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छुट्टी का हक तो बनता ही है…

by
Mar 7, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Mar 2015 12:24:45

विजय कुमार
शर्मा जी बहुत दिन से घूमने नहीं आ रहे थे। बाकी मित्र तो चिन्ता नहीं करते; पर मेरा मन उनके बिना नहीं लगता। बहुत दिन हो जाएं, तो मैं उनके घर चला जाता हूं। परसों गया, तो पता लगा कि वे छुट्टी पर हैं। कहां गए हैं और कब आएंगे, इसका जवाब भाभी जी ठीक से नहीं दे सकीं। बोलीं, 'ये तो उन्हीं को पता होगा; पर फिलहाल वे बाहर हैं।' अब जो आदमी परिवार के लिए दिन-रात खटता हो, उसका छुट्टी पर जाना अपराध तो नहीं है साहब, पर चुपचाप चले जाना भी तो ठीक नहीं है। शाम को पार्क में इसकी चर्चा हुई, तो गुप्ता जी बोले, 'हो सकता है कि शर्मा मैडम को पता हो, पर वे बताना न चाहती हों।'
पर आज सुबह शर्मा जी अचानक प्रकट हो गये। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पूछने पर पहले तो टालते रहे, फिर बता ही दिया कि वे राजुल बाबा के साथ छुट्टियां बिता रहे थे।
– राजुल बाबा के साथ; पर उन्हें छुट्टी की क्या जरूरत पड़ गयी ?
– तुम क्या जानो वर्मा, काम का कितना दबाव है। 'सोना एंड कंपनी' का खानदानी कारोबार, कई नंबरों की संपत्ति, घर के अन्दरूनी टकराव, देश-विदेश में फैले मित्र और रिश्तेदाऱ, एक लफड़ा है क्या? सब जिम्मेदारी उन्हीं पर है। व्यस्तता इतनी है कि कई-कई दिन तक नहाने-धोने और दाढ़ी बनाने का भी समय नहीं मिलता।
– तो वे काम बांटकर बोझ हल्का क्यों नहीं कर लेते?
– यह काम भी तो आसान नहीं है। जिन्हें काम देते हैं, वे कुछ दिन में अपनी अलग ही दुकान खोल लेते हैं। कई साथियों ने तो पुरानी फर्म से ही नाता तोड़ लिया है। उनकी दुकानें भी 'सोना एंड कम्पनी' से अच्छी चल रही हैं।
– पर कारोबार में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं?
– हां, पर कई पुराने ग्राहक कह रहे हैं कि यदि राजुल बाबा से काम नहीं संभलता, तो वे इसे पिंकी दीदी को सौंप दें, पर इसके लिए 'माताश्री' तैयार नहीं हैं। वे दीदी को तो चाहती हैं, पर दामाद जी को नहीं। उन्हें डर है कि कहीं दामाद जी ही फर्म न कब्जा लें। फिर तो न कोई उन्हें पूछेगा और न राजुल बाबा को।
– तो उन्हें फर्म के खानदानी मुनीमों से सलाह लेनी चाहिए।
– यही तो मुसीबत की जड़ है। पुराने लोग नहीं चाहते कि अभी से राजुल बाबा 'सोना एंड कम्पनी' के सर्वेसर्वा बन जाएं। वे कहते हैं कि बाबा अभी छोटे हैं। उन्हें कुछ वर्षों तक काम सीखना चाहिए, पर माताश्री को डर है कि यदि फर्म किसी और को दे दी, तो कहीं वे राजुल बाबा को ही बेदखल न कर दें। महलों में यह मारामारी आम बात है। फिर 'माताश्री' का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। वे अपनी आंखों के सामने ही बेटे को फर्म संभलवा देना चाहती हैंं।
– लेकिन दो-चार बरस काम सीखने में क्या बुरा है?
– पुश्तैनी काम तो बच्चे हंसते-खेलते ही सीख जाते हैं। राजुल बाबा का भी ऐसा ही है। पिछले कुछ वर्षों से तो 'माताश्री' ने पूरा धंधा उन्हें ही सौंप रखा है। वे खुद तो नाममात्र की मुखिया हैं। असली मालिक तो राजुल बाबा ही हैं। वे काम में काफी मेहनत भी कर रहे हैं।
– युवा हैं, तो मेहनत करेंगे ही।
– पर उनका कहना है कि उन्हें काम करने नहीं दिया जा रहा। जड़ों में घुसे खूसट बूढ़े उनके युवा साथियों को बढ़ने नहीं देते। राजुल बाबा एक झटके में सब पुरानी धूल साफ कर देना चाहते हैं, पर इसके लिए 'माताश्री' तैयार नहीं हैं। वे अनुभवी मां की तरह जानती हैं कि पेट वाले की आस में गोद के बच्चे नहीं फेंके जाते।
– तो उनके परिश्रम से काम कितना बढ़ा है ?
– यही तो परेशानी है। जब से उन्होंने काम संभाला है, लगातार घाटा हो रहा है। घाटा तो 'माताश्री' के सामने ही होने लगा था। बंगाल, उ़ प्ऱ, म़ प्ऱ, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिसा और पंजाब में फर्म लुट गयी। बाबा के हाथ में काम आने के बाद राजस्थान, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि में भी डब्बा गोल हो गया। कहीं दूसरी फर्में बढ़ रही हैं, तो कहीं अपने से अलग हुए साथी। फर्म का मुख्यालय दिल्ली में है। माता से लेकर बेटा-बेटी और जीजाश्री तक सब यहीं रहते हैं, पर यहां वालों ने तो पिछले दिनों खाता ही बंद कर दिया। अब तो डर ये है कि कहीं फर्म का फर्नीचर ही समेटने की नौबत न आ जाए। फिर 'कोढ़ में खाज' की तरह बाबा की ये बार-बार की छुट्टी।
– शर्मा जी, बुरा न मानें तो एक बात कहूं? फर्म चौपट करने में जब राजुल बाबा इतनी मेहनत कर रहे हैं, तो उनका कुछ दिन छुट्टी का हक तो बनता ही है।
शर्मा जी मेरा मुंह देखते रह गये।

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