मदर टेरेसा : ममता या मिशन?
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मदर टेरेसा : ममता या मिशन?

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Mar 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2015 14:12:05

दर्द निवारक दवाओं या 'पेनकिलर्स' का महत्व हम सभी जानते हैं, लेकिन उसकी जरूरत को हम उस व्यक्ति से ज्यादा नहीं समझ सकते, जो कि कैंसर से जूझ रहा हो, या जिसका कोई अंग जल गया हो, अथवा कोई वृद्ध व्यक्ति, जो गठियावात से जर्जर शरीर को घसीट-घसीट कर जिंदगी काट रहा हो। हम केवल कल्पना कर सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि दांत का दर्द भी रुला देता है। कल्पना कीजिए किसी मरते हुए कैंसर रोगी की, किसी दर्द में कराहते वृद्ध की, जिसे उसकी तथाकथित सेवा कर रहे लोग 'पेनकिलर्स' से वंचित रखें, या इलाज के बिना तड़पता छोड़ दें, ताकि वह 'जीसस द्वारा सूली पर भोगे गए दर्द' को महसूस करके ईसाइयत में दीक्षित हो सके। आप विचलित हो सकते हैं, पर ऐसा हजारों अभागों के साथ हुआ है। ब्रिटिश-अमरीकी लेखक क्रिस्टोफर हिचेन्स (अप्रैल1949-दिसंबर 2011) ने टेरेसा पर किताब लिखी। नाम है – 'मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस'। सारी दुनिया में मीडिया के वर्ग विशेष द्वारा महिमामंडित की गईं मदर टेरेसा के 600 मिशन कार्यरत हैं। इनमें से कुछ मिशन में रखे गए रोगियों के बारे में चिकित्सकों ने चौंकाने वाले वक्तव्य दिए हैं। इन स्थानों को 'मरने वालों का बसेरा' कहा है। उन्होंने यहां पर स्वच्छता की भारी कमी, अपर्याप्त भोजन और दर्द निवारक दवाओं की अनुपस्थिति पर आश्चर्य व्यक्त किया है। इन परिस्थितियों का कारण पूछे जाने पर, क्रिस्टोफर हिचेंस के अनुसार, टेरेसा का उत्तर था-'गरीबों, पीडि़तों द्वारा अपने नसीब को स्वीकार करता देखने में, जीसस की तरह कष्ट उठाने में एक तरह का सौंदर्य है। उन लोगों के कष्ट से दुनिया को बहुत कुछ मिलता है।' यहां यह बताना जरूरी है कि जब मदर टेरेसा स्वयं बीमार पड़ीं तो उन्हांेने इन सिद्धांतों को स्वयं अपने ऊपर लागू नहीं किया। न ही अपने इन अस्पतालों को खुद के इलाज के लायक समझा। टेरेसा अमरीका के कैलिफोर्निया स्थित स्क्रप्सि क्लीनिक एंड रिसर्च फाउन्डेशन में भर्ती हुईं। यह बात दिसंबर 1991 की है।
संयोग से मदर टेरेसा के विडंबनाओं और वर्जनाओं से पूर्ण जगत में झांकने के लिए कई झरोखे मौजूद हैं। टेरेसा के ही मिशन में काम करने वाली एक आस्टे्रलियाई नन कॉलेट लिवरमोर ने अपने मोहभंग और यंत्रणाओं पर किताब लिखी है-होप एन्ड्योर्स। अपने 11 साल के अनुभव के बारे में कॉलेट बताती हैं कि कैसे ननों को चिकित्सकीय सुविधाओं, मच्छर प्रतिरोधकों और टीकाकरण से वंचित रखा गया ताकि वे 'जीसस के चमत्कार पर विश्वास करना सीखें' और किस प्रकार कॉलेट स्वयं एक मरणासन्न रोगी की सहायता करने के कारण संकट में पड़ गई थीं। वे लिखती हैं कि वहां पर तंत्र उचित या अनुचित के स्थान पर हुक्म बजाने पर जोर देता है। आज्ञापालन के लिए ननों को आदेशित करते हुए टेरेसा ईसाई वांग्मय के उदाहरण देती थीं, जैसे कि 'दासों को उनके मालिकों की आज्ञा का पालन करना चाहिए भले ही वे कर्कश और दुरूह हों' (पीटर 2:8:23)। जब ऐलेक्स नामक एक बीमार बालक की सहायता करने से रोका गया तब कॉलेट ने टेरेसा को अलविदा कह दिया। कॉलेट ने लोगों से अंधानुकरण छोड़कर अपनी बुद्धि का उपयोग करने की अपील की है। धीरे-धीरे मिथक टूट रहे हैं। आज विश्लेषक सवाल उठाते हैं कि छह दशक तक टेरेसा के द्वारा किए गए कायार्ें से हासिल क्या हुआ है? टेरेसा की कर्मभूमि रहा कोलकाता अपनी दुर्दशा से कितने इंच आगे सरक सका है, सिवाए इसके कि टेरेसा की छवि चमकाने में लगे प्रचारतंत्र की चॉक ने कोलकाता के ब्लैकबोर्ड को काले से काला चित्रित किया है?
