|
विश्व के किसी भी समृद्ध शहर की ओर नजर दौड़ाने पर चाहे वह लन्दन हो, न्यूयार्क, शंघाई या सिंगापुर सब जगह भारतीय मूल के लोग सफल एवं शीर्ष पर नजर आते हैं। विशेषकर वे जो हाल ही में भारत से आए हैं। ब्रिटेन में भारतीय पृष्ठभूमि के लोग बंगलादेश या पाकिस्तान की पृष्ठभूमि के लोगों से बहुत ही बेहतर नजर आते हैं। भारतीय लोग ईमानदार, शांत प्रकृति के और निष्ठावान होते हैं, इसलिए इनकी मांग सबसे ऊपर रहती है। जिस देश में वे रहते हैं और कार्य करते हैं उस समाज के प्रति महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। अमरीका, चीन और यूरोप के विश्विद्यालयों की कक्षाओं में पढ़ाते हुए भी यह अनुभव में आता है कि भारतीय छात्र प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी हैं। वे कष्ट को झेलते हुए बिना किसी परेशानी के कठिन परिश्रम करते हैं और अपने शिक्षकों द्वारा सर्वाधिक देशों पसंद किये जाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि हम भारतीय समृद्ध देशों में तो बहुत अच्छा काम करते हैं किन्तु अपने देश में क्यों नहीं कर पाते। क्यों हमारे देश में आज भी गरीबी चरम पर है और सौ मिलियन से भी अधिक निरक्षर हैं। भारत में महिलाएं आज भी प्रत्येक दृष्टि से पीडि़त हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सफाई का स्तर बहुत ही बदतर है। इन सारे प्रश्नों का उत्तर एक ही शब्द में निहित है और वह है- सुशासन या गवर्नेंस। महात्मा गांधी ने सादा जीवन और उच्च विचार की प्रेरणा देते हुए भोगों और भौतिक वस्तुओं के प्रयोग का निषेध किया। उन्होंने मशीनी उत्पादों के बजाय लघु कुटीर एवं हथकरघा वस्तुओं को प्राथमिकता देने का मंत्र दिया था। गांधी कभी वामपंथियों की विचारधारा के समर्थक नहीं रहे इसलिए यह भी प्रश्न उठता है कि फिर उन्होंने नेहरू के विचारों का समर्थन क्यों किया और नेहरू ने राष्ट्रपिता का अनुसरण क्यों नहीं किया? इस रहस्य को सब जानते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू का चयन गांधी जी का व्यक्तिगत प्रयास था। अन्यथा कांग्रेस का बहुमत विकल्प के तौर पर सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ था। 1947 में यदि ऐसा हो जाता तो आजादी के बाद देश का इतिहास कुछ और ही होता। वास्तव में जिस स्वदेशी और सादगी की बात गांधी करते थे वह पटेल के पास थी। इसके विपरीत नेहरू हमेशा से स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे और भारतीय होने के बजाय अंग्रेज कहलाना ज्यादा पसंद करते थे। यह भी विडम्बना है कि यदि भारत अखंड रहता तो प्रधानमंत्री के तौर पर गांधी की ओर से दूसरा विकल्प मोहम्मद अली जिन्ना होते, पटेल या अम्बेडकर नहीं। यह भी प्रश्न उठता है कि सरलता के प्रतीक गांधी ने गरीब देश का प्रधानमंत्री उच्च वर्ग में क्यों ढूंढा? परिणाम हम सबके सामने है। अंग्रेज चले गये लेकिन उनके अनुयायी नेहरू ने चाहे उद्योग हो, शिक्षा हो, अर्थव्यवस्था या अन्य कोई क्षेत्र उसी अंग्रेजी चश्मे से विकसित करवाए। बेशक यूनियन जैक का स्थान भारतीय तिरंगे ने ले लिया हो और अंग्रेजों के राष्ट्रगान 'गॉड सेव दि किंग' का स्थान जनगण मन ने ले लिया लेकिन अंग्रेजों की उपनिवेशवादी व्यवस्था नेहरू ने जैसी की तैसी रखी। यह ठीक है कि सफेद चमड़ी वाले लोग हमें छोड़कर चले गए लेकिन उनकी जगह सफेद पोशाक वाले लोगों ने ले ली। आज भी इस देश की राजनीतिक तंत्र, नौकरशाही, कानून और पुलिस व्यवस्था में अंग्रेजों की रीति-नीति चल रही है। और आजादी के बाद अपना भाग्यविधाता होने का जो सपना भारतीयों ने संजोया था वह 67 वर्ष वाद भी अंग्रेजों