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अरबी में 'इन्कलाब' का अर्थ होता है 'तख्तापलट' और उर्दू में 'इन्कलाब' का अर्थ होता है 'क्रांति'। इस्लामाबाद में इमरान खान और मौलाना ताहिर-उल-कादरी के समर्थक इन्कलाब के नारे लगा रहे हैं। नवाज शरीफ जानते हैंं कि मौलाना और खान, दोनों ही किसी प्रकार का इन्कलाब या क्रांति लाने में सक्षम नहीं हैं। उनकी तरफ से वे निश्िंचत हैं। वे वार्ता कर रहे हैं और वार्ता के लंबा खिंचने से उन्हें कोई गुरेज़ नहीं है। चिंतित वे दूसरी ओर से हैं। अगर इस इन्कलाब का अर्थ तख्तापलट हैं, तो ऐसा करने में समर्थ केवल रावलपिंडी में बैठे पाक फौज के आका हैं। नवाज़ चिंंतित हैं क्योंकि 'इस्लाम के इस किले' में अरबी भाषा से लगाव रखने वाले बहुत लोग हैं। ये 'अल्लाह और आर्मी' का मुल्क है। 'इन्कलाब' लाने के लिए 'आजादी मार्च' निकालने वाले दोनों नेताओं को जानना दिलचस्प रहेगा। इमरान खान पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेटर अपने समय के चर्चित प्लेब्वाय और आज लोकलुभावन राजनीति करने वाले एक राजनीतिज्ञ हैं, जिन्हे केवल उनकी अंतर्राष्ट्रीय पहचान के कारण आधुनिक माना जाता रहा। परंतु सियासत में उतरने के बाद लाहौर के इस पठान ने पाकिस्तानी राजनीति में चली आ रही इस्लामिक कट्टरपंथ की मुख्यधारा को बेहिचक अपनाया। सलमान रश्दी ने कई वषोंर् पूर्व कहा था ''समय आने पर आप देखेंगे कि ये आदमी (इमरान खान) मुल्लाओं से ज्यादा मुल्ला है।'' आज उनकी पार्टी समझौता न करने वाला एक उग्र दल है जिसका 61 वर्षीय नेता अपने युवा समर्थकार्ें जितना ही अधीर व्यक्ति है जो केंद्रीय सत्ता में आने के लिए साढे़ तीन साल प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं है। जिसमें सीधी राजनैतिक टक्कर में तीसरा नंबर बने रहने का डर भी दिखता है। 2013 के आम चुनावों में भी मुख्य मुकाबला पाकिस्तान मुस्लिम लीग और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बीच रहा। इमरान खान को पता है कि पाकिस्तान में परचम लहराने के लिए उन्हें नवाज शरीफ की पार्टी मुस्लिम लीग को पंजाब में पटकनी देनी होगी जहाँ से उसके 50 प्रतिशत नेशनल असेंबली सदस्य जीत कर आए हैं। इसीलिए खान ने अपना सारा ध्यान पंजाब पर केंद्रित कर दिया है।
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आज़ादी मार्च का दूसरा चेहरा मौलाना ताहिर उल कादरी बरेलवी तबके के मजहबी नेता हैं। वे दूसरे बरेलवियों से जरा हट कर हैं क्योंकि आम तौर पर बरेलवियों के व्यवस्थित राजनैतिक संगठन नहीं हैं। बरेलवियों का स्थानीय मजहबी नेतृत्व स्थानीय शक्ति केंद्रों के साथ जुड़कर सुरक्षित बने रहना पसंद करता है। परंतु ताहिर उल कादरी ऐसे बरेलवी हैं जिन्होंने जमात-ए-इस्लामी, सलाफियों और देवबंदियों की तर्ज पर अपना एक मजबूत तंत्र बनाया। उन्होंने अपने संगठन की खैराती, मज़हबी, शैक्षिक और राजनैतिक शाखाओं को अलग-अलग विकसित किया। पाकिस्तान के मज़हबी नेताओं के लिए ये दुर्लभ गुण हैं। साथ ही कनाडा में रहने वाले 63 वर्षीय कादरी जहाँ एक ओर पाकिस्तान के इस्लामी चैनल क्यू टीवी पर कुरान और हदीस की व्याख्या करते हुए उर्दू और अरबी पर अपनी पकड़ प्रदर्शित करते हैं वहीं यूरोपीय श्रोताओं