इतिहास के झरोखे से - एक नवाब की क्रूरता ने भून दिये थे आजादी के ग्यारह दीवाने
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इतिहास के झरोखे से – एक नवाब की क्रूरता ने भून दिये थे आजादी के ग्यारह दीवाने

by
Sep 13, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Sep 2014 14:11:32

उन्मुक्त आकाश में आजादी से उड़ने और चलने की भारी कीमत स्वतंत्रता के पुजारियों को चुकानी पड़ती है। पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को देश आजाद होने के बाद भी एक देशी रियासत की प्रजा को आजाद भारत में सांस लेना मयस्सर नहीं हुआ, बल्कि उन्हें घोर क्रूरता तथा वास्तविकता का शिकार होना पड़ा था। आजादी की मांग कर रहे देशभक्तों को सामूहिक रूप से गोलियों से भूनने का जो नृशंस उदाहरण डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में प्रस्तुत किया था वह क्रूर शासकों की निर्ममता का घिनौना उदाहरण है। ठीक वैसा ही एक उदाहरण जालौन जिले में घटित हुआ। यहां बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बावनी राज्य में ग्राम हरचन्दपुर में, नवाबी राज्य में त्रस्त जनता को, मुक्ति दिलाने के लिये ग्यारह देश भक्तों को अपना बलिदान करना पड़ा था। उनका बलिदान सार्थक हुआ, उसके कुछ ही दिनों बाद जनता नवाबी-कुशासन से स्वतंत्र हुई और लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि अधर्म, अनीति के कारण एक वैभवयुक्त शासन की गरिमा मिट्टी में मिल गई।
बावनी राज्य की स्थापना हैदराबाद के निजाम तथा दिल्ली के बादशाह के मंत्री गाजीउद्दीन खां ने सत्रह सौ चौरासी ई. में की थी। वे नवाब गाजी खां फीरोज जंग कहलाये। इस नये राज्य को पूना के पेशवा द्वारा सनद दी गयीं जिसे ब्रिटिश शासन ने मान्यता प्रदान की। कदौरा इसका मुख्यालय बनाया गया। बावन ग्रामों का समूह होने के कारण यह 'बावनी' कहलाया। इसके अंतिम तथा पांचवंे नवाब मुहम्मद मुश्ताक उल हसन खां थे। नवाब को सभी दीवानी एवं फौजदारी अधिकार प्राप्त थे। ग्यारह तोपों की सलामी तथा वाइसराय से वापसी मुलाकात का अधिकार इन्हें प्राप्त था। इस वैभवपूर्ण साम्राज्य के अन्तिम शासक की प्रथम पत्नी की असामयिक मृत्यु के बाद उसी परिवार की एक अन्य युवती शौकतजहां उनकी दूसरी बेगम बन गई। वे संगीत प्रेमी थीं। अपने मैके के ही एक गायक बुन्दू कब्बाल को वे अपने साथ लाई थीं। वह नवाब साहब के महल ''शौकत मंजिल'' में बेगम साहिबा का सबसे विश्वस्त व्यक्ति था।
नवाब साहब, खुदापरस्त संत व्यक्ति थे। बेगम शौकतजहां ने धीरे-धीरे राज्य का संचालन सूत्र अपने हाथ में ले लिया। बड़ी बेरहमी से उसने जनता का शोषण प्रारम्भ कर दिया। उसकी आराम-तलबी तथा संगीतमय वातावरण में बाधा न पडे़, इसलिए मन्दिरों में शंख, घंटा, घडि़याल का बजाना अवैध तथा अपराध घोषित कर दिया गया। तिरंगा पैरों तले रौंदा जाने लगा। तिरंगा फहराने, भाषण देने, नारे लगाने तथा जुलूस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। बेगार प्रथा चरमोत्कर्ष पर पहंुच गई। इसके विरोध हेतु बावनी प्रजामंडल का गठन पं. विश्वनाथ व्यास के नेतृत्व में किया गया। गांधीवाद के वातावरण में, बेगार से त्रस्त जनता की मुक्ति के लिए, उन्नीस सौ छियालीस में जन जागरण प्रारम्भ हुआ। नवाबी हुकूमत के विरुद्घ आवाज उठाने के विरोध में दीवान ख्वाजा फीरोजुद्दीन की अनुशंसा पर नवाब साहब ने पांच अगस्त उन्नीस सौ छियालीस को पं. विश्वनाथ व्यास, उनके पुत्र रमाशंकर व्यास तथा जगन्नाथ सिंह (कानाखेड़ा) को रियासत से निष्कासन के आदेश दे दिए।
