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आशीष कुमार 'अंशु'
इन दिनों बीबीसी (द ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) के लिए बनाई गई लेस्ली उड्वीन की लघु फिल्म 'इंडियाज डॉटर' (भारत की बेटी) पर लगा प्रतिबंध एक ज्वलंत मुद्दा बनी हुई है। इस बीच दो घटनाएं और हुई हैं। नागालैण्ड के दीमापुर में केन्द्रीय कारागार को तोड़ कर महिलाओं के नेतृत्व ने बलात्कार के एक आरोपी को जेल से न सिर्फ बाहर निकाला बल्कि उसकी हत्या कर दी। दीमापुर से मिल रही जानकारी के अनुसार भीड़ लगभग तीन से चार हजार लोगों की थी। दूसरी घटना दिल्ली की है जहां चर्चित उबर कैब बलात्कार कांड की पीडि़ता ने बयान दिया है कि 'बलात्कार की घटना को याद करते हुए कभी-कभी लगता है कि मैं अपना मानसिक संतुलन खो दंूंगी।' कानूनी प्रक्रिया में उस घटना को कई बार याद करना पड़ता है। ऐसे में न्याय की देरी, घटना में महिला की स्थिति और लोगों के अंदर देरी से मिलने वाले न्याय के प्रति गुस्सा। यह सब इन तीन अलग-अलग घटनाओं में नजर आता है।
बात करते हैं, बीबीसी की लघु फिल्म की। किसी फिल्म पर लगने वाले प्रतिबंध का अर्थ भारत जैसे देश में इसलिए समझना मुश्किल है क्योंकि एक बड़ा वर्ग मानता है कि प्रतिबंध के माध्यम से किसी लघु फिल्म को लोगों तक पहंुचने से नहीं रोका जा सकता। यू ट्यूब पर ऐसी लघु फिल्म की डाउनलोड की संख्या आम लघु फिल्म की तुलना कई-कई गुणा अधिक होती है। प्रतिबंध के बाद इसे टुकड़ोें में बांटकर वाट्सएप पर फैलाया जाता है। ईमेल के जरिए भेजा जाता है। यह सब 'भारत की बेटी' के साथ हुआ है। इस तरह की लघु फिल्म को वे लोग भी जिज्ञासावश देखना चाहते हैं, जिनकी इस तरह की चीजों में रुचि नहीं है। इस विस्तारवादी माहौल में किसी इस पर प्रतिबंध का अर्थ, उसका अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना ही है।
यह लघु फिल्म उन लोगों को संबोधित करती हुई प्रतीत होती है, जो लोग अपनी सोच से स्त्री विरोधी हैं और जो स्त्री विरोध में कही गई बातों को सुनना पसंद करते हैं। साथ ही यह साबित करने की कोशिश करती है कि भारत में लोग स्त्रियों को लेकर एक बलात्कारी की ही तरत सोचते हैं। यदि इस फिल्म निर्माता की यही सोच सही होती तो निर्भया के पक्ष में लाखों की संख्या में लोग सड़क पर न उतरते। सड़क पर उतरने वालों में युवतियों से अधिक संख्या युवकों की ही थी।
फिल्म के संबंध में जो जानकारी मीडिया में आई है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि यह फिल्म स्त्रियों के बीच एक खौफ का माहौल बनाना चाहती थी। यह फिल्म उन्हें यह सबक सिखाना चाहती थी कि एक महिला को अधिक रात तक घर से बाहर नहीं रहना चाहिए। उन्हें लड़कों के साथ दोस्ती नहीं करनी चाहिए। यदि वे किसी लड़के से दोस्ती करती हैं और उसके बाद कोई दुर्घटना होती है तो समाज उसे ही गलत ठहराएगा। चाहे लड़की की गलती न हो। इस लघु फिल्म में निर्भया के पक्ष में खड़े लोगों को कम जगह दी गई है और जो निर्भया के खिलाफ अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं, उन्हें अधिक से अधिक जगह मुहैया कराई गई है। इसकी वजह क्या रही होगी, इसे समझा जा सकता है। बीबीसी इस फिल्म के माध्यम से पूरी दुनिया में भारत की कौन सी छवि लेकर जाना चाहता है?