के बीच अंगे्रजी में इस्लाम की उदारतापूर्ण व्याख्या करते हुए भी दिखते है। इस कारण शहरी पाकिस्तानियों का एक वर्ग उन्हें पसंद करता है। सफेद रेशमी कपड़ों में चमकने वाले ताहिर उल कादरी का दूसरा पहलू भी है। वे स्थान देखकर रूप बदलने में माहिर हैं। यूरोपीय श्रोताओं के बीच में जब उनसे पाकिस्तान के बदनाम रिसालत-ए-रसूल (ईशनिंदा) कानून के बारे में सवाल किया जाता है तो वे कहते हैं कि इस कानून में कुछ खामियां हैं जिनका वे विरोध करते हैं। जैसे कि रिसालत-ए-रसूल कानून केवल मुसलमानों पर लागू होना चाहिए, गैर मुसलमानों पर नहीं। यही ताहिर उल कादरी क्यू टीवी पर अपने श्रोताओं को छाती ठांेक कर बताते हैं कि 'वह मैं ही था जिसने जि़या उल हक पर रिसालत-ए-रसूल कानून बनाने का दबाव बनाया था। मैंने ही ये तय करवाया था कि रिसालत-ए-रसूल का ये कानून केवल मुसलमानों पर ही नहीं हिंदुओं, मसीहियों और दूसरे सभी मज़हब के लोगों पर भी, यानी के हर पाकिस्तानी पर लागू होना चाहिए।'' 90 के दशक में कादरी का एक वीडियो सामने आया था जिसमें वे अपने सुबक रहे श्रोताओं को रो-रोकर बता रहे थे कि पैगंबर ने सपने में आकर उनसे पाकिस्तान के रहनुमाओं की शिकायत की और कहा कि वे पाकिस्तान छोड़कर जा रहे हैं। इस वीडियों में कादरी आगे बताते हैं कि कैसे उनके द्वारा मिन्नतें करने पर पैगंबर पाकिस्तान में रुकने को राजी हुए वह भी केवल इस शर्त पर कि वह सदा कादरी के साथ ही रहेंगे। इस नाटकीय वीडियो में कादरी के अभिनय का स्तर पाकिस्तानी फिल्मों जैसा ही है।
वे भीड़ जुटाने में माहिर हैं पर उस भीड़ को वोटों में नहीं बदल पाते। इमरान और कादरी, दोनों के पाकिस्तान के फौजी संस्थान से निकट संबंध रहे हैं। मुशर्रफ की तानाशाही के दौर में जब टैक्नोक्रेट सरकार लाए जाने की अटकलें लग रही थीं तब दोनों ही सत्ता सुख की उम्मीद लगाए बैठे थे। आशाएँ फलीभूत नहीं हुई। आज इमरान खान की एक सूबे में सरकार है और सोशल मीडिया में उनका बोलबाला है। कादरी की जिन्दगी भी मजे से चल रही है। वे हाई प्रोफाइल मौलाना हैं। उनके मार्च में आए कार्यकर्ताओं को आँसू गैस के गोलों, लाठी चार्ज और भगदड़ से निपटने का विशेष प्रशिक्षण दिया गया है।
2013 का वर्ष पाकिस्तान का ऐतिहासिक साल है। पहली बार जनता की किसी चुनी हुई सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। आम चुनाव हुए और दूसरी सरकार चुन कर आई। पाकिस्तान मुस्लिम लीग की भारी बहुमत से सरकार बनी। इमरान खान की पार्टी बड़े अंतर से तीसरे क्रमांक पर रही। नवाज शरीफ उम्मीदों के साथ सत्ता में आए परंतु कुछ ही समय बाद सेना और सरकार के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी। नवाज शरीफ ने उन्हें पिछली बार कुर्सी से उतारने वाले जनरल परवेज़ मुशर्रफ की मुश्कें कसना शुरू कीं। सेना को यह पसंद नहीं आया क्योंकि इससे पाकिस्तान में सेना की छवि और रौब पर असर पड़ता था। फिर परवेज मुशर्रफ वर्तमान सेना प्रमुख राहिल शरीफ के मार्गदर्शक और अभिभावक की तरह हैं। 71 की जंग में भारतीय सेना के हाथों जान देने वाले राहिल शरीफ के बड़े भाई मुशर्रफ के मित्र थे। विदेश नीति और रक्षा नीति पर पाकिस्तानी फौज का विशेषाधिकार रहा है। नवाज शरीफ ने इस क्षेत्र में हाथ आजमाने की कोशिश की। विशेष तौर पर भारत के प्रति लचीला रवैया एवं व्यापार तथा सहयोग का रुख फौजी संस्थान को बेहद नागवार गुजरा।
