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महिलाओं को भी ईसाई मत में बिशप का पद देना चाहिए, इस तरह का प्रस्ताव हाल ही में चर्च ऑफ इंग्लैंड की तीन पंथसभाओं के संयुक्त सत्र में किया गया है। पूरी दुनिया में ईसाई मत प्रचार के लिए लोगों की जो कमी महसूस हो रही है, उसके अगले पांच वर्ष में पूरी होने की संभावना है। पूरी दुनिया में आज ईसाइयत की सभी धाराओं के 10 लाख पादरी/बिशप एवं 10 लाख सवेतन प्रचार करने वाले लोग हैं। अब यह संख्या बहुत ज्यादा होने की संभावना बन गई है। विश्व में जो मतांतरण होता है उनमें सर्वाधिक एशियाई देशों में ही चल रहा है इसलिए इस निर्णय का परिणाम भारत, चीन, दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों पर अधिक पड़ने की संभावना है।
चर्च ऑफ इंग्लैंड की सीनेट अनेक मायनों में विश्व के प्रोटेस्टेंट जगत की मार्गदर्शक सभा होती है। ईसाई मत के कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट, ये दो मुख्य पंथ हैं। उनमें से कैथोलिकों में भी पिछले 50-60 वर्ष से इस तरह की मांग हो रही है लेकिन उनमें इतना ही कहा गया कि पंथ का काम महिलाओं एवं पुरुषों को स्वतंत्र रूप से ही करना चाहिए। प्रोटेस्टेंट पंथ मूलत: इस तरह के सुधारों को अवसर देने वाला है इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव पारित किया है। वैसे इस विषय का सूत्रपात होने के बाद प्रत्यक्ष प्रस्ताव पारित होने में 20 साल लगे। प्रोटेस्टेंट पंथ 500 वर्ष पूर्व कैथोलिकों से कुछ बातों पर असहमति से उपजा था। उसमें अब ल्युथेरियन, बैप्टिस्ट, एंग्लिकन जैसी अनेक धाराएं हैं, उनके प्रमुख व मुख्यालय भी अलग अलग स्थानों पर हैं। हर एक का प्रभाव क्षेत्र अलग है। लेकिन जाने-अनजाने चर्च अफ कैंटरबरी के निर्णयों का प्रभाव पूरे प्रोटेस्टेंट पंथ पर होता है। भारत के सारे एंग्लिकन चर्च चर्च ऑफ इंग्लैंड से बने हंै। उनका प्रमुख पद यही होता है, फिर भी सब चर्च ऑफ इंग्लैंड को दिशादर्शक मानते हैं। इस चर्च के महिला बिशप नियुक्त करने से पूर्व आस्ट्रेलिया एवं अमरीका के अनेक एंग्लिकन चर्च संगठनों ने महिलाओं को बिशप पद पर नियुक्त किया हुआ है। लेकिन वे सब नाममात्र के लिए हैं। चर्च ऑफ इंग्लैंड द्वारा अब यह प्रस्ताव पारित करने के बाद अन्य सभी प्रोटेस्टंेट द्वारा उसका अनुकरण करने की संभावना है। इतना ही नहीं, कैथोलिकों में भी इस तरह का निर्णय लेने की सुगबुगाहट शुरू होगी।
फिलहाल यूरोप, अमरीका में ईसाइयों की संख्या कम होते जाने एवं अफ्रीका और एशिया में मतांतरण के माध्यम से काफी वृद्घि होने की प्रक्रिया जारी रहने के कारण इस निर्णय को चर्च जगत में काफी महत्व दिया जा रहा है। मतांतरण यानी राष्ट्रांतरण, विश्व भर में यह अनुभव होने के बाद आज भी जिन देशों में बड़े स्तर पर मतांतरण जारी है वहां मतांतरण विरोधी कानून नहीं है। लेकिन उन देशों में इस अनुभव के आधार पर ऐसा कानून बनाने की चर्चा शुरू हो चुकी है। इसलिए सभी ईसाई संगठनों को आज का वक्त आपातकालीन