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कुछ दिनों पहले हिन्दी के एक अत्यंत प्रतिष्ठित समाचार पत्र में भारत की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों के संदर्भ में एक संपादकीय प्रकाशित हुआ। देश के राजनैतिक दलों पर चर्चा करते हुए उपरोक्त आलेख राजनैतिक दलों के लिए येन-केन-प्रकारेण चंदा एकत्रित करने और चंदा देने वालों को लाभान्वित करने पर पहुंचा। इस स्थान पर लेखक ने चंदा देने वालों के लिए 'राजनैतिक दलों के भामाशाह', इस प्रकार का संबोधन दिया। जिम्मेदारों द्वारा इस प्रकार की अभिव्यक्ति सोचने पर विवश करती है। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्घ में असफल होने के पश्चात पुन: अपनी सेना को संगठित करने में लगे थे। उस समय भामाशाह ने अकबर जैसे शक्तिशाली विरोधी की परवाह न करते हुए अपनी संपदा स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दी थी। इस समर्पण की तुलना राजनैतिक चंदे से करना क्या समाज के रूप में हमारा वैचारिक पतन नहीं है? हो सकता है कि लेखक ने असावधानीवश ऐसा लिख दिया हो, परंतु क्या राष्ट्रीय प्रतीकों, प्रतिमानों पर सावधानीपूर्वक विचार और संतुलित अभिव्यक्ति आवश्यक नहीं है?
ये कोई अपवादस्वरूप घटना नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात् राष्ट्रीयता को अपरिभाषित रखने और अपनी सांस्कृतिक पहचान को धुंधला करने, झुठलाने के प्रयासों के कारण वैचारिक भ्रम की एक स्थिति निर्मित हो गई है। मानसिक दासता के प्रतीक हमारी दैनिक बोलचाल की भाषा और अभिव्यक्तियों पर कई बार हावी दिखते हैं। तभी हम लोककल्याण के लिए प्रतिपल समर्पित देवर्षि नारद का मजाक बनाते हैं। चुगली करने वाले अथवा वाचाल व्यक्ति को नारद की संज्ञा दिया जाना आम बात है। कृष्ण की रासलीला के गहन अथार्ें को उपेक्षित करते हुए उसे 'डेटिंग' के स्तर पर उतार लाना क्या हमारे मानसिक दिवालिएपन का प्रमाण नहीं है? हिन्दी फिल्मों में 'तुम करो तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला' जैसे संवाद सुने जा सकते हैं। द्रौपदी पर कटाक्षपूर्ण व्यंग्य चलन में हैं। लाखों निदार्ेष स्त्री-बच्चों का रक्त बहाने वाला, भारत पर आक्रमण करने वाला लुटेरा सिकंदर महानता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी क्रम में हम एक कहावत कहते हैं- जो जीता वही सिकंदर। सिंधु के तट पर सिकंदर जीता था या नहीं, यह भी ऐतिहासिक विवेचना का विषय है। परंतु क्या भारत ने केवल जीतने वाले को सम्मान दिया है? अगर ऐसा होता तो दधीचि, जटायु और पद्मिनी आदरणीय न होते। मंसूर और दाराशिकोह का नाम सम्मान से न लिया जाता। घर का भेदी लंका ढ़ाए, एक ऐसी कहावत है जो बचपन से मुझे कचोटती रही है। नारी के सम्मान के लिए स्वजनों का मोह, लंका का सारा ऐश्वर्य त्यागने वाले और रावण जैसे शक्तिशाली सम्राट को अपना शत्रु बना लेने वाले महात्मा विभीषण को भेदिया और गद्दार के रुप में चित्रित करने वाली ये कहावत हम किस प्रकार उपयोग किए चले जाते हैं। ग्रामीण जीवन शैली के प्रति हिकारत से उपजा शब्द गंवार, जिसका सीधा शाब्दिक अर्थ है, गांव का, कब हमारे मुंह से निकल जाता है, हमें पता भी नहीं चलता। इसी प्रकार से स्थानीय उत्पाद को 'देसी माल' कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है।