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पाकिस्तान की फौज ने आज तक कोई सीधी लड़ाई नहीं जीती। 1965 के युद्घ में तगड़ी मार खाने के बाद फौज ने पाकिस्तान में झूठ बोला कि पाकिस्तान को जंग में जीत हासिल हुई है। फौज ने ही 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को खोया और 1999 में कारगिल के पर्वतों पर मुंह की खाई। लेकिन इनमें से कोई भी हार फौज की नज़र में हार नहीं है। पाक फौज के लिए हार का एक ही मतलब है कि वह भारत के खिलाफ अपने षड्यंत्रों को आगे न बढ़ा सकें। इसलिए हाल ही में फौज ने सीमा पर भारतीय ठिकानों पर गोलीबारी की घटनाएँ बढ़ा दीं। नयी सरकार के शपथ ग्रहण में नवाज शरीफ जब भारत आए थे तो उन्हें भारत सरकार की ओर से इशारा किया गया था कि संबंधों की नई शुरुआत के लिए ये जरूरी है कि पाकिस्तान भारत के आंतरिक मामलों से दूरी बनाए रखे। इसीलिए पाकिस्तानी राजनयिकों और नेताओं की परंपरा को तोड़ते हुए नवाज शरीफ कश्मीर घाटी के अलगाववादियों से नहीं मिले। फौज के लिए ये बड़ी गुस्ताखी थी। आग में घी पड़ने का काम हुआ जब पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर पर आईएसआई ने हमला करवाया और नवाज सरकार हामिद मीर के साथ खड़ी नजर आई। टीवी चैनलों पर फौज समर्थक प्रस्तुतकर्ताओं और पैनलिस्टों तथा शरीफ के मंत्रियों के बीच शब्द युद्घ का दौर चला। हामिद मीर के चैनल जिओ टीवी ने आईएसआई पर उंगली उठाई। फौज जिओ टीवी को बंद कराना चाहती थी। सत्तारूढ मुस्लिम लीग का इस चैनल से अच्छा रिश्ता था। प्रधानमंत्री और सेना के संबंधों में खटास बढ़ती गई। नवाज़ से फौज की नाराजगी देखकर 2013 की चुनाव की चोट को सहलाते इमरान खान ने मौका ताड़ लिया और नवाज सरकार के खिलाफ मार्च निकालने की घोषणा कर दी। इमरान खान और कादरी में कोई विशेष निकटता नहीं है। लेकिन कादरी ने इमरान के इस मार्च को एकतरफा समर्थन देने की घोषणा कर दी और तय हो गया कि इमरान के नेतृत्व में पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ और मौलाना कादरी के नेतृत्व में पाकिस्तान आवामी तहरीक के मार्च लाहौर से निकलेंगे और अलग-अलग रास्तों से 14 अगस्त को इस्लामाबाद पहुँचेंगे। इस मार्च की जोर शोर से तैयारियाँ हो रही थीं, परंतु दोनों पार्टियों का आधार सीमित होने के कारण कोई प्रभावी आंदोलन खड़ा होने में संदेह था। पहली गलती नवाज शरीफ और उनके भाई पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शाहबाज शरीफ ने की। उन्होंने शुरुआत एक सधी हुई रणनीति से की कि वे इमरान खान को भाव देते रहेंगे, लेकिन मौलाना कादरी को मुँह नहीं लगाएँगे। बात ठीक चलती रहती लेकिन सरकार द्वारा कादरी के समर्थकों पर सख्ती करने से मामला बिगड़ गया। कादरी के कई समर्थक मारे गए। तेजतर्रार कादरी को आग उगलने का मौका मिल गया। वे अपने समर्थकों को कसमें दिलाने लगे कि 'अगर उन्हें कुछ हो गया तो वे शरीफ बंधुओं से उनकी मौत का बदला जरूर लेंगे।' इस पूरे घटनाक्रम के पीछे फौज की रजामंदी को सूंघकर नवाज शरीफ परेशान हो गए। जब हालात बिगड़ते दिखे तो 12 अगस्त को वे टीवी पर आए। पाकिस्तानियों के नाम दिए गए संदेश में नवाज के मन में चल रही तख्तापलट की आशंका को महसूस किया जा सकता है। वे लोकतंत्र की दुहाई देते रहे, और 2013 के चुनावों की इस विशेषता का जिक्र करते रहे कि किस प्रकार पहली बार पाकिस्तान की जनता के द्वारा चुनी गई एक सरकार ने दूसरी लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता सौंपी है। इस प्रसारण को देखकर पाकिस्तानी फौज के शीर्ष अधिकारी जरूर मुस्कुराए होंगे।