इस बीच चार अप्रैल उन्नीस सौ सैंतालीस को ग्वालियर में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद सम्मेलन हुआ। इसमें पं. जवाहर लाल नेहरू, डा. पट्टाभि सीतारमैया आदि आए और देशी राज्यों से अपील की कि वे जनता को उत्तरदायित्वपूर्ण शासन सौंप दें। विन्ध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री लालाराम बाजपेयी तथा जिले के प्रमुख कांग्रेसी नेताओं द्वारा दो दिन की वार्ता के बाद बंदी नेताओं को रिहा किया गया। भाषण देने और जुलूस निकालने पर सहमति हो गई।
रियासत के अधिकारियों द्वारा दमनात्मक कार्यवाही का चरमोत्कर्ष पच्चीस सितम्बर उन्नीस सौ सैंतालीस को देखने को मिला। उस समय तक देश आजाद हो चुका था। मगर बावनी राज्य की जनता नवाब की पराधीन प्रजा था। जनता ने ग्राम हरचन्दपुर में तिरंगे झंडे तथा बैनर लिए राष्ट्रगान गाते जा रहे देशभक्तों को गांव के एक चौराहे में पुलिस ने रोक लिया। वह मैदान चारों ओर मकानों से घिरा था। जलियांवाला बाग की तरह एक चौक जैसा मैदान था, कहीं भागने की गुंजाइश नहीं थी। कोतवाल अहमद हसैन ने हुक्म पढ़कर सुनाया कि जुलूस वापस लौट जाए। कोतवाल अहमद हुसैन ने अपने 24 सिपाहियों ंके साथ आन्दोलनकारियों को भाग जाने केा कहा, किन्तु कोई टस से मस नहीं हुआ। इसी बीच आन्दोलनकारी बावू सिंह ने दरोगा को पटककर उसकी सर्विस रिवाल्वर छीनने की असफल कोशिश की। इस पर पुलिस और अधिक आक्रामक हो गई। इक्के दुक्के सिपाहियों को छोड़कर शेष सब मुसलमान थे। पुलिस नें अंधाधुध फायरिंग प्रारंभ कर दी। घटनास्थल पर ग्यारह व्यक्ति मारे गए तथा छब्बीस व्यक्ति घायल हुए। इसमें हरचन्दपुर के ठकुरी सिंह को छोड़कर शेष सब नौजवान थे। उनके नाम हैं- लल्लू सिंह (ग्राम बागी), कलिया पाल (ग्राम सिजहरा), बलवान सिंह (उदनपुर), मुन्ना भुर्जी (उदनपुर), उजागर सविता (जखेला), दीनदयाल पाल (सिजहरा), बलवान सिंह (हरचन्दपुर), बावूराम शिवहरे (जखेला), दीनदयाल पाल (सिजहरा), बलवान सिंह (हरचन्दपुर), बावूराम शिवहरे (हरचन्दपुर) तथा श्रीराम यादव (बड़ागांव)। अगले ही दिन छब्बीस सितम्बर उन्नीस सौ सैंतालीस को जिले के प्रमुख काग्रेसी नेता पं.चतुर्भुज शर्मा, पं. बालमुकुन्द शास्त्री, रामदयाल पांचाल, राधारमन आदि ने मौके पर जाकर जांच की । घटना स्थल सुनसान था। 20-25 स्थानों पर खून पड़ा था। दीवालों तथा खिड़कियों पर गोलियों के छर्रे के निशान स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। लोगों ने खाना पीना छोड़ दिया था। चूल्हे नहीं जले थे। चक्कियंा नहीं चली थीं। इन नेताओं के समझाने पर गांव वालों ने भोजन ग्रहण किया। अनेक लोग गांव से पलायन कर गए। बेगार प्रथा तथा शहीद काण्ड की विस्तृत रिपोर्ट कोंच से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक वीरेन्द्र (सम्पादक श्री गयाप्रसाद गुप्त 'रसाल') ने निर्भीकता से प्रकाशित की। उक्त कांड की निष्पक्ष जांच के लिये एक शिष्टमण्डल पं. परमानन्द के नेतृत्व में केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल से मिला। हमीरपुर के कलैक्टर उमराव सिंह को पटेल साहब ने जांच अधिकारी नियुक्त करके, जांच प्रारंभ करा दी। कदौरा में पन्द्रह दिन कैम्प करके जांच की गई।