लग रहा है। चीन जैसे देश में भी बड़े पैमाने पर मतांतरण शुरू करना उसी का हिस्सा है। चर्च ऑफ इंग्लैंड ने जो यह प्रस्ताव पारित किया है वह भी बड़ी कसौटी से गुजर कर किया है। दो वर्ष पूर्व ही उनके हाऊस ऑफ क्लर्जी एवं हाऊस ऑफ बिशप्स ने यह प्रस्ताव दो तिहाई से भी अधिक मतों से पारित किया था़, लेकिन हाऊस ऑफ लेइटी (सामान्य अनुयायियों की परिषद) में इसे दो तिहाई से केवल पांच मत कम मिले। इसमें से राह निकालने के लिए इस समय तीनों सभाओं का संयुक्त सत्र आमंत्रित कर उसमें यह प्रस्ताव लाया गया तथा वह पारित भी हुआ। फिर भी इस प्रस्ताव पर अमल करने में छह महीने लगेंगे, क्योंकि ब्रिटेन में पंथ-संसद वहां की संसद से नियंत्रित होती है। अब यह प्रस्ताव ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों में चर्चा के लिए आएगा। चूंकि यह कानून बदलने का मसला है इसलिए वहां भी दो तिहाई मतों की आवश्यकता होगी। उसके बाद वह रानी एलिजाबेथ द्वितीय की मान्यता के लिए जाएगा। वहां से हस्ताक्षर होने के बाद पुन: पंथ-संसद के पास आएगा और वहां से अमल में आएगा। यह प्रक्रिया लंबी होने के बाद भी आज के हिसाब से देंखें तो वह भारी मतों से लागू किया जाएगा।
इस पर पोप फ्रांसिस की बस इतनी ही प्रतिक्रिया थी कि 'इस प्रस्ताव से हम पूरी तरह असहमत हैं। इससे काम बढ़ने की बजाय कम होगा, जगह जगह पर इससे चर्च में दोष पैदा होंगे। महिलाओं को इस तरह के पद न देने का अर्थ उनको कम आंकना है, ऐसा हमने कभी नहीं सोचा। पंथ का काम किस एकाग्रता से किया जाए, इस बारे में हमारे पुरखों ने कुछ नियम बनाया है जिसका हम पालन कर रहे हैं।' पोप कैथोलिक पंथ के प्रमुख हैं। आज उनके 125 करोड़ से अधिक अनुयायी हैं। प्रोटेस्टेंट पंथ में विभिन्न संस्थाएं हैं, लेकिन चर्च ऑफ इंग्लैंड प्रमुख चर्च माना जाता है। उसके अनुयायियों की कुल संख्या 80 करोड़ है, लेकिन प्रत्यक्ष चर्च ऑफ इंग्लैंड के अनुयायियों की संख्या आठ करोड़ है।
60 वर्ष पूर्व पूरी दुनिया में अनेक देशों ने स्वतंत्रता प्राप्त की थी। अब वहां के चर्च संगठन भी स्वतंत्र हैं, यह दिखाना भर ही स्वतंत्र संगठनों का काम है। 'मतांतरण से राष्ट्रांतरण' करना ही उनका पिछले 500 वर्ष से उद्देश्य रहा है। बहरहाल, आज 200 से अधिक देशों में फैले एंग्लिकन समाज का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है उसमें इस निर्णय से काफी मदद मिलेगी। इसमें चीन एवं अफ्रीका के अनेक देशों का समावेश है। भारत में लंबे समय तक अंग्रेजों की ही सत्ता रहने के कारण यहां आधे से अधिक चर्च संगठन एंग्लिकन ही हैं। भारत में एक वर्ष पूर्व ही चर्च ऑफ साउथ इंडिया संगठन ने आंध्र प्रदेश में श्रीमती पुष्पललिता को नांदियाल पंथ-प्रांत में बिशप पद पर नियुक्त किया है।