नवाज शरीफ की आशंका निराधार नहीं है। यदि पाकिस्तान में सेना द्वारा लोकतांत्रिक सरकारों का इतिहास न होता और खान एवं कादरी की फौज से निकटता के किस्से न होते तो क्या इस आजादी मार्च को इतना महत्व मिलता? अब दोनों के समर्थक इस्लामाबाद में डेरा डाले हुए हैं। नारों और अखबारबाजी के दौर चल रहे हैं। इमरान खान ने पिछले आम चुनावों में हुई तथाकथित धांधली को मुद्दा बनाया हुआ है। प्रधानमंत्री शरीफ, पंजाब सरकार,अदालत, चुनावों से संबंधित एजेंसियों और सरकारी अधिकारी सब उनके निशाने पर हैं। वे इस बात का उत्तर नहीं देते कि जब आम चुनावों में धांधली हुई है, और इसलिए नवाज शरीफ और पंजाब सरकार को सत्ता में रहने का हक नहीं है, तो इसी चुनाव में खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में बनी उनकी पार्टी की सरकार कैसे जायज है? वे ये बता पाने में भी असमर्थ हैं , कि नवाज शरीफ के इस्तीफे से क्या हासिल होगा। उनकी बातोें के कुछ विचित्र से आशय निकलते हैं। जैसे कि उनके सपनों का 'नया पाकिस्तान' किस तरह उनकी फिर से शादी करने की इच्छा से जुड़ा है। खान पाकिस्तान की जनता को ये समझाने में भी विफल रहे हैं, कि लोकतांत्रिक ढं़ग से चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकना किस प्रकार से पाकिस्तान के हित में है। इसलिए तंज शुरू हो गए हैं। लोग मुस्कुराकर कहने लगे हैं, कि वे पिछले एक हफ्ते में 'पुराने पाकिस्तान' में रह-रहकर ऊब चुके हैं, और आज से ही 'नए पाकिस्तान' में रहना चाहते हैं। लोग दबी जुबान में ये भी कहते हैं, कि ये दोनों सूरमा अपने मार्च को इस्लामाबाद की जगह रावलपिंडी ले जाकर दिखाएं।
ताहिर उल कादरी भी पुलिस से झड़प में मारे गए अपने समर्थकों का बदला लेने के नारे लगा रहे हैं। उनकी भी माँग है, कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दें। राज्यों की असेंबलियाँ भंग कर दी जाएँ। भ्रष्टाचार खत्म किया जाए। महंगाई कम की जाए। सबको घर और छत दी जाए। वेतन में असमानता खत्म हो। आतंकवाद का खात्मा हो, आदि। जैसा कि साफ ही है, कि कादरी के पास भी कहने या प्रस्ताव देने के लिए कुछ खास नहीं है। कई लोगों को लगने लगा है, कि खान और कादरी राजनैतिक आत्महत्या की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। समर्थकों का उत्साह घट रहा है। उन्हें महसूस हो रहा है, कि जब वे रात को बारिश में भीग रहे होते हैं,तब उनके नेता अपनी भव्य आरामगाहों में एयर कंडीशनर की सुरक्षा में आराम फरमाते रहते हैं।