बीबीसी की पहचान पूरी दुनिया में एक विश्वसनीय पत्रकारिता संस्थान के तौर पर रही है। अपनी ही फिल्म 'भारत की बेटी' (इंडियाज डॉटर) में बीबीसी अपने ही तय किए गए मानकों को दरकिनार करती हुई नजर आती है। फिल्म बीबीसी के अपने ही स्थापित किए हुए मूल्यों के खिलाफ जाती है। क्या बीबीसी को इस बात की भी परवाह नहीं है?
इस फिल्म में बलात्कार को ग्राफिक के जरिए समझाया जाता है। जबकि बीबीसी अपने नियमों में इस तरह की घटना में ग्राफिक की इजाजत नहीं देता। बीबीसी खून दिखाए जाने की इजाजत भी नहीं देता, लेकिन अपनी लघु फिल्म में ग्राफिक के जरिए वह सड़क पर पड़ा खून भी दिखाती है, जो दुर्घटना के बाद सड़क पर पड़ा था। फिल्म दिवंगत बलात्कार पीडि़ता के नाम का खुलासा भी कर देती है। यह समझना मुश्किल है कि इस तरह नाम के खुलासे के पीछे बीबीसी की कौन सी समाज कल्याण की भावना छुपी हुई थी? इस डाक्यूमेन्ट्री के आने के बाद भारतीय समाज का विश्वास बीबीसी पर कम हुआ है।
एक अखबार के माध्यम से यह जानकारी सामने आई कि इस लघु फिल्म के लिए 16 दिसम्बर 2012 की रात निर्भया के बलात्कार के दोषी मुकेश सिंह ने दो लाख रुपए की मांग की थी। अखबार के अनुसार बीबीसी की फिल्म निर्माता लेस्ली ने गृह मंत्रालय और तिहाड़ जेल प्रशासन से इजाजत लेने की कई बार कोशिश की लेकिन उसे सफलता मिली खुल्लर नाम के एक व्यक्ति की मदद से। लेस्ली ने मुकेश को चालीस हजार रुपए देकर लघु फिल्म के लिए राजी किया। पैसों के इस लेन-देन की कहानी सामने आने के बाद संदेह होता है कि भारत की बेटी के नाम से बीबीसी के लिए तैयार की गई लेस्ली उड्वीन की डॉक्यूमेन्ट्री की पूरी पटकथा तो नहीं है? जिसे फिल्माया बाद में गया हो और उसकी पटकथा लंदन में बैठकर ही लिख ली गई हो, वर्ना इस लघु फिल्म को देखकर कौन कह सकता है कि इसे बनाने में दो साल का वक्त लगा होगा? मुकेश का पूरा बयान कहीं पटकथा के संवाद अदायगी तक सीमित तो नहीं था? बीबीसी के कुछ अनाधिकृत प्रवक्ताओं के अनुसार- बीबीसी की परंपरा है कि वह अपनी लघु फिल्म के लिए जिन लोगों से बात करती है, उन्हें पैसे भी देती है। वैसे बीबीसी की परंपरा यह भी है कि जेल के अंदर जाकर किसी बलात्कारी का साक्षात्कार नहीं लेती। खैर, जब परंपरा की बात हो रही है तो उसे बताना चाहिए कि उसने जब बलात्कारी मुकेश सिंह को 40 हजार रुपए दिए हैं फिर लघु फिल्म में शामिल लीला सेठ, संदीप गोविल, राज कुमार, डॉ. रश्मि आहूजा, प्रमोद कुशवाहा, प्रतिमा सिंह, कविता कृष्णन, गोपाल सुब्रह्मण्यन, आमोद कंठ, डॉ. संदीप गोविल और निर्भया के माता-पिता को कितने-कितने पैसे दिए?