वर्ष 2013 में कैनेडा के शोधार्थियों, सार्ज लैरिवी और जैनेवीब कैनार्ड, जो क्रमश: यूनिवर्सिटी ऑफ मॉन्ट्रियल्स, डिपार्टमेंट ऑफ सायको एजुकेशन और कैरोल सेंनेचल ऑफ द यूनिवर्सिटी ऑफ ओटावा से संबंधित हैं, ने मदर टेरेसा के जीवन पर आधारित 502 दस्तावेजों का अध्ययन किया और अपना निष्कर्ष सामने रखा। दोनों ने टेरेसा के द्वारा बीमारों की सेवा के तरीकों, आपत्तिजनक राजनैतिक संपर्कों, दान में मिलने वाली अकूत संपत्ति के संदेहास्पद प्रबंधन और परिवार नियोजन, गर्भपात तथा तलाक जैसे मामलों में अतिरूढि़वादिता आदि पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। वे कहते हैं कि टेरेसा के अस्पतालों में आने वाले एक-तिहाई लोग दवा एवं चिकित्सा के अभाव में मर गए। कारण साधनों का अभाव नहीं था। जब वास्तव में पीडि़त मानवता की सेवा की बात आती थी तो टेरेसा की सारी उदारता प्रार्थनाओं तक सीमित होकर रह जाती थी। तब टेरेसा के अरबों रुपए के भण्डार में से धेला भी बाहर नहीं निकलता था। भारत में सैकड़ों बाढ़ें आईं, भोपाल में भयंकर गैस त्रासदी हुई, टेरेसा ने अनगिनत प्रार्थनाएं आयोजित कीं, मदर मैरी के तावीज और क्रॉस बांटे, लेकिन किसी भी प्रकार की आर्थिक या अन्य कोई सहायता नहीं पहुंचाई। वे दुनिया के निष्ठुर तानाशाहांे से सम्मान ग्रहण करती रहीं। करोड़ों रुपया आता रहा लेकिन बैंक खाते गुप्त रखे गए। लैरिवी सवाल उठाते हैं कि गरीब से गरीब आदमी के नाम पर आए करोड़ों डॉलर कहां गए?
इतने सारे विवादों के बावजूद टेरेसा मातृत्व की मूर्ति के रूप में कैसे प्रचलित हो गईं, इसके बारे में लैरिवी और कैनार्ड कहतेे हैं कि 1968 में लंदन में टेरेसा की मुलाकात रूढि़वादी कैथोलिक पत्रकार मैल्कम मगरिज से हुई। मगरिज ने टेरेसा को मास-मीडिया की शक्ति के बारे में समझाया और संत की छवि गढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। 1969 में टेरेसा को केन्द्र में रखकर एक प्रचार फिल्म बनाई गई जिसे 'चमत्कार का पहला फोटोग्राफिक प्रमाण' कहकर हवा बनाई गई। उसके बाद टेरेसा एक चमत्कारिक संत कहलाती हुईं, पुरस्कार और सम्मान बटोरती हुईं सारी दुनिया में घूमीं, नोबल पुरस्कार भी मिल गया। भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति की जरूरतों के चलते मदर टेरेसा को भारत रत्न से भी नवाजा गया। धीरे-धीरे टेरेसा के चारों ओर ऐसा आभामंडल गढ़ दिया गया कि किसी भी प्रकार का सवाल उठाना वर्जित हो गया।
कितने सवाल हैं, जो पूछे नहीं गए। गरीबों के बीच काम करने वाली मदर टेरेसा परिवार नियोजन साधनों के विरुद्ध थीं। जिन भारतवासियों से प्यार का टेरेसा ने दावा किया, उनकी संस्कृति, उनकी समृद्ध विरासत की प्रशंसा में कभी एक शब्द भी नहीं कहा। 