इस्लामाबाद में चल रहे तमाशे पर एक चुटकुला सुनने में आया। लड़का : क्या मुझसे शादी करोगी? लड़की : हाँ। लेकिन नवाज शरीफ के इस्तीफे के बाद। लड़का : इन्कार करने का तुम्हारा तरीका अच्छा नहीं लगा। इमरान और कादरी इस चुटकुले पर नहीं हँस सकते, क्योंकि वे जानते हैं, कि ये सच है। उनकी आशा तो फौज पर टिकी है। पर क्या फौज नवाज का तख्ता पलट करेगी? पाकिस्तान की फौज के लिए तख्तापलट कोई कठिन काम नहीं है। पाकिस्तान के इतिहास के चारों तख्तापलट रक्तपात के बिना हुए हैं। पाकिस्तान में सभी लोग कल्पना कर सकते हैं। सेना की एक छोटी टुकड़ी हल्के स्वचालित हथियार लेकर कुछ सरकारी भवनों प्रधानमंत्री निवास आदि को घेर लेगी। मीडिया भवनों के बंद फाटकों पर कूद-कूद कर चढ़ते बहादुर फौजियों के फोटो-वीडियो दिखाएगा। फिर टीवी पर पाक सेना प्रमुख अवतरित होगा। उसके पीछे पाकिस्तान का झंडा और जिन्ना का फोटो लगा होगा। वो बात की शुरुआत 'मेरे अजीज हमवतनों' और अंत 'पाकिस्तान पाइंदाबाद' से करेगा। भाषण का सार होगा कि ''मुल्क के अंदरूनी और बाहरी हालात बहुत खराब हैं। मगरिब और मशरिक दोनों त् ारफ हमारे खिलाफ साजिशें हो रही हैं। इसलिए मार्शल लॉ लगा दिया गया है। फौज मुल्क की खिदमत के लिए है।'' सवाल ये है कि क्या आज फौज इसके लिए तैयार है? उत्तर है 90 फीसद नहीं।
आज आस-पड़ोस की तरह पाकिस्तान में भी जनसामान्य की आकांक्षाएँ बढ़ गई हैं। और पाकिस्तान के आज के हालातों में इसे पूरा करना चुनौतीपूर्ण काम है। फिर पाक सेना अमेरिका के साथ स्थायी रूप से मोल-भाव में उलझी हुई है। उत्तरी वजीरिस्तान में आतंकियों पर कार्यवाही करने के लिए अमरीकी दबाव बढ़ता जा रहा है। फौज के सामने समस्या ये है, कि खुद के पाले-पोसे जिहादियों पर शस्त्र कैसे उठाया जाए। आखिरकार हर छोटे-बड़े हथियार का अपना महत्व होता है। इसलिए बहुत सोचा समझा अभियान चलाया जा रहा है। सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान में जर्ब ए अज्ब नामक ऑपरेशन प्रारंंभ किया है। लेकिन ये 2009 के दक्षिणी वजीरिस्तान की सैन्य कार्यवाही जैसा है। फौज के अफसर महीनों तक सिर्फ चेतावनी देते रहते हैं। इस बीच सारे खास आतंकी उस क्षेत्र से निकल जाते हैं, फिर बचे खुचे गुर्गे मारकर उनकी लाशें अमरीका को दिखाकर और पैसे माँगे जाते हैं। अमरीका इस खेल को जानता है, और इसलिए कूटनीतिक वार्ता और तकनीक के बल पर अधिक से अधिक हासिल करने का प्रयास कर रहा है। जाहिर है, कि पाक फौज को भी इस प्रहसन को जारी रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।
खान के इस आजादी मार्च में कुल 6 राजनैतिक दल हिस्सा ले रहे हैं।अंकों के गणित के हिसाब से 272 सदस्यों (सीधे चुने जाने वाले सांसद ) वाली नेशनल असेम्बली में इन दलों की संयुक्त ताकत 36 अंकों की है। इनमें 35 सीटें इमरान की तहरीक ए इन्साफ पार्टी की हैं।इनको छोड़कर प्रमुख विपक्षी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी समेत अन्य समस्त विपक्षी दल इस मुद्दे पर नवाज शरीफ के साथ खड़े हैं। इमरान के इस खतरनाक खेल में उलझकर वे फौज के हाथ का खिलौना नहीं बनना चाहते।