के राज से भी भयावह दिखायी देता है। हमारा प्रशासनिक तंत्र और नौकरशाही का ढांचा गरीब और सामान्य आदमी की पकड़ से आज भी बहुत दूर है, और चाहे हम जितने दावे कर लें कई क्षेत्रों में हम श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों से बहुत पीछे हैं। इसी का परिणाम है कि अपने देश में प्रतिभाएं पिगमी दिखाई पड़ती हैं और बाहर जाते ही वे दैत्याकार हो जाती हैं। विश्व में जहां भी हम देखें चाहे वह लन्दन हो, न्यूयार्क, मेलबोर्न या सिंगापुर भारतीय मूल के लोग उस देश के सामान्य नागरिक से बेहतर कार्य करते दिखाई पड़ते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के सातवें दशक की दहलीज पर भी भारत अंग्रेजी उपनिवेश की निरंतर चली आ रही परिपाटी चल रहा है। जिस कारण देश का सामान्य व्यक्ति व्यथित, हताश और उदास है। इसी पीड़ा को देश के मतदाताओं ने 2014 के चुनाव में व्यक्त किया है। नरेन्द्र मोदी ने 'न्यूनतम सरकार और अधिकतम सुशासन' का नारा दिया उससे इस बीमार तंत्र को उभारने का संकल्प व्यक्त किया। नरेन्द्र मोदी को इस देश का पहला उत्तर नेहरूवादी प्रधानमंत्री कहा जा सकता है। आणविक ऊर्जा और अंतरिक्ष के क्षेत्र में जो उपलब्धियां प्राप्त हुईं हैं उनमें नौकरशाही की कोई भूमिका नहीं है। यह इसलिए संभव हुआ कि इनसे जुड़े लोग स्वयं विशेषज्ञ एवं नीतिनियंता थे। आज भारत चीन की तुलना में रक्षा क्षेत्र में इसलिए पिछड़ रहा है क्योंकि नौकरशाही के बूते चलने वाला तंत्र भारतीय रक्षा तंत्र को शिथिल किये रहा है। लगभग दो दशकों पहले भारत रक्षा निर्माण में चीन से ऊपर था।
वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की स्थिति भी ऐसी ही है जहां कि विषयों के विशिष्टीकरण की जरूरत पड़ती है। वित्त मंत्रालय के तहत आने वाले भारतीय रिजर्व बैंक का संचालन पश्चिमी आर्थिक मॉडल का अनुकरण करने वाले बौद्धिक गुलाम कर रहे हैं। वित्त मंत्रालय के नौकरशाह भारत की जनता की चिन्ता छोड़कर विदेशी निवेशकर्ताओं के बारे में ज्यादा चिन्तित दिखाई पड़ते हैं।
1992 और 1996 के बीच में उदारवाद के नाम पर डॉ. मनमोहन सिंह जो आर्थिक नीति लाए थे, व्यापारिक करों को कम करने की बात थी और भारतीय करदाताओं पर और अधिक बोझ डालने की बात थी। इसलिए विदेशी पूंजी के निवेश के स्वागत के लिए खूब पलक पावड़ें बिछायी गयीं। वित्त मंत्रालय में कई अधिकारी विदेशों से बुलाए गए और मंत्रालयों के कई अधिकारी इस खेल में विदेश भेजे गए।
यह ठीक है कि निजी क्षेत्र में अच्छे ज्ञान वाले कई प्रबंधक मौजूद हैं और वे अपने कौशल का सुपरिणाम भी देते हैं तो फिर ऐसी व्यवस्था सार्वजनिक क्षेत्र या सरकारी तंत्र में क्यों सुलभ नहीं हो पाती? सरकारी प्रशासक, पुलिस और विदेश सेवा के अधिकारी अपने महकमे में तो उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते और निजी क्षेत्र में जाकर प्रभावी सलाहकार सिद्ध होते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जब तक भारत उपनिवेश के तंत्र से अपने प्रशासन और शिक्षा को मुक्त नहीं कर पाएगा तब तक देश पिछड़ता रहेगा। शिक्षा और साहित्य से ऐतिहासिक चरित्रों को निकाल दिया गया है। क्योंकि जवाहरलाल नेहरू की अंग्रेज सोच यह थी कि ये मिथक केवल कल्पना के विषय थे। यही कारण है कि रामायण और महाभारत भारत की विद्यालयी शिक्षा में नहीं पढ़ाए जाते बल्कि इण्डोनेशिया में पढ़ाए जाते हैं।