1983 में एक हिन्दी पत्रिका को दिए साक्षात्कार में जब मदर टेरेसा से सवाल पूछा गया कि 'एक ईसाई मिशनरी होने के नाते क्या आप एक गरीब ईसाई और दूसरे गरीब (गैर ईसाई) के बीच स्वयं को तटस्थ पाती हैं?' तो टेरेसा का उत्तर था,'मैं तटस्थ नहीं हूं। मेरे पास मेरा मजहब है।' इसी साक्षात्कार में जब टेरेसा से पूछा गया कि अपनी खगोलशास्त्रीय खोजों के कारण मध्ययुगीन चर्च द्वारा प्रताडि़त किए गए वैज्ञानिक गैलीलियो और चर्च में से वे किसका पक्ष लेंगी, तो टेरेसा का संक्षिप्त उत्तर था-'चर्च'। गौरतलब है कि मध्ययुगीन चर्च ने अपने विश्वासों और नियमों को समाज पर थोपने के लिए कठोर यंत्रणाओं का सहारा लिया। रोमन कैथोलिक चर्च के लोगों ने यूरोप सहित दुनिया के अनेक भागों में कुख्यात इंक्वीजीशन कानून लागू किया, जिसमें लोगों को उनके गैर ईसाई विश्वासों के कारण कठोर यातनाएं दी गईं। डायन कहकर सैकड़ों वर्षों में लाखों महिलाओं को जिंदा जलाया गया। अंग-अंग काटकर लोगों को मारा गया। चर्च के ही दस्तावेज उन बर्बरताओं को बयान कर रहे हैं, परंतु मदर टेरेसा ने इस सब पर कभी मुंह नहीं खोला। चार्ल्स हम्फ्री कीटिंग जूनियर अमरीका के आर्थिक अपराध जगत का जाना-पहचाना नाम है। यह व्यक्ति '90 के दशक में तब चर्चा में आया जब उसके काले कारनामों के कारण सामान्य अमरीकियों की बचत के 160 बिलियन डॉलर का गोलमाल हुआ। पीडि़तों में अधिकांश लोग गरीब तबके के अथवा पेंशन भोगी वृद्ध थे। बाद में यह तथ्य सामने आया कि कीटिंग ने टेरेसा को एक मिलियन डॉलर दिए थे और हवाई यात्राओं के लिए अपना जेट उपलब्ध करवाया था। जब कीटिंग पर मुकदमा चल रहा था तब टेरेसा ने न्यायाधीश को पत्र लिखकर नरमी बरतने की गुजारिश की और सलाह दी कि चूंकि चार्ल्स कीटिंग एक अच्छा आदमी है इसीलिए उन्हें (न्यायाधीश को) उसके साथ वही करना चाहिए जैसा कि जीसस करते। जीसस क्या करते, कहना मुश्किल है लेकिन न्यायाधीश ने कीटिंग को दस साल की सजा सुनाई। इंडियन हाउस ऑफ रीप्रेजेन्टेटिव्स के पूर्व सदस्य और लेखक डॉ़ डॉन बॉएस के अनुसार टेरेसा को डेप्युटी डिस्ट्रक्टि अटॉर्नी का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने कहा कि चूंकि कीटिंग ने लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा चुराया था, अत: टेरेसा को कीटिंग के दिए 10 लाख डॉलर लौटा देने चाहिए, क्योंकि जीसस भी संभवत: यही करते। परंतु मदर टेरेसा ने न तो पत्र का उत्तर दिया, न ही एक पैसा लौटाया। दुनिया के कुख्यात तानाशाह, जैसे हैती के जीन क्लाउड डोवालिए और अल्बानिया के कम्युनिस्ट तानाशाह एनवर होक्सा, सभी से उनकी नजदीकियां रहीं, सवाल उठते रहे।
रोमन कैथोलिक चर्च जब किसी मिशनरी को संत घोषित करता है, तो उसकी एक विशेष प्रक्रिया होती है, जिसका एक मुख्य भाग है उस व्यक्ति द्वारा किए गए किसी 'चमत्कार' की पुष्टि। टेरेसा की मृत्यु के एक वर्ष बाद पोप ने उन्हें संत की उपाधि दी। क्रिस्टोफर हिचेंस ने इस पर सवाल खड़ा किया है। वे लिखते हैं-'मोनिका बसरा नामक एक बंगाली महिला ने दावा किया कि उसके घर में लगे मदर टेरेसा के फोटो से प्रकाश किरणें निकलीं और उसकी केंसर की गांठ ठीक हो गई, जबकि मोनिका बसरा के चिकित्सक डॉ़ रंजन मुस्तफी का कहना है कि मोनिका बसरा को केंसर था ही नहीं। वह टीबी की मरीज थी एवं उसका बाकायदा इलाज किया गया। क्या वेटिकन ने डॉ़ रंजन से बात की? नहीं। दुर्भाग्य है कि हमारा मीडिया इन विषयों पर प्रश्न नहीं उठाता, न ही तर्कवादी ऐसे दावों पर कोई सवाल खड़े करते हैं।