कुछ कारण और हैं। तख्तापलट करके मार्शल लॉ लगाने के लिए भी संवैधानिक आड़ की आवश्यकता होगी। इसके लिए संसद व संविधान को निलंबित कर अस्थाई संंवैधानिक कार्यविधि लानी होगी। इसे तैयार करना कोई कठिन काम नहींं है, लेकिन इसे अमलीजामा पहनाने वाला न्यायतंत्र पहले की तरह विश्वसनीय नहीं रह गया। पूर्व में भी ऐसे मौकों पर सर्वोच्च न्यायालय में बैठे कुछ विरोधियों को हटाकर काम चलाना पड़ा था, क्योंकि सारी प्रक्रिया को न्यायालय द्वारा आवश्यक बताकर वैध करार दिया जाना आवश्यक है। न्यायालय का यह निर्णय सैनिक तानाशाह को संविधान से छेड़खानी करने की शक्ति दे देता है। सैनिक सरकार को कदम-कदम पर इसकी आवश्यकता पड़ती है। जिया-उल-हक ने धड़ल्ले से संविधान संशोधन किए थे। मुशर्रफ को भी खुला हाथ दिया गया था, लेकिन सन 2000 में कोर्ट ने उन्हें सत्ता संभालने के तीन साल के अंदर आम चुनाव कराने का आदेश भी दे दिया था। सत्ता में आने के बाद मुशर्रफ ने 17 वां संविधान संशोधन करके जजों द्वारा ली जाने वाली शपथ में संशोधन किया। नई शपथ में जजों को सेना के प्रति भी शपथ लेनी होती थी। 2002 के आम चुनावों के बाद मुशर्रफ ने राष्ट्रपति पद ले लिया और सेना के सर्वेसर्वा भी बने रहे। 2007 में राष्ट्रपति की कुर्सी सरकते देख मुशर्रफ ने आपातकाल की घोषणा कर दी जिसका व्यापक विरोध हुआ। वकील और न्यायाधीश सड़कों पर उतर आए। मुशर्रफ को झुकना पड़ा। पिछले 7 सालों में न्यायपालिका की शक्ति और बढ़ी है। उसे शीशे में उतारना पहले से अधिक कठिन हो गया है।
सैनिक तानाशाही को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलना अब कठिन होता जा रहा है। मुशर्रफ एक दशक तक राष्ट्रीय परिदृश्य में बने रह सके, उसके पीछे अमरीका का अफगानिस्तान और पाकिस्तान के दूरदराज इलाकों में चल रहा आतंकवाद विरोधी अभियान एक बड़ा कारण है। मार्च 2000 में अमरीकी प्रधानमंत्री बिल क्लिंटन पाँच दिनों के लिए भारत आए। लौटते समय काफी सोच विचार के बाद मात्र 4 घण्टों के लिए पाकिस्तान गए। मुशर्रफ के साथ फोटो भी नहीं खिंचवाई। न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले ने मुशर्रफ की राजनैतिक पारी को नवजीवन प्रदान किया। ऐसा होना बार-बार तो संभव नहीं है। अपनी सीमाओं के अंदर नेशनल असेंबली आज पहले से ज्यादा मुखर है। मुशर्रफ एक ऐसी पाकिस्तानी संसद को नचाते रहे, जिसने उन्हें राष्ट्रपति और सेना का आका, दोनों बने रहने दिया। अब हालात वैसे नहीं रहे। राजनैतिक प्रक्रिया में जनता का भी विश्वास पहले से बढ़ा है।
पाकिस्तान की माली हालत पतली है। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें आर्थिक बदहाली, महंगाई, बेरोजगारी, ऊर्जा संकट, जल संकट और भ्रष्टाचार के लिए जनता से गालियाँ खा रही हैं। सत्ता के सूत्र हाथ में संभालने के लिए सैन्य तानाशाही को ये बला अपने सिर लेनी होगी। आज जनता अपने मौलिक अधिकारों को लेकर पहले से ज्यादा सजग है। पहले के पाकिस्तानी तानाशाह आयूब, जि़या और मुशर्रफ पश्चिमी ताकतों की शह पर भू-राजनैतिक परिदृश्य में रणनैतिक किरदार अदा करते रहे। बदले में वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ कम ब्याज दर वाले कर्ज और खैरातें देते रहे। अब रंगमंच के नियम कुछ जटिल हो गए हैं। फौज ये समझती है, और इसलिए कम से कम अभी तो तख्तापलट करना नहीं चाहेगी। इसका अर्थ ये नहीं है कि खाकी वाले पाकिस्तान पर लगाम ढीली करने को तैयार हैं। पाकिस्तान पर लोहे जैसी मजबूत जकड़ रखने वाले फौजी प्रतिष्ठान के पास विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सारे मोहरे हैं जिनमें से दो इस्लामाबाद में धरना दे रहे