लघु फिल्म का नाम रखा गया है भारत की बेटी (इंडियाज डॉटर)। इसके लिए जो चेहरा इस्तेमाल किया गया, वह बलात्कारी का चेहरा है। जिसे भारतीय न्यायालय सजा सुना चुका है। इस फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए जो बयान मीडिया में जारी हुआ, वह निर्भया के माता-पिता का बयान नहीं था, बल्कि एक बलात्कारी का बयान था। फिल्म का नाम भारत की बेटी और फिल्म का प्रचार बलात्कारी के चेहरे के साथ, यह संस्था की मानसिकता को स्पष्ट करता है।
लघु फिल्म को 8 मार्च को महिला दिवस के अवसर पर रिलीज किया जाना था। भारत सरकार द्वारा फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिए जाने के बाद उसे अचानक तीन दिन पहले प्रसारित करके बीबीसी पूरी दुनिया में क्या संदेश देना चाहती है? कायदे से भारतीय न्यायालय में आना चाहिए था और अपनी बात कहनी चाहिए थी। भारतीय न्यायालय से इजाजत मिलने के बाद चाहे तो वह फिल्म को पूरी दुनिया में एक साथ जारी करती है लेकिन बीबीसी ने ऐसा नहीं किया।
स्टीव हॉलेट की बीबीसी के लिए बनाई गई फिल्म रि-इन्वेटिंग द रॉयल्स दो हिस्सों में इसी वर्ष प्रसारित होने वाली थी। फिल्म प्रिंस चार्ल्स पर बनी थी लेकिन रॉयल परिवार के वकीलों की दखलन्दाजी के बाद फिल्म को रोक देना पड़ा। पाठकों की जानकारी के लिए बीबीसी के वकीलों की टीम ने, संपादकीय नीति बनाने वाले बुद्घिजीवियों ने और बीबीसी प्रबंधन से जुड़े उच्च स्तरीय समूह ने भी इस फिल्म को हरी झंडी दिखा दी थी। बाद में बीबीसी को चार्ल्स और उनकी पत्नी की तरफ से एक आपत्ति दर्ज करता हुआ पत्र प्राप्त हुआ और सारी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रपंच धरा का धरा रह गया।
बिल्कुल अंतिम समय में डॉक्यूमेन्ट्री को प्रसारित न किए जाने का निर्णय बीबीसी के समसामयिक घटनाओं और खबरो कें प्रमुख जेम्स हार्डिंग की तरफ से आया।
बीबीसी को एक बार आरडीएफ मीडिया द्वारा उपलब्ध कराए गए फूटेज के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। वह घटना 'क्राउनगेट स्कैन्डल' के नाम से चर्चित हुई थी। 'इयर विद द क्वीन' की शूटिंग के दौरान ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत को रिकॉर्ड करके प्रेस प्रिव्यू में दिखाने का आरोप बीबीसी पर लगा था। बाद में बीबीसी ने अपनी फूटेज के लिए रानी से माफी भी मांगी। यह घटना जुलाई 2007 की है।
बीबीसी ने अपने कर्मचारी जिमी सविले पर लगे यौन हिंसा के आरोप पर तैयार हो रही खोजी रपट पर आधारित कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर दिया है। एक रपट के अनुसार अक्तूबर 2012 तक बीबीसी के 20 कर्मचरियों पर 36 यौन शोषण के आरोप लग चुके हैं। जिनमें यह बताना कठिन है कि आरोप लगाने वाले 18 साल से कम के कितने पीडि़त हैं। लेस्ली उडवीन को एक बार जरूर बीबीसी के कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे यौन अपराधों पर एक फिल्म बनानी चाहिए?
संभव है वे ऐसा नहीं करेंगी। इसकी एक वजह जो इन पंक्तियों के लेखक को समझ आई, वह है फोर्ड फाउंडेशन। उडविन की यह फिल्म ट्रीबेको फिल्म इंस्टीट्यूट के बैनर के नीचे बीबीसी के लिए बनी है। ट्रीबेको फिल्म इंस्टीट्यूट को कोई और नहीं बल्कि फोर्ड फाउंडेशन अपने चंदे से चला रहा है। हम भारत के लोग किसी मामले को समझने के लिए भावुकता से काम लेते हैं और भूल जाते हैं कि भारत पश्चिम से कभी स्लम डॉग मिलियनेयर और कभी भारत की उस बेटी की तरह क्यों नजर आता है, जिसमें बेटी का पक्ष ही पूरी तरह गायब है।
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