23 फरवरी, 2015 को राजस्थान में बोलते हुए जब सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने सेवा के भारतीय सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहा कि सेवा का मदर टेरेसा का सिद्धांत भारतीय विचार से मेल नहीं खाता, क्योंकि उसके पीछे व्यक्ति को कृतज्ञ बनाकर ईसाइयत में दीक्षित करने का भाव छुपा है, तो भारत की छद्म सेकुलर राजनीति में बयानों के बुलबुले उठने लगे। प्रसिद्धि के लिए सदा भूखे रहने वाले नेता और तथाकथित एक्टिविस्ट दावे करने लगे कि मदर टेरेसा की सेवा के पीछे ईसाइयत में कन्वर्जन का कोई उद्देश्य नहीं था। मजेदार बात यह है कि अपने इस उद्देश्य को मदर टेरेसा ने स्वयं अनेक बार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया है। 1989 में पत्रकार एडवर्ड डब्ल्यु डेसमंड ने टाइम पत्रिका के लिए मदर टेरेसा का साक्षात्कार लिया। इस साक्षात्कार में टेरेसा ने बहुत सधे हुए शब्दों में उत्तर दिए हैं, लेकिन अपने विचारों को पूरी तरह छिपाया भी नहीं। साक्षाकार के कुछ अंश इस प्रकार हैं –
टाइम-आपके लिए ईश्वर की सबसे बड़ी भेंट क्या है?
मदर टेरेसा-गरीब लोग।
टाइम-कैसे?
मदर टेरेसा-इससे मुझे चौबीस घण्टे जीसस के साथ रहने का मौका मिलता है।
टाइम-भारत में आपकी सबसे बड़ी आशा क्या है?
मदर टेरेसा-सबको जीसस तक पहुंचाना।
टाइम-परन्तु आप रूढ़ तरीके से इवेंजलाइज (ईसाई बनाना) नहीं करतीं।
मदर टेरेसा-मैं प्यार से इवंेजलाइज करती हूं।
टाइम-क्या ये सबसे अच्छा तरीका है?
मदर टेरेसा-हमारे लिए, हां।़.़.हम अनेक देशों में गॉस्पेल का संदेश पहुंचा रहे हैं।
टाइम-आपके कुछ मित्र कहते हैं कि इस विशाल हिंदू देश में पर्याप्त संख्या में कन्वर्जन नहीं होने के कारण आप निराश हैं।
मदर टेरेसा-मिशनरी ऐसा नहीं सोचते़.़.हम नहीं जानते कि भविष्य में क्या है, लेकिन क्राइस्ट के लिए दरवाजा खुल चुका है। हो सकता है कि बडी मात्रा में कन्वर्ज़न न हो रहे हों, लेकिन हम नहीं जानते कि लोगों के अंदर क्या चल रहा है।
साक्षात्कार के अगले हिस्से में मदर टेरेसा बिना लाग-लपेट के कहती हैं कि 'यदि लोगों को शांति और आनंद चाहिए तो उन्हें जीसस को खोजना होगा। लोग धीरे-धीरे पास आ रहे हैं। और जब वे पास आ जाएंगे तब उन्हें 'चुनाव' करना होगा।'
भारत के पढ़े-लिखे वर्ग को बरगलाए रखने के लिए समय-समय पर अनेक मिथक गढ़े गए हैं। आज भी उन मिथकों को पाला-पोसा जा रहा है। यह सब इतनी जल्दी समाप्त होने वाला नहीं। राजनीति की रोटियां सेंकने वाले भी अपना काम करते रहेंगे। खबरिया चैनल मसालेदार खबरों पर चटकारे लेते रहेंगे, परन्तु जो लोग सत्य के आग्रही हैं उन्हें तथ्यों का अन्वेषण कर सत्य को समाज के सामने साहसपूर्वक रखना चाहिए। अंत में पोप फ्रांसिस के 23 जनवरी 2015 के ट्वीट को उद्धृत करना समीचीन होगा जिसमें कहा गया है कि, सेवा इवेंजलाइजेशन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।  -प्रशांत बाजपेई

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