हैं। दोनांे फौज के भरोसे सड़कों पर उतर आए हैं। नवाज़ के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। लेकिन लगता नहीं कि फौज नवाज़ शरीफ को हटाना चाहती है। वह तो केवल उन्हें हल्की चपत लगा कर रास्ते पर वापस लाना चाहती है। इस्लामाबाद में मंचित हो रहा तमाशा जब खत्म होगा तब नवाज शरीफ के पर कतरे जा चुके होंगे और वे फौज के लिए कामचलाऊ बन चुके होंगे। कादरी संभवत: फिर कनाडा लौट जाएंगे और इमरान खान शायद सोचेंगे कि आज से दो दशक पहले जब नवाज शरीफ ने उन्हें पाकिस्तान मुस्लिम लीग में आने का न्यौता दिया था तब उसे ठुकरा कर उन्होंने कोई गलती तो नहीं की थी।
पिछले हफ्ते जब कादरी और खान के काफिले इस्लामाबाद की ओर निकले तब नवाज़ शरीफ ने अपने दो दूत फौज प्रमुख राहील शरीफ के पास भेजे। नवाज़ जानना चाहते थे कि क्या दोनों की इस मुहीम को फौज का आशीर्वाद प्राप्त है और फौज तख्तापलट की 'जरूरत' तो महसूस नहीं कर रही है। कहते हैं कि दूत एक अच्छा और एक बुरा समाचार लेकर लौटे। अच्छा ये कि फौज चाहती है कि नवाज़ बने रहें। बुरा ये कि फौज चाहती है कि नवाज़ फौज के साथ सत्ता साझा करते रहें। नवाज़ को निर्देश मिल चुके हैं। उन्होंने संकेत भी तत्काल दे दिए। वे एक बार फिर कश्मीर पर मुखर होने लगे हैं और पाकिस्तानी राजनयिक उच्चस्तरीय भारत-पाक वार्ता को दाँव पर लगाकर भी कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से बात करने पर आमादा हैं। इस बीच फौज के आईएसपीआर (इंटर सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशन्स) ने पाकिस्तान के नेताओं से 'जि़म्मेदार' ढंग से काम करने को कहा है।
नवाज जानते हैं कि फौज कितनी भी मुलायम आवाज में बात करे , परन्तु उसकी नाराजगी को नजरअंदाज करने की गफलत बहुत भारी पड़ सकती है। वे स्वयं इस मामले में किसी को सलाह देने के लिए आज पाकिस्तान के सबसे अनुभवी व्यक्ति है। वो बेहद संजीदा है , क्योंकि उन्हें पता है कि फौज द्वारा तख्ता पलट की संभावनाएँ यदि 10 प्रतिशत भी हैं , तो यह बेहद गंभीर बात है। इसलिए वे कोई खाना खाना खाली छोड़ना नहीं चाहते।'अल्लाह-आर्मी और अमेरिका' ़.़.पाकिस्तान में शक्ति के क्रम को इसी प्रकार से बताया जाता रहा है। पिछले दो दशकों में चीन इस मुहावरे में स्थान बनाने की स्थिति में आ गया है। अमेरिका इस समय पाक फौज के साथ उत्तरी वजीरिस्तान में व्यस्त है। चीन के साथ नवाज और फौज दोनों के अच्छे संबंध हैं। सारे हंगामे के बीच नवाज के भाई शाहबाज एक प्रतिनिधिमंडल लेकर 'व्यापार की बातें ' करने चीन पहुँच चुके हैं। 28 अगस्त को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'डान' ने एक विस्तृत सर्वे प्रकाशित किया है। सर्वे के अनुसार पाकिस्तानी जनता के बीच नवाज शरीफ की लोकप्रियता स्थिर है, इमरान खान का ग्राफ नीचे जा रहा है, जबकि पाकिस्तानी फौज की लोकप्रियता में उछाल आया है। 87 प्रतिशत पाकिस्तानी सेना को हीरो मानते हैं। पाकिस्तानी पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के 84 प्रतिशत लोगों को लगता है कि भारत तालिबान और अलकायदा से भी बड़ा खतरा ह। जनरल राहिल शरीफ के सारे तीर निशाने पर लगे हैं। -प्रशांत बाजपेई
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