महिलाओं को बिशप बनाए जाने के इस निर्णय पर चर्च ऑफ इंग्लैंड के आर्चबिशप जस्टीन वेल्बी एवं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने संतोष जाहिर किया है। भारत के पूवार्ेत्तर राज्यों में जो ईसाई मिशनरियों का काम जारी है उनमें एंग्लिकन मिशन का ही हिस्सा समझे जाने वाले बैप्टिस्ट चर्च का सहयोग है। आज मुख्य रूप से एशिया में इस काम के विस्तार हेतु और 10 लाख वेतनभोगी प्रसारक काम करते हैं। उन सबको आज भी मानव संसाधन कम होने की शिकायत रहती है।
जहां पांथिक लिहाज से मतांतरण गंभीर बात है वहीं राजनीतिक लोगों की दृष्टि से राष्ट्रांतरण महत्वपूर्ण बात है। पूरी दुनिया का इतिहास यूरोपीय संगठनों ने यूरोसेंट्रिक यानी यूरोप को केंद्र-बिंदु मानकर लिखा है। उसे हेमेटिक-सेमेटिक की बुनियाद दी है, इसे भूलाया नहीं जा सकता। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विश्व के 60-70 देशों का इतिहास हेमेटिक – सेमेटिक से स्थानीय संदभोंर् तक आने की प्रक्रिया शुरू होने पर इन चर्च संगठनों, यूरोपीय संस्थाओं एवं वहां की सरकारों ने जो भूमिका अपनाई उसे भूलाया नहीं जा सकता।
विश्व में मतांतरण, गुलामी एवं लूट से भी गंभीर एक काम इन यूरोसेंट्रिक संस्थाओं ने किया है, पर उस पर चर्चा अभी तक शुरू नहीं हुई है। वह काम है कि उन्होंने पूरी दुनिया को सेल्युलर जेल बनाने का जिम्मा हाथ में लिया हुआ है। इसके बारे में यदि उदाहरण देना हो तो अंदमान की सेल्युलर जेल की इमारत देखी जा सकती है। एक केंद्रीय धुरी की सात शाखाएं, प्रत्येक शाखा पर तीन मंजिलें एवं हर मंजिल पर अनेक कोठरियां, यह इस कारावास का स्वरूप है। इनमें से हर कोठरी के ताले पर केन्द्रीय धुरी का नियंत्रण है। उसी तरह सेमेटिक-हेमेटिक विवाद से उन्होंने हर देश के दो टुकड़े करवाने में सफलता प्राप्त की है। आर्य-अनार्य उसी विवाद का भारतीय रूप है। इससे आरक्षण की प्रक्रियाएं कैसे पैदा होती हैं, इसके अध्ययन की आवश्यकता है। धीरे धीरे समाज की हर व्यवस्था के टुकड़े करवाने में वे सफल हुए हैं। उसी तरह शिक्षा एवं सामाज जीवन के हर क्षेत्र का स्वरूप आज सेल्युलर जेल जैसा बना दिया गया है। हर देश में कुछ सामाजिक समस्याएं होती ही हैं, लेकिन उसमें महासत्ताओं की दवा देने का निर्णय करने से क्या होता है, इसका परिणाम भारत एवं विश्व के अन्य 60-70 देशों ने अनुभव किया है। यूरोपीय संस्थाओं द्वारे लादे गए सेमेटिक-हेमेटिक विवाद से बाहर आकर यदि इस विषय की ओर देखा जाए तो उसका स्वरूप आसानी से समझ आ सकता है। यूरोपीय देशों के आज के पतन के दौर में उन्हें केवल पूरे विश्व को सेल्युलर जेल बनाना है। उनकी नजर से, आज कुछ प्रतिकूल समय में अगर यह तैयारी की जाए तो बाद में कभी भी उन देशों में 15 वीं से 19वीं सदी को दुहराया जा सकेगा। यह भी उनका स्पष्ट उद्देश्य है। वास्तव में पिछले 60-70 वर्ष में विश्व के जिन जिन देशों को यूरोसेंट्रिक वर्चस्व से मुक्ति मिली है, उन देशों में बदलाव का अहसास आया है और संबंधित लोगों का एकजुट होना भी शुरू हुआ है। लेकिन वह अपेक्षा के अनुरूप संगठित रूप नहीं है। इसके लिए और प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। -मोरेश्वर जोशी
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