भाषा अपने आप में एक इतिहास भी होती है। पुरानी कहावत है- 'हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या।' कहावत का आशय है कि जिस प्रकार हाथ में पहने कंगन को देखने के लिए दर्पण की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार जो पढ़ा लिखा है उसे फारसी आती ही होगी। इस कहावत से पता चलता है कि अंग्रेज शासन में मैकाले की शिक्षा प्रणाली लागू होने के बाद, और फिर स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा को लेकर जिस प्रकार की अंधी दौड़ शुरू हुई, मुगल काल में ऐसी ही दौड़ फारसी के लिए लगी होगी। अंग्रेजों को भारत में अपना शासन चलाने के लिए हम पर अंग्रेजी थोपना अनिवार्य था, परंतु स्वतंत्र भारत में इसकी अनिवार्यता हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान और सहज बोध पर सवाल खड़े करती है। बच्चों को विदेशी भाषा में शिक्षा देने की नासमझी करने वाले दुनिया के चंद देशों में हम भी हैं। 'हिंगलिश' मध्यम वर्गीय बोलचाल में योग्यता का पैमाना बनी हुई है। अखबार में शहर की छुट-पुट गतिविधियों, विद्यालय-महाविद्यालय किशोरों से जुड़े समाचारों की भाषा हिन्दी की दुर्दशा की कहानी कहती है। समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक आप भी पढ़ते होंगे – टीनएजर्स को भा रहे हैं नए लुक के कपड़े, न्यू ईयर सेलिब्रेशन के लिए जुटे छात्र, गर्ल्स ने बनाई रंगोली, ब्वॉयज़ की पहली पसंद है बाइक, आदि। जबरदस्ती ठूंसे गए ये शब्द हमारी भाषा की विविधता को नष्ट कर रहे हैं, और हमारी अभिव्यक्ति की क्षमता को कमजोर कर रहे हैं। चाचा, मामा, मौसी, बुआ, दादा-दादी जैसे संबोधन अंकल-आंटी हो कर रह गए हैं। चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई -बहन कजि़न शब्द में सिमटकर रह गए हैं। लंच, ब्रंच और डिनर के दौर में स्वाद तो विकसित हो रहे हैं पर संतोष खोता जा रहा है।
जहां एक ओर दैनिक बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों को आग्रहपूर्वक उपयोग किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अपनी आंचलिक बोलियों के प्रभावी और समर्थ शब्दों की उपेक्षा की जा रही है। इससे भाषा दरिद्र हो रही है। हीट-हॉट या गर्म से ज्यादा विविधतापूर्ण अभिव्यक्तियां हमारे आस-पास हैं। सूरज की तपन, अग्नि की आंच, गर्मी की उमस, दोपहर की उष्णता, जाड़े के सूरज का गुनगुनापन, इन सब को खोकर हमारी भाषा कितनी दीनहीन हो जाएगी। झरना कल-कल करके बहता है, पक्षी कलरव करते हैं, ऐसी आवाज जो कंपन पैदा कर दे उसे धमक कहते हैं। ये अभिव्यक्तियां भाषा का सौंदर्य भी हैं, और उसकी शक्ति भी। दूसरी तरफ प्रश्न किया जाता है कि मोबाइल, लैपटॉप, ट्रेन, ट्यूब लाइट, पैनड्राइव, सी़डी़-डी़वी़डी़, फ्रिज आदि के वैकल्पिक नाम क्या हैं? प्रतिप्रश्न ये है कि इनके हिन्दी विकल्पों की आवश्यकता क्या है? वस्तुओं अथवा उपयोगी सेवाओं के चलन में चल रहे नाम भाषा के सतत् प्रवाह का हिस्सा हैं। ये किसी भी प्रकार से हमारी भाषायी अभिव्यक्ति को बाधित नहीं करते । हमारी भाषा उन्हें अपना चुकी है। आवश्यकता अपनी भाषा और आंचलिक शब्दों को नि:संकोच प्रयोग करने की है। कई बार हम इसलिए हिचक जाते हैं कि लोग समझेंगे नहीं। समाधान इतना सा ही है कि आप बोलना शुरू करिए, लोग धीरे-धीरे समझने लगेंगे। शुरुआत करने की देर है।