इधर जांच की रिपोर्ट आने पर नवाब तथा प्रजामंडल में समझौता हो गया। नवाब ने लोकप्रिय मंत्रिमण्डल का गठन स्वीकार कर लिया। सात फरवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को दीवान का पद समाप्त करके लोकप्रिय मंत्रिमण्डल की स्थापना का फरमान जारी कर दिया गया। पं. विश्वनाथ व्यास को प्रधानमंत्री, मुनउअरउद्दीन को पापुलर मिनिस्टर तथा बशीर हुसैन को स्टेट का मनोनीत मंत्री बनाया गया। इसी दिन पांच अगस्त उन्नीस सौ छियालीस को जारी निष्कासन आदेश रद्द कर दिया गया।
नवाब की पूर्वानुमति के बिना मंत्रिमण्डल द्वारा लिये गए निर्णयों से नवाब और मंत्रिमंडल में मतभेद बढ़ गए। चार अप्रैल उन्नीस सौ अड़तालीस को मंत्रिमण्डल भंग कर दिया गया। प्रधानमंत्री के पेशकार सुल्तान अहमद खां को उनका विश्वस्त व्यक्ति होने के नाते, जेल में डाल दिया गए। प्रधानमंत्री विश्वनाथ व्यास रात्रि में ही भूमिगत हो गये। मुनवअरउद्दीन अहमद का निवास घेर लिया गया। घेरे के भीतर से ही, उन्होंने सभी जानकारी तार द्वारा विन्ध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री लालाराम बाजपेयी को दी। व्यास जी ने केन्द्र सरकार से सम्पर्क किया। अन्ततोगत्वा केन्द्र सरकार ने बावनी राज्य को विन्ध्य प्रदेश में सम्मिलित करने तथा प्रशासक की नियुक्ति का आदेश दिया।
चौबीस अप्रैल उन्नीस सौ अड़तालीस को प्रात: 10 बजे विन्ध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री लालाराम बाजपेयी स्टाफ सहित कदौरा आए। नवाब साहब का चार्ज उनसे लेकर स्टेट का कार्यवाहक प्रशासक पं. विश्वनाथ व्यास को तथा उप-प्रशासक मुनवअरउद्दीन को बनाया गया। नवाब साहब का प्रिवीवर्स 46850/- देना तय हुआ। उसके पश्चात 13 जून 1948 को इंशाउलहक को बावनी स्टेट का प्रभारी नियुक्त किया गया। अंत में 25 जनवरी 1950 को इसे उत्तर प्रदेश में मिला दिया गया।
इस बावनी आन्दोलन में बलिदानी देशभक्तों की विधवाओं परिवारजनों एवं बावनी राज्य के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ व्यास (अब स्वर्गीय) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह कार्यवाह श्री सुरेश राव केतकर ने स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती वर्ष में संस्कार भारती के सुप्रसिद्घ विचारक तथा समाजसेवी स्व. मोरोपन्त पिंगले ने 'बावनी बलिदान' पुस्तक का लोकार्पण किया था।
ऐतिहासिक समाचार पत्र
साप्ताहिक वीरेन्द्र आजादी के पूर्व बुन्देलखण्ड से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रो में सर्वाधिक प्रसारित था। यह दूरदराज इलाकों तक जाता था। इसका प्रकाशन 1936 ई. में कोंच (जालौन) से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गया प्रसाद गुप्त 'रसाल' ने किया था। इसके अतिरिक्त अनेक साप्ताहिक एवं मासिक पत्रों का सम्पादन प्रकाशन कर चुके थे। आजादी के पूर्व देश की साप्ताहिक मासिक पत्रिकाओं में चर्चित आनन्द, (मासिक संपादक-कैलाशनाथ ''प्रियदर्शी'') का प्रकाशन भी 'रसाल' जी ही करते थे। जिले के अनेक साहित्यक व्यक्तित्व 'वीरेन्द्र' के संपादक मण्डल से जुड़े हुऐ थे।
साप्ताहिक वीरेन्द्र का सबसे बड़ा योगदान 'बेगार प्रथा' तथा ''चौधराहट प्रथा'' को समाप्त करवाने, स्वतंत्रता आन्दोलन को ताकत देने तथा बावनी काण्ड को सर्वप्रथम निर्भीकतापूर्वक प्रकाशित करने का था। ब्रिटिश सरकार ने अनेक बार इस पत्र को प्रताडि़त किया किन्तु वह डिगा नहींं। इस पत्र का प्रकाशन अभी भी 'रसाल' जी के पुत्र लखनऊ से करते हैं। -अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'

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