भारत में राम के चरित्र को उदाहरण के रूप में यहां के बच्चे स्वीकार नहीं कर सकते जबकि यूरोप में जूलियस सीजर या अलेक्जेंडर यूरोप के बच्चों को प्रेरित करते हैं। इस जर्जर ढर्रे को बदलना होगा। 15 अगस्त 1947, अंग्रेजों के जाने के बाद भी जिस उपनिवेशवादी तंत्र की छाया हमारे यहां मौजूद है उसे खत्म करना होगा। इस छाया का कारण यही है कि महात्मा गांधी ने जिस व्यक्ति के हाथों इस देश की सत्ता सौंपी थी वह 90 फीसद अंग्रेज और मात्र 10 फीसद भारतीय था। 2014 के चुनाव परिणामों ने भारतीयों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में 100 फीसद भारतीय नेता दिया है। नरेन्द्र मोदी को भूतकाल में झांकने के बजाय आगे की ओर देखने की जरूरत है। उन्हें नेहरू मॉडल के स्थान पर मोदी मॉडल स्थापित करना होगा। जिसमें सिविल सेवा नहीं बल्कि सिविल सोसायटी प्रभुत्व वाली हो। एक बार यदि हम उपनिवेशवादी संस्कृति की हवा से मुक्त हो गए तो यह देश और इसके लोग समृद्धि और सम्पन्नता की स्थिति में पहुंच जाएंगे।
इन मुद्दों पर घिरे थे नेहरू
- भारत विभाजन
- कश्मीर समस्या
- चीन द्वारा भारत पर हमला
- मुस्लिम तुष्टीकरण
- भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए चीन का समर्थन
- भारतीय राजनीति मंे वंशवाद को बढ़ावा देना
- भारतीय इतिहास लेखन में गैर कांग्रेसियों की अवहेलना
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का ठीक से पता नहीं लगवाना
- हिन्दी को भारत की राजभाषा बनने में देरी करना व अन्त में अनन्त काल के लिये स्थगन।
– भारत पर अंग्रेजी लादे रखने का विधेयक संसद में लाना और उसे पारित कराने पर 3 जुलाई, 1962 को बिशनचन्द्र सेठ ने प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र में लिखा था कि-'राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति सरकार की गलत नीति के कारण देशवासियों में रोष व्याप्त होना स्वाभाविक है। विदेशी साम्राज्यवाद की प्रतीक अंग्रेजी को लादे रखने के लिए नया विधेयक संसद में न लाइये वरना देश की एकता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। यदि अंग्रेजी को 1965 के बाद भी चालू रखने के लिए नवीन विधान लाने का प्रयास किया तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।'
– डॉ. राम मनोहर लोहिया ने संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के ऐशो आराम पर रोजाना होने वाले 25 हजार रुपये के खर्च को प्रमुखता से उठाया था। उनका कहना था कि भारत की जनता जहां साढ़े तीन आना पर जीवन यापन कर रही है उसी देश का प्रधानमंत्री इतना भारी भरकम खर्च कैसे कर सकता है। 'इसे तीन आने की बहस कहते हैं।' लोहिया जी ने सरकारी तंत्र के ठाठ-बाट की निंदा इतने कड़े शब्दों में की थी कि सारा तंत्र भर्राने लगा था। उन्होंने गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति पर भी सवाल उठाये थे।
क्यों दुनिया मोदी की मुरीद
– देश के 15वें प्रधानमंत्री की शपथ लेते समय नरेन्द्र मोदी ने 'दक्षेस' के राष्ट्र अध्यक्षों को निमंत्रण देकर नया इतिहास रच दिया। इस अवसर पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने दिल्ली पहंुचकर विश्व में उनके भारत आने को लेकर चल रही तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया था। प्रधानमंत्री के इस निमंत्रण को पड़ोसी देशों से आपसी संबंध सुधारने की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया। हाल ही में प्रधानमंत्री के नेपाल दौरे पर जाने से दोनों देशों के बीच और भी प्रगाढ़ संबंध स्थापित हो गये। देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने और विदेशी व्यापार नीति को लेकर भी भविष्य में स्थिति बेहतर होने के संकेत मिल रहे हैं।
-एम.डी. नालापाट (लेखक मणिपाल विश्वविद्यालय के निदेशक हैं)
टिप्पणियाँ