उनके परिवार की जासूसी कराया करते थे। और बाद में नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में इस प्रथा को बदस्तूर जारी रखा और प्राप्त जानकारियां ब्रिटिश खुफिया एजेंसी से साझा कीं।
इसमें संदेह नहीं है कि अगर 1945 में सुभाष बोस भारत लौट आते तो उनकी इतनी लोकप्रियता थी कि बहुत संभव है पहले प्रधानमंत्री वही बनते। लेकिन भारत में यह खबर फैला दी गई कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में मंचूरिया (जो उस वक्त सोवियत फौज के अधीन था)जाते वक्त नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें नेताजी की कथित 'मौत' हो गई। जबकि साक्ष्य हैं कि मंचूरिया में सही-सलामत पहंुचने के बाद उन्हें वहां गिरफ्तार करके मास्को की एक जेल में बंद कर दिया गया था। स्टालिन ने नेहरू के रास्ते भारत से अच्छे संबंध बनाए रखने को सारा 'इंतजाम' किया था। भारत में नेताजी के परिवार को इसकी जानकारी न पहंुचे इसके लिए सारे मामले को कागजों और फाइलों समेत दबा दिया गया। रूसी सूत्रों के हवाले से पता चला कि मास्को की जेल में 11 साल बाद नेताजी का निधन हुआ। सच का गला घोंटने वाली कांग्रेस और बाद में रहे प्रधानमंत्रियों ने नेहरू के उस असली 'खेल' को सामने नहीं आने दिया।
…..लेकिन अब दस्तावेजी साक्ष्य बाहर आने लगे हैं। परतें उघड़ने लगी हैं। सारे तथ्य मौजूद हैं, जो सामने लाए जाने ही चाहिए। केन्द्र सरकार ने एक जांच कमेटी बनाई है, वह इस ओर तेज गति से काम करे और पता करे कि बोस का दोषी कौन है। प्रस्तुत है इस विषय पर संधान करती रपट, विश्लेषण और आलेख से सजा विशेष आयोजन ।
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