एक बात गालियों के संबंध में। विश्व की हर भाषा में गालियाँ पाई जाती हैं। हंसी-मजाक से लेकर क्रोध की अभिव्यक्ति तक उनका उपयोग होता है। हमारी बोलचाल पर भी इसका प्रभाव है। संस्कृत साहित्य में भी मूर्ख, दुष्ट, शठ, पापी, नराधम जैसे संबोधनों का प्रयोग मिलता है। परंतु उपरोक्त शब्द लक्षित व्यक्ति के कमार्ें और चरित्र की विवेचना तक सीमित है। आज मर्यादा टूट चुकी है। शायद हमारा ध्यान न गया हो, लेकिन आपसी झगड़ों में स्त्री जाति को संबोधित कर कहे जाने वाले अपशब्द भारतीय बोली और परंपरा का हिस्सा नहीं रहे, क्योंकि भारतीय समाज यौन-कुंठित समाज नहीं रहा है। अरुचिकर लगे तो भी एक बार इन शब्दों की बनावट पर गौर कीजिए, आपको ध्यान आ जाएगा कि इनकी उत्पत्ति का मूल विदेशी भाषा में है। भाषा का ये इतिहास हमें अपने जीवन मूल्यों और अपने बोलचाल पर पुनर्विचार करने को बाध्य करता है। इक्कीसवीं सदी का भारत, विश्व का सबसे प्राचीन और सबसे युवा राष्ट्र, नई ऊंचाइयां छूने को बेचैन है। अंतरिक्ष को जाती इस उड़ान को अपनी भाषा का गौरव नया वेग प्रदान करेगा। गांवों और अंचलों को ताकत देगा, लोकतंत्र को शक्ति देगा, और विज्ञान को कल्पना के पंख लगाएगा। आवश्यकता है कि हम दासता के चिन्हों को अपने मन, अपने व्यवहार, अपने तंत्र और अपनी भाषा से झाड़कर फेंक दें।– प्रशांत बाजपेई (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
विदेश में हिन्दी स्वदेश में अंग्रेजी
पढ़ा था हमने यहां के अपने समाचार पत्रों में
अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश
हिन्दी सीख रहे हैं।
प्रसन्नता हुई, मन में गर्व हुआ
अपनी भाषा पर
वे हिन्दी की सरलता, बोधगम्यता व व्यापकता देख रहे हैं।।
यूरोप के विश्वविद्यालयों में
हिन्दी विभाग खोल हिन्दी पढ़ायी
जाती है।
भारत को अच्छी तरह जानने
समझने की।
छात्रों में जिज्ञासा जगायी जाती है।।
हिन्दी भाषा में अधिकार रखने वाले
पश्चिम में हुए हैं अनेकों विद्वान
उलनर, हूपर, टी.जे, स्कॉट, हेनरी फोरमैन,
टी. विलियम हैं प्रसिद्ध नाम।
रूसी विद्वान वरान्निकोव,
इटली का तैैत्सितोरी,
बेल्जियम का का डा, कामिल बुल्के ये सब हिन्दी के बड़े भक्त थे
इनने रामायण का अनुवाद किया शोध करने में रहते अनुरक्त थे।।
भारत का समाज रहन-सहन,
खान-पान, रूप रंग,
बोलचाल सब में विविधता है।
फिर भी कुछ बात है- सारे समाज में
बड़ी एकता है।
यहां की ऋतुएं, ऋतु अनुसार त्योहार,
व अनुष्ठान।
सब भेदभाव मिटाते, बना देते सबको
एक समान।।
यहां की नदियां, पर्वत, पशु-पक्षी,
पेड़-पौधे, मन्दिर व मेले।
यहां के संत-महात्मा, साधू-पंडित, परिव्राजक, गुरु व चेले।।
नीम, पीपल, औदुम्बर, वटवृक्ष हैं
महान वरदानी।
तप कर इनकी छाया में हो गए अनेक
संत, आचार्य व ज्ञानी।।
हर आंगन की तुलसी का पौधा कितनी
बाधाएं हरता है।
छोटे-मोटे रोगों का उपचार भी ये
करता है।।
दुनिया का अतुलनीय अपरिमेय आयोजन है यहां का महाकुंभ मेला।
विश्व मानव समुदाय के मिलन का है, यह अति प्राचीन अनुपम रेला।
देशी-विदेशी, जाति सम्प्रदाय व पंथ का यहां दिखता नहीं कोई भेद।
यह विराट मेला देता है सारे जग के
मानव को विश्व बंधुत्व का संदेश।
होता है भारत में अपरिचित के साथ भी
मित्रवत व्यवहार।
दुनिया हो जाती आत्म विभोर देखकर
यहां का आतिथ्य सत्कार।
यहां के ग्रंथ धार्मिक नहीं, ज्ञान के
भण्डार हैं।
कोई प्रतिबंध नहीं पढ़ने व मिलने के
खुले बाजार हैं।।
हमारे ग्रंथ वेद पुराण उपनिषद रामायण
व गीता।
महाभारत, भागवत भी है, अवतार हैं, राधाकृष्ण राम व सीता।
इन सबके प्रति मन में पूज्य भाव,
श्रद्धा व भक्ति।
यही देते हैं समाज के जन-जन को
अनुपम शक्ति।।
यही सब देखकर दुनिया चकित है।
भारत को निकट से जानने को
व्यथि है।।
इसीलिए वे सीख रहे हैं हिन्दी भाषा।
भारतीय संस्कृति' देगी 'शान्ति ' है
उनकी यह आस्था।।
– रामदास गुप्त
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